देश में बेरोज़गारी बहुत बड़ा मुद्दा है। यह बात दीगर है कि सत्तारूढ़ सरकार इससे इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती। हाल में जारी एक रिपोर्ट में रोज़गार के अवसर में कमी से चिन्ता और भी बढ़ जाती है। एसोसिएशन ऑफ अकेडमिक ऐंड एक्टिविस्ट लिब टेक की शोध रिपोर्ट के अनुसार, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गांरटी योजना (मनरेगा) में पंजीकृत 84.8 लाख श्रमिकों के नाम इस साल अप्रैल से सिंतबर के बीच हटा दिये गये। लिब टेक का यह आँकड़ा मनरेगा की सरकारी वेबसाइट से लिया गया है। इस शोध रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इनमें सबसे अधिक 14.7 प्रतिशत नाम तमिलनाडु से हटे हैं और दूसरे नंबर पर छत्तीसगढ़ है, जहाँ यह संख्या 14.6 प्रतिशत है। विश्लेषण में इस पर भी रोशनी डाली गयी है कि किस प्रकार सरकारी नियम मनरेगा को प्रभावित कर रहे हैं। इस साल जनवरी से आधार आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) अनिवार्य करने का असर भी इस पर साफ़ दिखायी दे रहा है। 27.4 प्रतिशत से अधिक पंजीकृत मज़दूर आधार आधारित भुगतान प्रणाली के लिए अपात्र बताये गये हैं।
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने चार बार टालने के बाद इस साल जनवरी से एबीपीएस को अनिवार्य किया है। इसमें मज़दूरों को कई शर्तें पूरी करनी होती हैं। इसमें उनका आधार जॉब कार्ड से जुड़ा होना चाहिए और बैंक खाता भी आधार से लिंक होना चाहिए। सच यह है कि इसके क्रियान्वयन में कई मुश्किलें सामने आ रही हैं और सम्बन्धित विभाग को इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। क्रियान्वयन को सफल बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है। रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर, 2023 में इस योजना के तहत 14.3 करोड़ सक्रिय मज़दूर जुड़े थे; लेकिन एक साल यानी अक्टूबर, 2024 में यह संख्या घटकर 13.2 करोड़ रह गयी है। एक साल के दरमियान सक्रिय मज़दूरों की संख्या में आठ प्रतिशत की गिरावट चिन्ताजनक है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने मनरेगा में सक्रिय मज़दूरों की घटती संख्या के मद्देनज़र मोदी सरकार पर निशाना साधा। ग़ौरतलब है कि जब यूपीए-2 सरकार में जयराम नरेश केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री थे, तभी यह योजना शुरू की गयी थी। उन्होंने मोदी सरकार पर मनरेगा को व्यवस्थित रूप से कुचलने का आरोप लागाया है। रमेश ने एक बयान में कहा है कि अब प्रौद्योगिकी पर ग़लत तरीक़े से निर्भरता के माध्यम से श्रमिकों को उनके काम करने के अधिकार और उचित भुगतान से वंचित किया जा रहा है। इसी साल अगस्त में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी आरोप लगाया था कि प्रौद्योगिकी और आधार का उपयोग करने की आड़ में मोदी सरकार ने सात करोड़ से ज़्यादा मज़दूरों के जॉब कार्ड रद्द कर दिये हैं। इसके चलते ये लोग मनरेगा से कट गये हैं।
मनरेगा से कटने के अलावा यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि अक्टूबर, 2023 से अक्टूबर, 2024 के बीच व्यक्तिगत दिवसों में भी 16.6 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है। व्यक्ति दिवस बताता है कि पंजीकृत मज़दूर एक वित्तीय वर्ष में कितने कार्य दिवसों की कुल संख्या पूरी करता है। तमिलनाडु और ओडिशा में व्यक्ति दिनों में सबसे अधिक गिरावट आयी। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि अप्रैल-सिंतबर, 2024 के दरमियान मनरेगा में पंजीकृत 84.8 लाख मज़दूरों के नाम हटा दिये गये। लेकिन इसी दौरान विभिन्न राज्यों में 45.4 लाख नये नाम जुड़े हैं। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि नये नाम जुड़ने के बाद भी इस प्रक्रिया में 39.3 लाख नाम छूट गये। नाम छूटने का दूरगामी असर पड़ सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, लगातार नाम हटने के इस रुझान से कामगारों का भरोसा इस कार्यक्रम पर घटा है और इसकी वजह से गाँवों से पलायन बढ़ा है। दरअसल, 2005 में पारित मनरेगा एक माँग आधारित योजना है, जो प्रत्येक इच्छुक ग्रामीण परिवार के लिए हर वर्ष 100 दिनों के अकुशल कार्य की गांरटी देती है। इसके तहत मिलने वाली दिहाड़ी विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है। जब यह योजना शुरू की गयी, तो इसे ग्रामीणों के लिए जीवन रेखा बताया गया; लेकिन वक़्त बीतने के साथ-साथ इसके क्रियान्वयन में चुनौतियाँ भी बढ़ती गयीं।
अब दिहाड़ी भुगतान नियमों में बदलाव से प्रवासी संकट बढ़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है। यही नहीं, अधिकांश राज्य मनरेगा द्वारा तय 15 दिनों के भीतर दिहाड़ी भुगतान करने में विफल रहे हैं। वित्त मंत्रालय ने भी स्वीकार किया था कि मज़दूरी भुगतान में देरी की स्थिति अपर्याप्त धन का नतीजा है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार संकट दूर करने में काम आने वाले तात्कालिक तरीक़ों में मनरेगा भी एक है। इसका अधिक-से-अधिक लाभ योग्य मज़दूर पात्रों को कैसे मिले, यह सुनिश्चित करना केंद्र व राज्य सरकारों का दायित्व है।
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