Posts

लोकतांत्रिक राजनीति का संकट | Pavitra India

https://ift.tt/tgNSUO3

शिवेन्द्र राणा

आज कांग्रेस की राजनीति संकट में हैं और भारतीय लोकतंत्र का भविष्य भी। आख़िर सशक्त विपक्ष के बग़ैर जनतंत्र का भविष्य अंधकारमय ही होता है। राजनीति में पार्टियों एवं विचारधाराओं का उत्थान-पतन एक सामान्य प्रक्रिया है; किन्तु वर्तमान कांग्रेस की दशा देखकर प्रतीत होता है कि पराभव उसकी स्थायी नियति बन चुकी है। निकट ही हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय एक अप्रत्याशित घटना-क्रम था। वो तो भला हो जम्मू-कश्मीर में गठबंधन का, जहाँ नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रभाव में कांग्रेस की थोड़ी इज़्ज़त बच गयी। हालाँकि यह गंभीर विमर्श का विषय है; क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी के अस्तित्व पर संकट लोकतंत्र के जनतांत्रिक स्वरूप के लिए ख़तरा है।

असल में वर्तमान कांग्रेस की राजनीतिक दुर्गति के कई कारण हैं। सर्व प्रमुख दिक़्क़त यह है कि कांग्रेस ने अपनी नियति को नेहरू परिवार के साथ आबद्ध कर लिया है। दूसरी दिक़्क़त, राहुल गाँधी की राजनीतिक सक्रियता के स्विच ऑन-ऑफ मोड को अब भी समझना कठिन है। वह अकस्मात् ही भारतीय राजनीति में अति सक्रिय होते हैं; जैसे कि भारत जोड़ो यात्रा, जिससे कांग्रेस को वाक़ई लाभ मिला। फिर तुरंत ही अवकाशीय सुषुप्त हो जाते हैं या यूँ कहें कि रहस्यमयी छुट्टियों पर चले जाते हैं, जो कि पार्टी के नेतृत्व के परिप्रेक्ष्य से एक घोर नकारात्मक स्थिति है।

संसद के पहले सत्र में जिस तरह राहुल गाँधी विपक्ष के नेता के रूप में आक्रामक भूमिका में नज़र आये, वह कांग्रेस की राजनीति को नयी दिशा दे रही थी। लेकिन जल्द ही वह फिर से पुराने ढर्रे पर दिखे। वास्तव में उन्हें अभी भी यह समझना है कि राजनीति कोई अंशकालिक (पार्टटाइम) व्यवसाय नहीं है, जिसे वह अपनी सुविधा के अनुसार संचालित करेंगे। तीसरे उनकी बहन प्रियंका वाड्रा से जितनी अप्रत्याशित उम्मीदें काडर ने लगा रखी थीं, वे भी टूटती दिख रही हैं। क्योंकि लगातार चुनावी मैदान में प्रत्यक्ष भूमिका निभाकर भी वह ख़ास प्रभाव या परिवर्तन नहीं पैदा कर सकीं। और ग़ैर-नेहरू परिवार के किसी ज़मीनी नेता के माध्यम से नेतृत्व परिवर्तन की इच्छाशक्ति कांग्रेस के डी.एन.ए. में है ही नहीं, भले ही अब तक उसने कई अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ग़ैर-नेहरू परिवार के चुने हों। कांग्रेस अभी भी नहीं समझ पा रही कि परिवार का बलिदान, आज़ादी की लड़ाई जैसी पारिभाषिक शब्दावलियाँ और दीदी दादी जैसी दिखती हैं या भइया पापा जैसे दिखते हैं; के भावनात्मक नारों से 21वीं सदी की राजनीति, विशेषकर युवा भारत की त्वरापूर्ण लोकतांत्रिक राजनीति नहीं चल पाएगी। वह संभवत: समझ नहीं पा रहे हैं कि 21वीं सदी के आधुनिक युवा भारत को राजनीतिक धरोहरों की राजनीति आकर्षित नहीं कर पा रही है।

हालाँकि नेहरू परिवार को ऐसी नसीहतें लंबे समय से दी जाती रही हैं; लेकिन वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व की राजनीति अहंकार, अहमन्यता, सर्वसत्तावादी मानसिकता का ऐसा समिश्रण हो गयी है, जिसके लिए नेहरू परिवार को तरजीह लोकतांत्रिक आस्था और जन-आकांक्षा से अधिक रुचिकर है। एक समय स्वयं इंदिरा गाँधी ने भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को जन्म के बजाय कर्म आधारित प्रतिष्ठा पाने की नसीहत दी थी। लेकिन स्वयं अपने परिवार को यह ज्ञान नहीं दे पायीं, जिसका ख़ामियाज़ा अब कांग्रेस के साथ-साथ लोकतंत्र भुगत रहा है। दूसरी बड़ी समस्या गठबंधन धर्म की है। एक ओर कांग्रेस फिर से अपनी खोयी ज़मीन पाने के प्रयास में है, तो दूसरी ओर उसके इंडिया गठबंधन के साथी एवं दूसरे वैचारिक सहयोगी उस पर लदने के प्रयास में तो हैं ही, बल्कि अपने अनायास के विवादों में कांग्रेस को भी संकट में डाल रहे हैं। इनमें सबसे ऊपर हैं- समाजवादी राजकुमार एवं स्वयंभू पिछड़ावाद के मसीहा अखिलेश यादव। 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के सफल प्रयोग और अपनी वरिष्ठता स्थापित करने के बाद वह सपा को कांग्रेस की पीठ पर चढ़ाकर पड़ोसी राज्यों में अपने प्रसार की जुगत में लगे हैं। मध्य प्रदेश, हरियाणा के पश्चात् अब उन्होंने महाराष्ट्र में भी उन्होंने सीटों की अनैतिक माँग शुरू कर दी है, जबकि इन राज्यों में सपा और अखिलेश यादव का प्रभाव नगण्य है।

असल में अखिलेश यादव अनायास प्राप्त चुनावी लाभ के आवेग से उपजे जोश को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि उत्तर प्रदेश की प्रभावी घेरेबंदी के बूते वह कांग्रेस को दबाव में लेकर पड़ोसी राज्यों में राजनीतिक सत्ता की हिस्सेदारी कर सकेंगे। हालाँकि कांग्रेस के पूर्व के निर्णयों को देखते हुए लगता भी नहीं है कि वह महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन में मिलने वाली अपने हिस्से की सीटों में सपा को कुछ देगी; और उसका यह निर्णय सही होगा। क्योंकि यदि वह सपा की ऐसी अनर्गल माँगों के सामने झुकती है, तो अन्य राज्यों में उसके सहयोगी भी इसी दबाव की राजनीति का रास्ता अपनाएँगे। उधर यही स्थिति राजद की भी है, जो झारखण्ड में क्षमता से अधिक सीटों की दावेदारी कर रही है, जिसका ख़ामियाज़ा भी अंतत: कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है; क्योंकि गठबंधन की वरिष्ठ सहयोगी होने के नाते यह सारी ब्लैकमेलिंग उसी के मत्थे पड़ रही है। दूसरी ओर पार्टी की सिकुड़ती ज़मीन पर उसके कनिष्ठ सहयोगियों- सपा, राजद, झामुमो, शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों के क़ाबिज़ होने की समस्या भी है।

इसके अतिरिक्त गठबंधन और राजनीतिक सहयोग की परिधि कांग्रेस के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही है। उसके सहयोगियों की राजनीतिक कार्यशैली एवं असंयमित बयानबाज़ी का दुष्परिणाम कांग्रेस की राजनीति पर दिख रहा है। तमिलनाडु में सनातन धर्म-विरोधी निकृष्ट बयान देने वाले डीएमके के युवराज उदयनिधि स्टालिन और उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव की एमवाई-समर्थन वाली राजनीति एवं विघटनकारी जातिवाद की बयानबाज़ी कांग्रेस को भारी पड़ रही है। अपने इन सहयोगियों के कारण वर्तमान कांग्रेस पूरी तरह सनातन धर्म एवं सवर्ण विरोधी तथा जातिवादी दिख रही है, जिसका लाभ अंतत: चुनाव दर चुनाव भाजपा को स्पष्ट मिलता दिख रहा है। हालाँकि इसमें कांग्रेस के रणनीतिकारों की भी भूमिका कम नहीं है। पिछले एक-दो दशकों यानी संप्रग सरकार (2004-2014) तथा उसके बाद के 2014 से अब तक की विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस अपनी रीति-नीति, आचार-व्यवहार में पूरी तरह अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की लीक पर चल रही है। भले ही वह यह सब सेक्युलरिज्म की आड़ में कर रही है। राम सेतु, राम मंदिर के सम्बन्ध में कांग्रेस का जो सनातन-विरोधी रुख़ रहा, वो तो रहा ही; लेकिन इस्लामिक कट्टरपंथ के तुष्टिकरण में तो उसने एक नकारात्मक मिसाल ही पेश की है। भले ही कांग्रेस स्वयं की सेक्युलर राजनीति का दम भरे; लेकिन यथार्थ में उसकी वर्तमान राजनीति सांप्रदायिक ही है।

हालाँकि सन् 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस के उत्तर भारत के बहुत-से राज्यों में पराजित होने एवं लोकसभा में उसका बहुमत बहुत कम हो जाने के कारण पार्टी-नेतृत्व का ही नहीं, बल्कि मुस्लिम, नेताओं, मतदाताओं का यह भ्रम भी ध्वस्त हुआ कि चुनावों में जीत-हार की कुंजी मात्र उनके हाथ में है। लोकतंत्र में किसी भी दल की बुनियादी स्थिरता के लिए समर्थक एवं काडर वोटर का प्रभाव निश्चित रूप से स्वीकार किया जाता है। लेकिन सरकार हर जाति, हर वर्ग के सम्मिलित समर्थन और मतदान से बनती है। हाँ; उसकी सीटें परिस्थितिवश कम या अधिक हो सकती हैं। लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकार यह समझ बैठे हैं कि अल्पसंख्यक भावनाओं को तुष्ट करके एवं बहुसंख्यक समाज की धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं की अनदेखी, बल्कि निरादर से वे सत्ता प्राप्ति का समीकरण बना लेंगे। उस पर भी तुर्रा यह है कि लगातार चुनावी पराभव से भी यह सीखने को तैयार नहीं हैं। अन्यत्र कांग्रेस की वृहत् समस्या उसकी राजनीतिक काहिलियत है। उसे लगता है कि एक दिन एंटी-इनकंबेंसी से प्रभावित जनता उसे ख़ुद ही सत्ता सौंप देगी। इसलिए वह अपनी आत्मघाती राजनीतिक रणनीतियों को न समझने को, न सुधारने को उद्यत है; और निकट ही हरियाणा चुनाव में इस मानसिकता का मुज़ाहिरा भी हुआ, जहाँ सांगठनिक रूप से अव्यवथा फैली रही। हालात ये थे कि पार्टी प्रत्याशी ख़ुद प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्यों से संपर्क नहीं कर पा रहे थे, बल्कि उन्हें तो आख़िरी समय तक प्रचारकों के दौरों की भी जानकारी नहीं होती थी। ऊपर से हुड्डा परिवार ने जो जाट जाति आधारित गोलबंदी की आक्रामकता दिखायी, उससे बाक़ी जातियों के अतिरिक्त वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा की ओर कर दिया। दूसरी ओर कुमारी शैलजा जैसी दमदार दलित नेतृत्व की उपेक्षा ने कांग्रेस के लिए सत्ता संकट आसन्न कर दिया; लेकिन पार्टी नेतृत्व अंत तक नहीं चेता। यह कोई अपवाद नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, लोकसभा 2024 से लेकर कांग्रेस की चुनावी पराजयों की फ़ेहरिस्त में एक नया अध्याय मात्र है, जिसके विश्लेषण एवं समाधान की कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व या उसके तथाकथित प्रबुद्ध योजनाकारों में न इच्छा है और न ही योग्यता; ऐसा प्रतीत हो रहा है।

हालाँकि एक दौर रहा है, जब राजनीति में प्रबुद्ध वर्ग प्रभावशाली था। यानी शिक्षक, लेखक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर आदि। अब लम्पटों, अपराधियों, भ्रष्ट तत्त्वों का बोलबाला है। और यह हर पार्टी, हर राजनीतिक विचारधारा की स्थिति है। चाहे वो कांग्रेस हो, भाजपा हो या वामपंथी दल हों। इसलिए जनता के बुरी तरह नकारने-दुत्कारने तक इनसे सुधरने की उम्मीद तो निरी मूर्खता ही होगी। लेकिन वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व और सांगठनिक पदाधिकारियों को मलयाली के महान् कवि बल्लतोल को पढ़ना और सीखना चाहिए। वह लिखते हैं :-

निरुद्ध चैल मपौरुषत्तिल, चरुटु कूटोल्ल सर्पर वींटुम्।

गुरुपदत्ताक्षर विद्यनेटि, तिरुत्तणं वां धि दुर्विलेखम्।।

अर्थात् ‘मेरे भाइयो! कर से हम निरुद्ध चैतन्य न बनें, अपने अपौरुष में न डूब जाएँ। गुरुजनों द्वारा दी जाने वाली विद्या को सीखकर दुर्विधि के लिखे हुए लेख को सुधारें।’

उम्मीद है कि कांग्रेस नेतृत्व कवि बल्लतोल की इस सीख को सुनने, समझने एवं गुनने का प्रयास करेगी, ताकि वह अपनी जनतांत्रिक भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन कर सके और लोकतंत्र को बचाने के लिए उसकी मौज़ूदगी बनी रह सके।

-------------------------------

 ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें फेसबुक पर लाइक करें या ट्विटर पर फॉलो करें। Pavitra India पर विस्तार से पढ़ें मनोरंजन की और अन्य ताजा-तरीन खबरें 

Facebook | Twitter | Instragram | YouTube

-----------------------------------------------

.  .  .

About the Author

Pavitra India (पवित्र इंडिया) Hindi News Samachar - Find all Hindi News and Samachar, News in Hindi, Hindi News Headlines and Daily Breaking Hindi News Today and Update From newspavitraindia.blogspit.com Pavitra India news is a Professional news Pla…
Cookie Consent
We serve cookies on this site to analyze traffic, remember your preferences, and optimize your experience.
Oops!
It seems there is something wrong with your internet connection. Please connect to the internet and start browsing again.
AdBlock Detected!
We have detected that you are using adblocking plugin in your browser.
The revenue we earn by the advertisements is used to manage this website, we request you to whitelist our website in your adblocking plugin.
Site is Blocked
Sorry! This site is not available in your country.