योगेश
कृषि भारत की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ है। इसलिए इसे कृषि उद्योग कहना ही सही होगा। हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था और रोज़गार में भी कृषि का बहुत बड़ा योगदान है। देश की लगभग 55 से 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि उद्योग पर निर्भर है। पूरी दुनिया में कुल वानस्पतिक भू-भाग के लगभग 11 प्रतिशत भू-भाग पर ही कृषि की जाती है, जबकि हमारे देश में पूरे देश की कुल वानस्पतिक भूमि के लगभग 51 प्रतिशत क्षेत्रफल पर कृषि की जाती है।
हमारे देश में कृषि से दुनिया की कुल 17.2 प्रतिशत जनसंख्या के भरण-पोषण के लायक खाद्य पदार्थ पैदा होते हैं, जबकि हमारे देश की कुल जनसंख्या 145 करोड़ के हिसाब से दुनिया की जनसंख्या का लगभग 17.78 प्रतिशत है। इस हिसाब से हमारे देश में लगभग सभी लोगों के लिए अनाज, दालें, सब्ज़ियाँ और फल उपलब्ध हैं। जिन 0.76 प्रतिशत के लिए इसकी कमी है, उसकी चिन्ता की बात इसलिए नहीं है, क्योंकि देश में 79 प्रतिशत लोग मांसाहारी भी हैं, जिसे जोड़कर हमारे देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। लेकिन भुखमरी सूचकांक-2023 में हमारे देश का स्थान 111 है, जो कि 125 देशों के हिसाब से 100 देशों में 88.8वाँ स्थान है। हमारे देश की केंद्र सरकार को इसकी चिन्ता होनी चाहिए कि यह आँकड़ा बहुत ज़्यादा है और भुखमरी की अति गंभीर और चिन्ताजनक स्थिति दिखा रहा है। उसे 80 करोड़ लोगों को पाँच किलो राशन मुफ़्त देने से बाहर निकलकर उनके लिए रोज़गार की व्यवस्था करनी होगी, जिससे अर्थ-व्यवस्था मज़बूत हो सके और लोगों को पाँच किलो राशन लेने के लिए लाइन में न लगाना पड़े। इसके लिए सरकार को बहुत कुछ न करके सिर्फ़ कृषि सम्बन्धित उद्योगों को बढ़ाना होगा और किसानों से उनकी एमएसपी वाली 23 फ़सलें उचित मूल्य पर सी2+50 के स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के हिसाब से ख़रीदना होगा।
कृषि के विकास से लोगों के पोषण में सुधार होगा, भुखमरी मिटेगी, कुपोषण नहीं रहेगा, कृषि और कृषि उत्पादों से जुड़े लोगों की आय बढ़ेगी और कृषि क्षेत्र में ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिल सकेगा। हमारे देश की सभी सरकारों को समझना होगा की हमारे देश में कृषि असीमित रोज़गार देने में समर्थ है और आर्थिक-सामाजिक विकास की यह प्रधान कुँजी है। कृषि क्षेत्र में हमारा देश प्राचीन-काल से आर्थिक समृद्धि का गवाह रहा है; लेकिन इस क्षेत्र का बड़ा लाभ पहले ज़मींदारों को जाता रहा और आज पूँजीपतियों को जाता है, जिससे किसानों की स्थिति दयनीय बनी रहती है। सिन्धु घाटी सभ्यता के हज़ारों साल पहले के कृषि साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि दुनिया में सिर्फ़ हमारे देश में कृषि का विकास मानव सभ्यता के पुरातन-काल से है और इसका विकास दुनिया के सभी देशों के विकास से हज़ारों साल पहले हो चुका था। लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज हमारा देश ही कृषि में पिछड़ता जा रहा है। इसके लिए जनसंख्या वृद्धि और कृषि क्षेत्र का पूँजीपतियों को हाथ में जाना तो है ही, कृषि उपजों का दूषित होना है। खाद्य उत्पादों की बर्बादी भी इसका बहुत बड़ा कारण है, जिसमें एफसीआई के गोदामों में खाद्य उपजों की बड़ी मात्रा में बर्बादी चिन्ता का विषय है।
आज कृषि एक व्यापक क्षेत्र बन चुका है, जिसके अंतर्गत दुग्ध उत्पादन, बाग़बानी, फ़सल उत्पादन, पशु-पक्षी पालन और मछली पालन आदि आते हैं। कृषि क्षेत्र में देश की कुल जनसंख्या की 50 प्रतिशत जन-श्रम शक्ति लगी है। खाद्य उत्पादों से सम्बन्धित कई छोटे-बड़े उद्योग कृषि पर ही निर्भर हैं, जिनमें जूट उद्योग, लकड़ी उद्योग, वस्त्र उद्योग, खाद्य उद्योग, खाद्य तेल उद्योग, चीनी उद्योग, मसाला उद्योग, चाय-कॉफी उद्योग, शराब उद्योग, कॉस्मेटिक उद्योग, चिकित्सा उद्योग, फल और जूस उद्योग, मादक पदार्थ और तम्बाकू उद्योग सब कृषि क्षेत्र की ही देन हैं। पशु-पक्षी उद्योग पर डेयरी उद्योग, चमड़ा उद्योग, मांस उद्योग, हड्डियों से बनने वाले पदार्थों के कई उद्योग, दवा उद्योग और कॉस्मेटिक उद्योग आदि निर्भर हैं। अगर कृषि उद्योग को बढ़ावा देकर इन सभी उद्योगों को भी बढ़ावा दिया जाए, तो हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था होने में बहुत लंबा समय नहीं लगेगा।
हमारे देश में कृषि उत्पादों पर निर्भर उद्योगों से देश की कुल अर्थ-व्यवस्था का लगभग 35 प्रतिशत आपूर्ति होती है। जबकि कृषि अर्थ-व्यवस्था का देश की कुल अर्थ-व्यवस्था में सिर्फ़ 6.5 प्रतिशत ही भागीदारी है। 1950 के दशक में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि उद्योग की भागीदारी लगभग 53 प्रतिशत थी। अर्थ-व्यवस्था में विकास की गति बढ़ाने और कृषि उद्योग पर ध्यान न देने से सन् 1995 आते-आते सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी सिर्फ़ 25 प्रतिशत रह गयी और वित्त वर्ष 2011-2012 में ये भागीदारी और घटकर 13.3 प्रतिशत ही रह गयी। इस समय हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि उद्योग की भागीदारी लगभग 13.8 प्रतिशत है।
हमारे देश की लगभग 145 करोड़ जनसंख्या भोजन के लिए कृषि पर ही निर्भर है। मांसाहारी भी कृषि क्षेत्र के बिना जीवित नहीं रह सकते। भोजन में सब ज़रूरी है, जिसमें अनाज सबसे ज़रूरी है। अनाज का कोई विकल्प मांसाहार में नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार को कृषि उद्योग को विशेष महत्त्व देना होगा, जिससे इस क्षेत्र से कमायी बढ़े और भारतीय अर्थ-व्यवस्था में कृषि अर्थ-व्यवस्था का योगदान बढ़े। कृषि उद्योग विभिन्न उद्योगों में सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके लिए साफ़ नीयत से केंद्र सरकार को काम करना होगा और किसानों को उनकी फ़सलों का सही मूल्य देना होगा। कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए उसमें सुधार करना होगा और जैविक खेती में पैदावार बढ़ाने के उपाय खोजने होंगे। क्योंकि पूँजी निर्माण में कृषि उद्योग की भूमिका बड़ी और सराहनीय है।
कृषि उद्योग के चलते देश के ट्रांसपोर्ट की आय का 35 प्रतिशत भाग मज़बूत होता है। रेल मार्ग, सड़क मार्ग, जल मार्ग और वायु मार्ग सभी के माध्यम से कृषि उत्पादों का आयात-निर्यात होता है। हमारे देश में कृषि उत्पादों में से अधिकांश का निर्यात पूरी दुनिया में हो रहा है; लेकिन वैश्विक बाज़ारों में भारतीय कृषि उत्पादों की माँग की आपूर्ति अभी तक हमारा देश नहीं कर पा रहा है। इसके लिए केंद्र सरकार को कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कृषि बजट बढ़ाना होगा। क्योंकि कृषि उत्पादों के निर्यात से सरकार के पास विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता है और हमारे देश में विदेशी मुद्रा जितना ज़्यादा होगा देश की अर्थ-व्यवस्था उतनी ज़्यादा होगी। कृषि उद्योग देश के औद्योगिक विकास की आधारशिला है और कृषि उत्पाद औद्योगीकरण के लिए वह मूलभूत पूँजी है, जिससे देश की अर्थ-व्यवस्था क्रियाशील रहती है। लेकिन आज जिस तरह से केंद्र सरकार किसानों के ख़िलाफ़ साज़िशें करके उनका एमएसपी का सही अधिकार भी नहीं दे रही है और दो साल पहले किसानों के तीन कृषि क़ानूनों का विरोध करने पर जो व्यवहार केंद्र सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों ने किया, उसने स्पष्ट कर दिया कि किसानों को सरकार हर हाल में कमज़ोर रखना चाहती है, जिससे उनकी फ़सलों का बड़ा लाभ पूँजीपति ले सकें और किसान अभावों में ही जीए।
आज किसानों को न तो ज्ञान आधारित खेती करने की जानकारी दी जाती है और न ही उनके आर्थिक विकास पर विचार किया जाता है। सरकारी आँकड़ों के हिसाब से केंद्र सरकार उन्हें प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के नाम पर 500 रुपये महीने देकर उन्हें भिखारी साबित करने का काम ऊपर से कर रही है। जबकि किसान इतना दयालु होते हैं कि वे अपने खेतों से इससे ज़्यादा फ़सल मूल्य का तो दान कर देते हैं। अगर केंद्र सरकार उनकी 23 फ़सलों की ही सही एमएसपी दे दे, तो निम्न और मध्यम वर्गीय किसानों को न तो पाँच किलो राशन की ज़रूरत पड़ेगी और न ही 500 रुपये महीने की। हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था में कृषि अर्थ-व्यवस्था में भूमिका बहुत बड़ी है, जो कि पूरे देश की अर्थ-व्यवस्था की मेरुदंड है। सरकार इस मेरुदंड को पूँजीपतियों के हाथ में देकर किसानों को अपाहिज बनाने का काम कर रही है। वर्तमान समय में सरकारी क्षेत्र में मिलने वाली नौकरियों में कृषि उद्योग की नौकरियों में भागीदारी भी 33 प्रतिशत है, जबकि निजी क्षेत्रों में कृषि उद्योग के चलते मिलने वाली नौकरियों की भागीदारी 44 प्रतिशत, वित्तीय क्षेत्र में कृषि उद्योग के चलते मिलने वाली नौकरियों की भागीदारी 10 प्रतिशत और अनुसंधान क्षेत्र में कृषि उद्योग से मिलने वाली नौकरियों की चार प्रतिशत भागीदारी है। हमारे देश में अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में बसी है, जिसमें से 70 प्रतिशत लोग कृषि से जुड़े हैं, जबकि शहरों में 21 प्रतिशत लोग कृषि उत्पादों वाले उद्योगों से नौकरियाँ और रोज़गार पा रहे हैं। इसके बाद भी कृषि उद्योग को इतना कमज़ोर रखना हमारे देश की सरकारों की सबसे बड़ी भूल है। उन्हें कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के अलावा इसमें अवसरों का विस्तार करना चाहिए।
आज पूरी दुनिया जनसंख्या वृद्धि के कारण भविष्य में खाद्य संकट के भय से चिन्तित है और हमारे देश के किसान इस संकट को दूर करने में समर्थ हो सकते हैं; लेकिन इसके लिए उन्हें हतोत्साहित न करके प्रोत्साहित करने का काम करना होगा, जो सरकारें ही कर सकती हैं। हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद में भले ही कृषि सकल घरेलू उत्पाद की भागीदारी कम है; लेकिन देश में खाद्य भंडारण की कोई कमी नहीं है। सरकारों को उनका सदुपयोग करना है और एफसीआई में हर साल सड़ने वाले लाखों मीट्रिक टन अनाज की बर्बादी रोकते हुए एफसीआई के अधिकारियों की अनाज सड़ाकर बेचने की आदत पर रोक लगाने की भी आवश्यकता है।
रबी की बुवाई के समय डीएपी की क़िल्लत
रबी की फ़सलों की बुवाई शुरू होने से पहले ही इस बार उत्तर भारत के कई राज्यों में डीएपी की क़िल्लत से किसान परेशान हैं। दिन-रात सहकारी खाद वितरण केंद्रों पर किसान लाइन लगाकर दिन-दिन भर खड़े रहते हैं और फिर भी डीएपी मिलेगी या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। इसके अलावा शिकायतें हैं कि सहकारी केंद्र डीएपी के साथ जबरन नैनो यूरिया और जिंक किसानों को दे रहे हैं। इससे किसानों को पैसे भी ज़्यादा चुकाने पड़ रहे हैं और नैनो यूरिया तथा जिंक किसानों के काम की भी नहीं है। क्योंकि जिंक धानों में पड़ती है और नैनो यूरिया के कई नुक़सान भी फ़सलों को हो सकते हैं। प्राइवेट खाद विक्रेता डीएपी ब्लैक में बेच रहे हैं और उसके ज़्यादा दाम वसूल रहे हैं। डीएपी न मिलने से किसानों को रबी फसलों, विशेषकर गेहूँ बोने में देरी हो रही है। बुवाई में देरी होने से कई किसानों के खेतों की नमी सूख चुकी है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को किसानों की इस परेशानी को समझना चाहिए।
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