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77 वां कान फिल्म समारोह : श्याम बेनेगल की फिल्म ‘ मंथन ‘ का कान क्लासिक खंड में विशेष प्रदर्शन। दिग्गज अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने मंथन की पूरी टीम को याद किया। | Pavitra India

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भारत के दिग्गज अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने 77 वें कान फिल्म समारोह के कान क्लासिक खंड में शुक्रवार को श्याम बेनेगल की 48 साल पुरानी फिल्म मंधन के प्रदर्शन पर यहां कहा कि यह भारतीय सिनेमा के लिए गौरव का क्षण है। उन्होंने मंथन की पूरी टीम को याद करते हुए कहा कि उसमें से अब कई लोग हमारे बीच नहीं रहे जिन्होंने मिल जुल कर इस फिल्म को इस मुकाम पर पहुंचाया है। मुंबई के शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की संस्था फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन ने इस फिल्म को 4 के में संरक्षित किया है और कान फिल्म समारोह को उपलब्ध कराया है। यह लगातार तीसरा मौका है जब इस संस्था द्वारा संरक्षित भारतीय फिल्में कान फिल्म समारोह में दिखाई जा रही है। फिल्म के मुख्य कलाकारों में गिरीश कर्नाड, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी अब इस दुनिया में नहीं है।  फिल्म की पटकथा लिखने वाले विजय तेंदुलकर और संवाद लिखने वाले कैफी आज़मी भी इस दुनिया में अब नहीं है। गोविंद निहलानी ने मंथन की सिनेमैटोग्राफी की थी। संगीत वनराज भाटिया ने दिया था। इस अवसर पर बीमारी की वजह से श्याम बेनेगल नहीं आ सके।  कान फिल्म समारोह ने नसीरुद्दीन शाह और मंथन की पूरी टीम को सेरेमोनियल रेड कार्पेट दी गई।  शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने घोषणा की कि अगामी एक जून को मंथन देश के 70 शहरों में रीलिज की जाएगी।
नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि यह भारत की पहली फिल्म थी जो क्राउड फंडिंग से बनी थी। उस समय गुजरात के पांच लाख किसानों ने दो दो रुपए का चंदा देकर दस लाख रुपए जमा किए थे। वर्गीस कुरियन ने तैंतीस साल की उम्र में गुजरात के खेड़ा जिले के एक गांव में पहली बार दुग्ध उत्पादन की को – आपरेटिव सोसायटी बनाई थी जो बाद में आनंद में अमूल को- आपरेटिव सोसायटी की बुनियाद बनी।


नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि मंथन उनके कैरियर की दूसरी हीं फिल्म थी। श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में सिनेमाई सौंदर्यबोध को नई उंचाई दी है।  उन्होंने भारतीय सिनेमा को कलात्मक उंचाई दी है जिसे हमेशा याद रखा जाएगा।उन्होंने कहा कि जब यह फिल्म रिलीज हुई तो वे काफी नर्वस थे क्योंकि इस फिल्म में न तो चमक दमक थी न नाच गाना न कोई खास ऐक्शन। फिल्म के सभी कलाकारों ने बहुत उम्दा काम किया था। आज सालों बाद इस फिल्म को देखकर लगता है कि हमारी टीम कितनी गंभीर और प्रतिबद्ध थी। स्मिता पाटिल के बेटे प्रतीक बब्बर ने कहा कि उन्होंने अपनी मां को कभी देखा नहीं क्योंकि उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया था। उन्होंने अपनी मां को केवल सिनेमा के पर्दे पर हीं देखा है।  पहली बार कान फिल्म समारोह में भागीदारी पर उन्होंने कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वे अपनी खुशी को कैसे व्यक्त करें।


फिल्म मंथन के प्रदर्शन के बाद यहां बुनुयेल थियेटर में देर तक दर्शक नसीरुद्दीन शाह के लिए खड़े होकर ताली बजाते रहे।  यह फिल्म एक तरह से भारतीय सिनेमा का ऐतिहासिक दस्तावेज है। सीनोग्राफी कुछ स्टाइलाइज्ड और कुछ यथार्थ वादी है। पटकथा में भावुकता से बचा गया है और कलाकारों का अभिनय स्वाभाविक है।
डा राव ( गिरीश कर्नाड) वेटेनरी सर्जन है।वे अपने सहयोगियों, चंद्रावरकर ( अनंत नाग) और देशमुख ( डा मोहन अगाशे) के साथ गुजरात के एक गांव पहुंचते हैं जहा गरीब किसान दुध बेचकर गुजारा करते हैं। वे वहां सरकार की ओर से एक दुग्ध उत्पादन को – आपरेटिव सोसायटी बनाना चाहते हैं।  इससे सबसे ज्यादा नुक्सान मिश्रा जी ( अमरीश पुरी) को होता है जो एक निजी डेयरी चलाते हैं और ग्रामीणो के दूध औने-पौने दाम पर खरीदकर शहर में उंचे दाम पर बेच देते हैं।  गांव का सरपंच ( कूलभूषण खरबंदा) पहले तो साथ देता है पर जैसे ही इसमें दलितों की भागीदारी बढ़ती है वह मिश्रा जी के साथ मिलकर इनका दुश्मन बन जाता है और फिर साजिशों का दौर  शुरू होता है। एक दलित यंग एंग्री मैन है भोला ( नसीरुद्दीन शाह) । बहुत पहले एक शहरी ठेकेदार  उसकी मां को गर्भवती बनाकर भाग गया था। भोला अमीरों और ऊंची जाति वालों से नाराज़ रहता है।  डा राव के कहने पर दलित एकजुट होकर चुनाव में सरपंच को हरा देते हैं। सरपंच बदला लेने के लिए दलित बस्ती में आग लगवा देता है। वह अपनी ऊंची पहुंच से डा राव का तबादला भी करवा देता है। एक दलित लड़की से शारीरिक संबंध बनाने के बाद चंद्रावरकर को भी गांव छोड़कर जाना पड़ता है। डा राव की पत्नी गांव आती है और बीमार पड़ जाती हैं। एक दलित हिम्मती महिला बिंदु ( स्मिता पाटिल) अपने छोटे बच्चे के साथ डा राव का साथ देती हैं। तभी उसका लापता पति वापस आ जाता है और डा राव पर बदचलनी का आरोप लगाता है। अंत में हम देखते हैं कि डा राव अपनी पत्नी के साथ निर्जन रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ रहा है और भोला दौड़ता हुआ आ रहा है। ट्रेन चल देती हैं। आगे की कहानी भोला की है कि कैसे वह साजिशों के बावजूद डेयरी को- आपरेटिव सोसायटी बनाने में सफल होता है।

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