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कहीं चुनाव जीतने का पैंतरा तो नहीं कोटे में कोटा? | Pavitra India

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हरियाणा में दूसरी बार भाजपा की सरकार बनते ही दोबारा मुख्यमंत्री बने नायब सिंह सैनी ने अनुसूचित जातियों में वर्गीकरण करते हुए आरक्षण में आरक्षण देने यानी कोटे के भीतर कोटा बनाने का फ़ैसला ले लिया। यह काम उन्होंने इतनी शीघ्रता से किया कि 17 अक्टूबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और 18 अक्टूबर को ही कैबिनेट की बैठक बुलाकर यह प्रस्ताव पारित कर दिया। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने उनके फ़ैसले की तारीफ़ करते हुए इसका स्वागत किया है। इससे साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में साल 2027 के विधानसभा चुनाव में योगी सरकार इसी फॉर्मूले का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए करेगी।

इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने दलितों के 22 फ़ीसदी आरक्षण में बँटवारे के साथ-साथ पिछड़ों के 27 फ़ीसदी आरक्षण में भी बँटवारे के लिए सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट और सुझाव को आधार बनाया है। प्रदेश सरकार ने दलितों को तीन वर्गों- दलित, अति दलित और महादलित में विभाजित करने की योजना बनायी है, और इन्हें क्रमश: सात, सात और आठ फ़ीसदी आरक्षण देना चाहती है। इसमें चार जातियों को दलित वर्ग में, 37 जातियों को अति दलित वर्ग में और 46 जातियों को महादलित वर्ग में शामिल किया गया है। इसी प्रकार से पिछड़ा वर्ग में पिछड़ी, अति पिछड़ी और सर्वाधिक पिछड़ी जातियों में बाँटकर सभी को नौ-नौ फ़ीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव है। पिछड़ों में भी 12 जातियों को पिछड़ा वर्ग में, 59 जातियों को अति पिछड़ा वर्ग में और 79 जातियों को सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग रखा गया है।

दरअसल, भाजपा नेता जानते हैं कि अपवाद के रूप में तीन-चार फ़ीसदी को छोड़कर अमूमन अनुसूचित जातियों और तक़रीबन 56 फ़ीसदी पिछड़ी जातियों के वोटर किसी भी राज्य में उसे वोट नहीं देते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उनके पास अपने दलित और पिछड़ा वर्ग के नेता हैं, जो उनकी बात करते हैं; जबकि भाजपा ने अभी तक के अपने राजनीतिक इतिहास में दलितों और पिछड़ों के लिए कोई ऐसा क़दम नहीं उठाया, जिसके लिए दलित वोटर उसके साथ खड़े हों। इसके अलावा दोनों वर्गों के आरक्षण का विरोध खुलकर नहीं, तो दबी ज़ुबान से कांग्रेस और भाजपा दोनों ही करती रही हैं। अभी पिछले साल ही जब कांग्रेस ने जातिगत जनगणना और हर जाति के लोगों को हिस्सेदारी के हिसाब से आरक्षण की जब वकालत की, तो भाजपा ने इसका विरोध किया। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में भी कहा कि वह किसी भी प्रकार के आरक्षण को पसंद नहीं करते हैं। हालाँकि इसके विपरीत 8,00,000 रुपये से कम वार्षिक पारिवारिक आय होने, नगर पालिका के अंतर्गत 200 वर्ग गज़ तक का मकान या गाँव में इससे बड़े मकान में रहने वाले और पाँच एकड़ से कम कृषि ज़मीन वाले सवर्णों को ग़रीब मानते हुए भाजपा ने उन्हें ईडब्ल्यूएस कोटे के तहत अलग से 10 फ़ीसदी आरक्षण साल 2019 में दे दिया। कांग्रेस के जातिगत जनगणना को बढ़ावा देने और उसके आधार पर आरक्षण देने के वादे का नुक़सान भाजपा को चुनावों में हुआ। इसका सीधा-सा तोड़ भाजपा ने अब यह निकाला है कि आरक्षण में आरक्षण निकालकर दबी-कुचली अनुसूचित जातियों और अति पिछड़ी जातियों को तोड़ लो। इससे न सिर्फ़ दलित और ओबीसी नेता कमज़ोर होंगे, बल्कि भाजपा को चुनाव जीतने में आसानी भी रहेगी। और हरियाणा में दलितों में विभाजन का प्रयोग भाजपा के लिए संजीवनी बना भी है। कांग्रेस भी ऐसे ही प्रयोग करने की ताक में थी। उसने जनगणना और जनगणना के आधार पर आरक्षण का मुद्दा इसलिए ही उठाया है।

दरअसल, आरक्षण में आरक्षण की शुरुआत कुछ साल पहले मडिगा आरक्षण पोराटा समिति (एमआरपीएस) ने अविभाजित आंध्र प्रदेश में एक जन-आन्दोलन के रूप में की थी। इसकी माँग मडिगाओं ने एमआरपीएस के संस्थापक मंदा कृष्ण मडिगा के नेतृत्व में की थी। अब आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है। हरियाणा के विधानसभा चुनाव से पहले नायब सिंह सैनी की सरकार ने अनुसूचित जातियों को राज्य में मिलने वाले 20 फ़ीसदी आरक्षण के कोटे में से कोटा बनाने के लिए एक कमेटी गठित की थी, जिसकी रिपोर्ट चुनाव से पहले ही आ गयी थी। चुनावी मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए नायब सिंह सैनी की सरकार-1 ने इसे लागू करने की अनुमति माँगते हुए चुनाव आयोग के सामने पेश किया। हालाँकि चुनाव आयोग ने आचार संहिता लागू होने के चलते इसकी अनुमति नहीं दी; लेकिन हरियाणा में कमज़ोर अनुसूचित जातियों के बीच यह मैसेज चला गया कि भाजपा सरकार उन्हें अलग से आरक्षण की व्यवस्था देने को तैयार है। इसका लाभ भाजपा को चुनाव में मिला। अब मुख्यमंत्री नायब ने अनुसूचित जातियों के लिए राज्य में दिये जा रहे 20 फ़ीसदी आरक्षण में से 10 फ़ीसदी आरक्षण अति पिछड़ी अनुसूचित जातियों को देने का फ़ैसले को मंज़ूरी दे दी। और बड़ी होशियारी से मुख्यमंत्री सैनी ने अपने इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट पर डाल दिया है कि राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन किया है।

दरअसल, इसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों में उप वर्गीकरण का फ़ैसला सुनाया था। इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यों को पिछड़ेपन के विभिन्न स्तरों के आधार पर एससी और एसटी को उप-वर्गीकृत करने की संवैधानिक अनुमति है। हालाँकि साल 2006 में जब पंजाब सरकार ने फ़ैसला किया था कि मज़हबी सिख और वाल्मीकि जाति के लोगों को अलग से आरक्षण दिया जाएगा; लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दे दी गयी और तब सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था कि साल 2004 में ही हमने एक फ़ैसला दिया था कि किसी भी राज्य सरकार को यह फ़ैसला लेने का अधिकार नहीं है। क्योंकि यह तय करने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने कई राज्यों में अनुसूचित जातियों के बीच ही भेदभाव और कुछ जातियों को आरक्षण का फ़ायदा न मिलने की स्थितियों और तर्कों को देखते हुए जातियों में उप वर्गीकरण करने का फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि कोई भी राज्य सरकार चुनावी फ़ायदे के लिए जातियों के वर्गीकरण का फ़ैसला न ले। जातियों में वर्गीकरण के लिए उसके पास पुख़्ता आधार और सही आँकड़े होने चाहिए।

सवाल यह है कि क्या कोई भी सरकार या पार्टी बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ के कोई फ़ैसला लेती है? हरियाणा सरकार ने भी तो राजनीतिक फ़ायदे के लिए यह फ़ैसला लिया है। और भविष्य में उत्तर प्रदेश सरकार भी ऐसा फ़ैसला लेकर उसका चुनावी फ़ायदा लेना चाहती है। ज़ाहिर है कि भाजपा सरकारों के फ़ैसलों को राष्ट्रपति की मंज़ूरी बड़ी आसानी से मिल जाएगी। यह अलग बात है कि विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों के फ़ैसलों में केंद्र की मोदी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल और उपराज्यपाल टाँग अड़ा देते हैं। लेकिन भाजपा सरकारों के फ़ैसलों को पलटने की हिम्मत कोई नहीं दिखा सकता, भले ही वो फ़ैसला आम जनता के ख़िलाफ़ क्यों न हो। बहरहाल, मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए हरियाणा की नायब सरकार ने करते हुए अनुसूचित जातियों में वंचित अनुसूचित जाति (डीएससी) नाम की एक नयी श्रेणी बनायी है, जिसमें 36 अनुसूचित जातियों- वाल्मीकि, खटीक, कोरी, जुलाहा, धानक, धोगरी, बरार, बंगाली, बंजारा, बोरिया, बटवाल, अद धर्मी, दागी, दरेन, देहा, चनल, डुमना, गगरा, गंधीला, मरीजा, मज़हबी, मेघ, नट, ओड, पेरना, पासी, फरेरा, सांसी, संसोई, संहाई, संहाल, सपेला, सरेरा, सिकलीगर और सिरकीबंद आदि जातियों को किया गया है। दरअसल, हरियाणा में अनुसूचित जातियों के आरक्षण में से वंचित अनुसूचित जातियों के लिए अलग से आरक्षण देने की माँग लंबे समय से उठती रही है, जिसे भाजपा लंबे समय से भुनाना चाहती थी। भाजपा ने साल 2014 और साल 2019 के विधानसभा चुनावों बाक़ायदा अपने घोषणा-पत्र में वंचित अनुसूचित जातियों को आरक्षण में से अलग आरक्षण देने का वादा भी किया था। हरियाणा में तक़रीबन 3.12 करोड़ से ज़्यादा आबादी है, जिसमें तक़रीबन 26 से 27 फ़ीसदी अनुसूचित जातियों की आबादी है, जिसमें तक़रीबन 14 फ़ीसदी से ज़्यादा वंचित अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी है। हालाँकि ये अनुमानित आँकड़े हैं। क्योंकि अगर अपवाद के तौर पर बिहार को छोड़ दें, तो देश के किसी दूसरे राज्य में पिछले क़रीब 13 वर्षों से जातिगत जनगणना नहीं हुई है। साल 2011 की जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक, उस समय हरियाणा की कुल आबादी 2.5 करोड़ से ज़्यादा थी, जिसमें से क़रीब 27.5 लाख से ज़्यादा यानी तक़रीबन 11 फ़ीसदी हिस्सेदारी वंचित अनुसूचित जातियों की थी। हरियाणा सरकार के साल 2011 के आँकड़ों के मुताबिक, सामान्य अनुसूचित जातियों में ग्रुप-ए की हिस्सेदारी 4.5 फ़ीसदी, ग्रुप-बी की हिस्सेदारी 4.14 फ़ीसदी और ग्रुप-सी की हिस्सेदारी 6.27 फ़ीसदी थी। इसी प्रकार से वंचित अनुसूचित जातियों के ग्रुप-ए की हिस्सेदारी 11 फ़ीसदी, ग्रुप-बी की हिस्सेदारी 11.31 फ़ीसदी और ग्रुप-सी की हिस्सेदारी 11.8 फ़ीसदी थी। साल 2011 के आँकड़ों के मुताबिक, राज्य में वंचित अनुसूचित जातियों में सिर्फ़ 3.53 फ़ीसदी आबादी ग्रेजुएट थी। इसके अलावा 12वीं तक पढ़े-लिखे लोगों की आबादी महज़ 3.75 फ़ीसदी और हाईस्कूल तक पढ़े लोगों की आबादी महज़ 6.63 फ़ीसदी थी, जबकि इन जातियों में निरक्षर यानी अनपढ़ लोगों की आबादी 46.75 फ़ीसदी थी। ज़ाहिर है कि अब शिक्षा में इतनी ख़राब स्थिति इन लोगों की नहीं होगी। अनुसूचित जातियों में उप वर्गीकरण करने के फ़ैसले के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री सैनी ने कहा कि इस फ़ैसले से हरियाणा सरकार अब राज्य में अनुसूचित जातियों में वंचित जातियों को भी आरक्षण दे सकेगी। लेकिन बसपा की मुखिया मायावती, रामदास अठावले और दूसरे कई दलित नेताओं हरियाणा सरकार के इस फ़ैसले का विरोध किया है। मायावती ने अपने सोशल मीडिया हैंडल एक्स पर लिखा है- ‘हरियाणा सरकार को ऐसा करने से रोकने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के आगे नहीं आने से भी यह साबित है कि कांग्रेस की तरह भाजपा भी आरक्षण को पहले निष्क्रिय व निष्प्रभावी बनाने और अंतत: इसे समाप्त करने के षड्यंत्र में लगी है, जो घोर अनुचित है। बसपा इसकी घोर विरोधी है। वास्तव में जातिवादी पार्टियों द्वारा एससी-एसटी व ओबीसी समाज में फूट डालो-राज करो व इनके आरक्षण विरोधी षड्यंत्र आदि के विरुद्ध संघर्ष का ही नाम बसपा है। इन वर्गों को संगठित व एकजुट करके उन्हें शासक वर्ग बनाने का हमारा संघर्ष लगातार जारी रहेगा।’

दरअसल, मायावती अब तक उत्तर प्रदेश में अकेली बड़ी दलित नेता के रूप में रही हैं और दलितों में उनका ख़ास सम्मान भी है। लेकिन हाल के तीन-चार साल में उनके इस वोट बैंक में जबरदस्त सेंध आज़ाद समाज पार्टी प्रमुख और नगीना से हाल ही में चुने गये सांसद चंद्रशेखर आज़ाद ने तो लगा ही दी है, अब भाजपा के इस पैंतरे से उन्हें अपने पाले से दलितों के खिसकने का भी डर सताने लगा है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में भाजपा पिछले दो लोकसभा चुनावों की तुलना में 2024 के लोकसभा चुनाव में कमज़ोर हुई। ज़ाहिर है कि अगर उसने दूसरी पार्टियों के वोट नहीं काटे, तो साल 2027 के विधानसभा चुनाव में भी उसकी स्थिति ख़राब होनी तय है, जो कि भाजपा और संघ किसी भी हाल में नहीं चाहेंगे। इसलिए भाजपा नेता, ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी हरियाणा के मुख्यमंत्री सैनी वाला फॉर्मूला अपनाएँगे। अब देखना यह है कि दलित नेता भाजपा के इस तुरुप के पत्ते की क्या काट निकालेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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