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मैंने तीन सदियाँ देखी हैं – Part 2 | Pavitra India

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गांधी जी और खान अब्दुल गफ्फार खान के शांति और अमन के आश्वासन के बावजूद मेरे पिता जी ने रावलपिंडी छोड़ने का मन बना लिया था ।इस बाबत उनके अपने तर्क थे,दलीलें थीं ।उनका कहना था कि अब यह बात तो पक्की हो चुकी है कि हिंदुस्तान दो टुकड़ों में बंटेगा ।यह विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है ।इसका पूर्वाभ्यास हम लोग मार्च, 1947 में देख चुके हैं ।हम लोग तो फौज की निगरानी में दो हफ्ते काट कर सकुशल अपने अपने घरों में लौट आये लेकिन दोनों फिरकों में कितने लोग हताहत हुए होंगे और कितनों के घरबार और जायदाद तबाह हुई होगी इसकी हम आम लोगों के पास कोई जानकारी नहीं है,हुकूमत के पास ज़रूर होगी जो एक बार फिर बलवे के डर से आमजन से साझा नहीं कर रही है और न ही हमारे बड़े बड़े नेता ही हमारे साथ शेयर कर रहे हैं ।अंदर ही अंदर आग तो ज़रूर धधक रही है ।मेरे पिता जी के रावलपिंडी छोड़ने के इस निश्चय का तत्कालिक कारण उनके मुसलमान पार्टनर का सुझाव था ।उसने मेरे पिता को सलाह दी थी कि तुम दोनों भाई – पिता जी और मेरे चाचा परमानंद-
सहजधारी हो,तुम्हारा बेटा केशधारी है, उसके बाल कटवा दो और मज़े से हमारे साथ ही रहो ।लेकिन मेरे पिता जी यह बात चुभ गयी । उन्होंने सोचा कि आज तो बेटे के बाल कटाने को कह रहा है कल वह हमें मुसलमान बनने को भी कहेगा ।लिहाजा उन्हें अपने मुसलमान पार्टनर का सुझाव पसंद नहीं आया बल्कि यों कहें कि बहुत नगवार गुज़रा । हमारे परिवार में लोग गुरद्वारे भी जाते थे और मंदिर भी ।किसी तरह की कोई बंदिश नहीं थी ।मैंने केश अपनी मर्ज़ी से बढ़ाये थे और अपने परिवार में पहला सिख था ।मैं भी मंदिर और गुरुद्वारा दोनों जगह जाता था और आज भी जाता हूं ।कट्टरता नाम की कोई चीज़ हमारे परिवार में कभी नहीं रही है ।मेरी माँ नवरात्रि में सारे व्रत रखा करती थीं ।

बहरहाल,मेरे पिता जी ने रावलपिंडी छोड़ने का मन बना लिया था लेकिन उससे पहले वह दो काम करना चाहते थे:एक, पंजा साहब गुरद्वारे में मत्था टेकना और दूसरा वापसी में तक्षिला खँडहरो को एकबारगी पुन: देखना ।14-15 अगस्त, 1947 को हिंदुस्तान का विधिवत विभाजन होना था लिहाजा हम लोग जुलाई में रावलपिंडी से ट्रेन से हसन अब्दाल गये ।वहीं पंजा साहब का तीर्थस्थान है ।वहां बेइन्तहा संगत देखकर हमें घोर आश्चर्य हुआ ।यह भीड़ सारे अविभाजित भारत के शहरों की थी ।लगता है सभी के ज़ेहन में यही सवाल था कि न जाने कब अगली बार हमें यहां की तीर्थयात्रा नसीब होगी ।हसन अब्दाल का कस्बा बहुत गुलज़ार था जो एक बड़े शहर से कम नहीं लग रहा था।क्योंकि हम लोग अक्सर पंजा साहब आया करते थे मेरे पिता जी की यहां के कुछ दुकानदारों से जान पहचान भी हो गयी थी ।इसमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे ।लेकिन अजब बात यह थी आज का हसन अब्दाल उन्हें खुशी कम गमी का ज़्यादा एहसास करा रहा था ।बंटवारे की खबर तो सभी को थी,यहां के दुकानदारों को भी ।उन्हें यह अनुभव हो चला था कि 14-15 अगस्त आते आते यह संगत कम होती चली जाएगी और विभाजन के बाद तो हसन अब्दाल वीरान हो जायेगा ।हसन अब्दाल के स्थानीय लोगों और दुकानदारों का यह डर बेबुनियाद नहीं था।जो जुलाई, 1947 में मेरे पिता जी ने महसूसा था वह 1990 में मैंने पंजा साहब पहुंच कर सही पाया ।वहां के लोगों और दुकानदारों ने अपनी बदहाली बयान करते हुए बताया था कि अब तो हसन अब्दाल साल में दो दिन ही गुलज़ार होता है जब दुनिया भर के सिख भाई-बहन गुरु नानक देव जी के जन्मदिन और बैसाखी पर यहां आते हैं,बाकी के दिनों में तो वही सूरतें दीखतीं हैं जो मन को खुशी नहीं दर्द देती हैं ।

हम लोगों ने पंजा साहब गुरुद्वारे के भीतर जाकर धर्मशाला में अपना ठौर ठिकाना बनाया ।उसके बाद गुरद्वारे की परिक्रमा की।बहुत ही बड़ा गुरुद्वारा है ।इतनी संगत होने के बावजूद कहीं कोई भगदड़ नहीं ।आप किसी से पूर्वपरिचित हैं या नहीं सत श्री अकाल के लिए आपके दोनों हाथ अपने आप जुड़ जायेंगे ।वहां पर दो सरोवर हैं ।बताया जाता है कि एक गुरु नानक ने अपने शिष्य मरदाना की प्यास मिटाने के लिए एक चट्टान को हटा कर बनाया था और दूसरा वह जो पीर वली कंधारी ने गुरु नानक देव जी को मारने के प्रयास में उन पर एक पहाड़ी सरका दी थी जिसे उन्होंने अपने पंजे से रोका था और उसपर गुरु जी का पंजा अंकित हो गया था ।

कथा कुछ इस प्रकार बतायी जाती है ।अपनी यात्राओं के दौरान गुरु नानक हसन अब्दाल आये और उन्होंने एक पहाड़ी के नीचे आप डेरा जमा दिया ।वहां वह दिन रात कीर्तन करते और मरदाना रबाब बजाता था ।गुरु नानक देव जी का कीर्तन सुनने के लिए लोगों की भीड़ जमा होने लगी ।पहाड़ी पर रहने वाले वली कंधारी को यह लगा कि उसके अनुयायी अब गुरु नानक का कीर्तन सुनने के लिए जाने लगे हैं ।वह गुस्से में आ गया ।एक रोज़ मरदाना को जब प्यास लगी तो गुरु नानक ने उसे वली कंधारी के पास पानी पीने के लिए भेजा लेकिन वली कंधारी ने उसे पानी देने से मना कर दिया ।जब उसने गुरु नानक ने उसे यह बात बतायी तो उन्होंने दूसरी बार मरदाना को वली कंधारी के पास भेजा लेकिन इस बार भी वह प्यासा ही लौट आया ।तीसरी बार गुरु नानक ने मरदाना को फिर भेजा,इस बार वली गुस्से में आकर बोला कि जा मैं नहीं पिलाता, अगर तेरे गुरु में इतना ही दम है तो उसे कहो कि वह पानी का सरोवर निकाल दे।जब मरदाना ने गुरु नानक को वली कंधारी का यह संदेश दिया तो उसे सुनने के बाद जहां गुरु नानक बैठे थे वहां से एक चट्टान उठाई और पानी का सरोवर बन गया तथा मरदाना ने छक कर पानी पिया ।गुरु नानक देव के इस कौतुक को देखकर वली कंधारी आग बबूला हो गया और उसने उनके ऊपर एक पहाड़ी सरका दी जिसे गुरु नानक ने अपने हाथ से रोक लिया ।उस पर उनका पंजा अंकित हो गया और उस पहाड़ी से भी सरोवर बन गया और पानी निकलना शुरू हो गया ।

आम तौर पर श्रद्धालु सुबह सवेरे पंजे का दर्शन करने के लिए जाते हैं ।मेरे पिता जी ने हमें सुबह तीन बजे तैयार रहने के लिए कहा ।हम तीनों मेरे माता पिता और मैं स्नान और पंजे के दर्शनो के लिए पहुंच गये ।पहले एक सरोवर में स्नान किया और बाद में पंजे वाले सरोवर में ।पंजे के सामने काफी देर तक हाथ जोड़े बैठे रहे हम लोग और मुंह से बाबे की रहमत मांगते रहे वाहेगुरु सतनाम । 1990 में उसी पंजा साहब गुरुद्वारा में मैं अकेला था और मेरे साथ था ख्वाजा विदेश मंत्रालय का एक अधिकारी ।बता रहा था कि हम लोग अमृतसरी हैं,सुबह रोज़ हरमन्दर साहब (स्वर्ण मंदिर) जाया करते थे ।पेशावर के दो सिख सेवादार थे।मैं बहुत देर तक गुरु नानक देव जी के पंजे वाले स्थान पर बैठा था ।वहां से जल भर कर मैं दिल्ली लाया था ।

बीच बीच में विषयान्तर हो ही जाता है ।पंजा साहब से हम लोग तक्षिला आये ।रावलपिंडी और पंजा साहब के बीच में पड़ता है ।वहां के खंडहर देखकर मेरे पिता जी के मुंह से अचानक निकल गया ‘क्या हमारे घर और मकान भी सभी ऐसे ही बन जाएंगे’ यह सवाल तो उन्होंने मुझ से और मेरी मां से किया था लेकिन पास खड़े एक व्यक्ति ने जवाब दिया कि हम जो देख रहे हैं उसमें पुरानी सभ्यता दफन है,हिंदुस्तान के बँटवारे से आबादी का घरों-मकानों का नहीं बंटवारा होग।अब आबादी का बंटवारा अमन-रसूख से होगा या एबटाबाद से नरगिस के फूलों को रौंदने वाली जुनूनी भीड़ करेगी,कहा नहीं जा सकता ।पंजा साहब से एक सड़क एबटाबाद से होते हुए मुज़फ्फाराबाद जाती है वहां 1946 में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें सुनने में आयीं थी ।हम लोगों ने झट से तक्षिला का म्यूजियम देखा और रावलपिंडी लौट आये ।

मार्च,1947 के दंगों के बाद मेरे पिता जी के ज़ेहन में वही 1946 वाली तक्षिला की उस अनजान इंसान की बात कौंध गयी और उन्होंने 5 अगस्त,1947 को रावलपिंडी का घर छोड़ते हुए अपने भाई परमानंद और माँ लाजवंती (मेरी दादी) से कहा कि मालिक ने चाहा तो हम ज़रूर मिलेंगे । इस प्रकार हम लाहौर और लखनऊ से होते हुए 7 अगस्त,1947 को सुबह टिनिच स्टेशन पर जा उतरे ।उसे आमा बाज़ार भी कहा जाता है ।छोटा सा स्टेशन था और गांव साथ ही लगा हुआ था ।जहां जिस के घर जाना था मेरे पिता उस व्यक्ति से परिचित थे।हमारे लिये एक बड़े से घर का इंतजाम था । वहां पहुंचकर हम लोगों ने सुकून महसूस किया ।कुछ ही दिनों के बाद मेरे ननिहाल कैलू से मेरे फूफा प्यारा मल,मेरे दो मामे प्रेम सिंह और संतोख सिंह सलूजा भी टिनिच आ गये ।इस प्रकार हम तीन पंजाबियों के वहां घर हो गये ।

मेरे पिता जी को मेरी शिक्षा को लेकर फिक्र थी ।रावलपिंडी में पढ़ाई उर्दू माध्यम में होती थी जबकि टिनिच में हिंदी माध्यम में ।मुझे तो हिंदी का क,खा,गा भी नहीं आता था लिहाजा पहले मेरे हिंदी पढ़ाने का प्रबंध किया गया ।इस बीच 1948 आ गया ।मेरी पढ़ाई का एक साल बरबाद हो गया ।रावलपिंडी में मैं छठी कक्षा में पढ़ता था ।हिंदी पढ़ जाने के बावजूद नियमित तौर पर पढ़ाई नहीं हो पा रही थी।30 जनवरी जब गांधी जी की हत्या हुई तो शक की सुई पाकिस्तान से आने वाले किसी शरणार्थी पर हुई ।मेरे पिता घबरा गये ।अब कहीं दंगे हुए तो भाग कर कहां जायेंगे ।शुक्र है कि शीघ्र ही यह कुहासा छंट गया और हम लोगों ने राहत की सांस ली ।

लगता है विपत्ति का हमारे साथ चोली दामन का साथ है । टिनिच एक छोटा सा गांव है।वह दो हिस्सों में बंटा हुआ था-रेल पटरियों के दोनों ओर ।रेल क्रासिंग दोनों भागों को बांटती थी। दोनों तरफ़ अलग अलग दिनों में बाज़ार लगा करते थे ।मैं भी अपनी एक पटरी लगाया करता था ।एक दिन मैं ऐसे ही बाज़ार में घूम रहा था कि एक हलवाई की दुकान के सामने से गुज़रा ।अचानक क्या देखता हूं कि उसकी दुकान के बाहर एक कढ़ाई में उबलते हुए तेल से एक बूंद सहसा उछली और मेरी बाईं आंख में पड़ गयी ।मैं कराह उठा ।हलवाई किसी तरह से मुझे सहारा देते हुए घर ले गया ।छोटा गांव था हर कोई हर किसी को जानता था ।तुरंत एक वैद्य जी को बुलाया गया ।जो कुछ उनसे बन पड़ता था, उन्होंने उपचार किया लेकिन मेरी उस आंख की रोशनी लगभग जाती रही ।उसके बाद बड़े शहरों में आने पर नामी गिरामी नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया लेकिन उस आंख से सिर्फ मैं कुछ उँगलियाँ भर देख सकता हूं और वह भी धुंधली धुंधली ।मेरी तो ‘दिनमान’ की नौकरी जाते जाते बची ।टाइम्स ऑफ इंडिया के डॉ वासुदेव ने अपने चिकित्सा जांच में यह उपबंध जोड़ दिया कि वैसे तो मैं स्वस्थ हूं लेकिन ‘मेरी एक आंख ही काम करती है जिससे मेरे कार्य में दिक्कत पेश आ सकती है ।इसके लिए किसी नेत्र विशेषज्ञ का सर्टिफ़िकेट जरूरी है ।’ भला हो नेत्र विशेषज्ञ डॉ जैन का जिन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि मेरी एक आंख पूरी तरह से स्वस्थ है और मैं अपना कार्य करने में पूरी तरह से सक्षम हूं ।’

मेरी आंख के हादसे के बाद दूसरी दुर्घटना जो हमें भीतर तक हिला गयी वह थी किसी बिच्छू का मेरे पिता को काट लेना।उस बिच्छू का डंक कुछ ऐसा जहरीला था जिसने मेरे पिता जी को चारपाई पर लिटा दिया और वह पूरी तरह से बेहोश हो गये ।आसपास और दूर दराज के कई वैद्य आये,झाड़ने फूंकने वाले भी लेकिन उनकी बेहोशी बरकरार रही ।सातवें दिन न जाने कहां से कोई ओझा आया जिसने मेरे पिता को होश में ला दिया ।लेकिन इन दो हादसों ने हमें हिला दिया ।मैंने घबरा कर रायपुर में रहने वाले अपने मौसा ज्ञानचंद छाबड़ा को एक पोस्ट कार्ड लिखकर इन हादसों की खबर दी जिसके जवाब में उन्होंने हमें तुरंत रायपुर आने की सलाह दी ।घबरा तो मैं इतना गया था कि एकबारगी सोचा कि मौसा को टेलीग्राम दे कर यहां बुला लूं फिर मुझे किसी बड़े बुजुर्ग ने बताया कि ऐसी गलती बिल्कुल मत करना क्योंकि ‘तार का मतलब होता है बुरी खबर और इसी तरह किसी के यहां ऊपर से हल्का फटा पोस्ट कार्ड आ जाये तो वह मातम का संदेश देता है ।’इसीलिए मैंने पोस्ट कार्ड ही लिखा था।

मार्च-अप्रैल, 1949 को हम लोग टिनिच से रायपुर चले गये ।हमारे साथ हमारे फूफा और बड़े मामा प्रेम सिंह का परिवार भी गया जबकि छोटा मामा संतोख सिंह अपनी बहन के यहां दिल्ली चला गया ।मेरे मौसा की मदद से मेरा दाखिला माधवराव सप्रे स्कूल में हो गया ।उस समय वहां दो ही बड़े स्कूल थे।दूसरा स्कूल था सेंट पाल ।दो ही कॉलेज थे राजकुमार और छत्तीसगढ़ ।मुझे दाखिला छठी कक्षा में मिला अर्थात् विभाजन की वजह से मेरे दो साल मारे गये ।बेशक और लोगों ने भी इस त्रासदी को झेला होगा ।अक्सर लोगों का एक सवाल मुझे परेशान करता था जब वह पूछते थे कि तुम लॉरी स्कूल में पढ़ते हो न।मैं इस रहस्य से परिचित नहीं था ।नवीं कक्षा में मैं जब पहुंचा तो हिंदी के अपने अध्यापक स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी से परेशान करने वाली इस गुत्थी को सुलझाने के लिए कहा तो उन्होंने बताया कि इसका पुराना नाम लॉरी स्कूल ही था ।लेकिन स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इसे बदल कर माधवराव सप्रे हाई स्कूल रखा गया । माधवराव सप्रे की स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका थी।वह हिंदी के साहित्यकार ,शिक्षक,कोशकार थे और अनुवादक के रूप में हिंदी भाषा को समृद्ध किया ।’एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली कहानी
होने का श्रेय प्राप्त है ।उन्होंने रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की।उनके जीवन संघर्ष,साहित्य साधना,उनकी राष्ट्रवादी चेतना,समाज सेवा आदि को देखते हुए ही लॉरी स्कूल का नाम माधवराव सप्रे स्कूल रखा गया ।इतना ही नहीं मेरी हिंदी भाषा निखारने और मुझे लेखक बनाने में स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी की अहम भूमिका थी क्योंकि वह भी शिक्षक के साथ साथ साहित्यकार,पत्रकार,समाज सेवी और स्वतंत्रता संग्राम में तपे हुए व्यक्ति थे ।

स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी शिक्षक के अतिरिक्त मेरे आराध्य इस लिए भी बन गये थे कि उन्होंने ही मुझे अज्ञेय, प्रेमचंद,बंकिमचन्द्र चटर्जी,शरत चंद्र, यशपाल,डॉ धर्मवीर भारती जैसे लेखकों के साहित्य से रूबरू कराया और ‘दैनिक महकोशल’ में मुझे सदा छपवाते रहे ।उन्होंने ही मेरा प्रसिध्द क्रांतिकारी रहे वैशम्पायन से परिचय करवाया और उन्होंने ही 1952 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को छत्तीसगढ़ कॉलेज की एक सार्वजनिक में शामिल होकर उनके विचारों को जानने और समझने की प्रेरणा दी ।यही वजह थी कि जब 1955 में पंडित नेहरू भिलाई इस्पात संयंत्र की नींव रखने आये तो उन्हें सुनने के लिए मैं रायपुर से भिलाई गया था ।मुझे पंडित जी की दिल्ली की वह सभा भी याद है जिस में उन्होंने एक नयी कालोनी का नामकरण किया था ।जिस कालोनी का उद्घाटन करने के लिए पंडित नेहरू को बुलाया गया था उसका मूल नाम रिफूजी कालोनी था।उन्होंने कहा कि आप लोग पंजाब से यहां आकर बसे हैं और अपनी मेहनत और जज्बे से यह कालोनी बनायी है फिर यह रिफ़ूजी कालोनी कैसे हुई, इसका नाम होना चाहिए पंजाबी कालोनी ।

रायपुर में माधवराव सप्रे स्कूल से हाई स्कूल पास कर हिंदी और अंग्रज़ी की टाइपिंग सीख कर लोकसभा सचिवालय में जुलाई 1956 में नौकरी मिल गयी हिंदी टाइपिस्ट के तौर ।रायपुर से यहां कैसे पहुंचा एक चमत्कारी कहानी है,उस बाबत फिर कभी ।लेकिन यहां आकर जीवन ही कुछ बदल गया ।जिन नेताओं के बारे में कभी अखबारों में पढ़ा करते थे वे रोज़ दीखने लगे ।पंडित नेहरू को करीब से देखा,नमस्ते हुई और थोड़ी बहुत बातचीत भी ।मेरी नियुक्ति लेजिस्लेटिव ब्रांच में हुई थी।उस ब्रांच में भी सांसदों का आना जाना लगा रहता था और हम लोगों का भी लोकसभा के सदन में ।एक बात मैं और स्पष्ट कर दूं कि हमारी ब्रांच में कोई छोटा बड़ा पद नहीं था ।सभी लोग एक समान थे,कोई किसी को हेय दृष्टि से नहीं देखता था । यह उस दौर की सुंदरता थी ।

मैंने 1956 में लोकसभा सचिवालय की नौकरी जायन की यानी लोकसभा के पहले सत्र के अंतिम दिनों में ।1957 में लोकसभा का नया चुनाव होना था ।लेकिन उससे पहले फरवरी में राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करना था ।हमारी शाखा तीसरी मंज़िल पर थी लिहाजा हम लोग नीचे के लॉन की गतिविधियों को आसानी से देख सकते थे । संसद के संयुक्त सत्र को राष्ट्रपति संबोधित करने के लिए संसद भवन आते थे ।उनकी विधिवत अगवानी करने के उपरांत एक जुलूस की शक्ल में उन्हें केंद्रीय कक्ष ले जाया जाता था ।सबसे आगे लोक सभा और राज्यसभा के सचिव चलते थे, उनके पीछे राष्ट्रपति और राष्ट्रपति के पीछे लोकसभा अध्यक्ष एम ए अय्यंगार और राज्यसभा के सभापति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और सबसे पीछे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ।यह दृश्य बहुत ही दिलकश हुआ करता था ।उस समय लोकसभा के सचिव महेश्वर नाथ कौल हुआ करते थे ।उपराष्ट्रपति क्योंकि राज्यसभा का पदेन सभापति भी होता है वह और लोकसभा के स्पीकर साथ साथ चलते थे ।शुरू में लोकसभा सचिवालय में सबसे बड़ा अधिकारी सचिव होता था,बाद में इसे महासचिव का दर्जा दिया गया।दूसरे स्थान पर संयुक्त सचिव होता था ।उस समय के संयुक्त सचिव थे श्यामलाल शकधर,जिन्हें बहुत पावरफुल माना जाता था । कौल साहब के बाद वही महासचिव बनाये गये थे।

3 दिसंबर, 1884 में जिरादेई, बिहार में जन्मे डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे।उनके पीठासीन अधिकारी रहते ही संविधान का निर्माण हुआ ।उनके राष्ट्रपति बनने से पहले देश के प्रमुख राजनीतिक, दार्शनिक और चाणक्य कहे जाने वाले राजा जी के नाम से विख्यात चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को स्वतंत्र भारत का दूसरा गवर्नर जनरल बनाया गया पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन थे । चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (10 दिसंबर,1878-25 दिसंबर,1972) 1948 से 1950 तक इस पद पर रहे । वह दक्षिण भारत के प्रमुख नेता थे।राजा जी गांधी जी के समधी थे।राजा जी की बेटी लक्ष्मी की शादी गांधी जी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी से हुई थी । पंडित जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी नीतियों को लेकर राजा जी ने कांग्रेस छोड़ कर 1959 में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की ।उसके स्थापित सदस्यों में पीलू मोदी,मीनू मसानी, महारानी गायत्री देवी,एन जी रंगा,के एम मुंशी आदि थे ।1962 में इस पार्टी ने लोकसभा में 18 सीटें जीती जबकि 1967 में 44 जीत कर प्रमुख विपक्षी पार्टी बनी ।पीलू मोदी 1967 और 1971 में गोधरा से लोकसभा चुनाव जीते थे।1978 में वह राज्यसभा सदस्य बने राजा जी से मेरी मुलाकत पीलू मोदी के सौजन्य से हुई थी ।उन्होंने ही राजा जी मेरा परिचय कराते हुए कहा था कि दीप मेरे पत्रकार मित्र हैं ।


लेकिन 26 जनवरी,1950 को जब देश का संविधान लागू हुआ तो डॉ राजेन्द्र प्रसाद पहले राष्ट्रपति बने और गवर्नर जनरल का पद समाप्त कर दिया गया ।1952 और 1957 के चुनावों के बाद भी राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति बने ।इस प्रकार डॉ राजेंद्र प्रसाद बारह बरसों तक देश के राष्ट्रपति रहे ।उनके बाद आज तक किसी भी राष्ट्रपति को दूसरा कार्यकाल नसीब नहीं हुआ । हम लोग राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को हर साल संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिए आते तो देखते ही थे,गणतंत्र दिवस पर परेड की सलामी लेते हुए भी ।डॉ राजेंद्र प्रसाद से दो बार राष्ट्रपति भवन में मिलने का अवसर ज़रूर मिला लेकिन सिर्फ हाथ जोड़कर अभिनंदन करने तक ही वह सीमित रहा ।जितने बड़े वह विद्वान थे उनकी जीवन शैली उतनी ही सरल थी । राजेंद्र बाबू के नाम से मशहूर उनकी वेशभूषा बहुत ही सरल थी।उनके चेहरे मोहरे को देखकर यह पता ही नहीं चलता था कि वह इतने बड़े विद्वान और प्रतिभा संपन्न व्यक्ति हैं ।देखने में वह सामान्य किसान जैसे लगते थे ।राजेंद्र बाबू अपने जीवन में सरल तथा नि:स्वार्थ सेवा की जीती जागती मिसाल थे।

वह बहुभाषाविद्ध थे ।अंग्रज़ी, हिंदी, उर्दू,संस्कृत, फारसी,बंगला,गुजराती जैसी कई जुबानें समझ,बोल,लिख,पढ़ सकते थे ।वह सदैव प्रथम श्रेणी में ही पास होते रहे ।प्रतिभशाली वह इतने थे कि एक बार पढ़ी या लिखी हुई चीज़ को वह कभी भूलते नहीं थे।उनकी स्मरणशक्ति गजब की थी ।उनकी इस खूबी के बारे में दो बहुत ही प्रचलित किस्से हैं ।बताया जाता है कि स्नातक की परीक्षा में एक पेपर आया जिस में दस प्रश्नों में से किन्हीं पांच प्रश्नों का उत्तर लिखना था लेकिन राजेंद्र बाबू ने सभी दसों प्रश्नों के उत्तर लिखते हुए अंत में यह टिप्पणी दर्ज कर दी कि आप जो चाहें चुन लें ।ऐसे ही किसी अन्य किसी परीक्षा में राजेंद्र बाबू की उत्तर पुस्तिका देखने के बाद एक परीक्षक ने अपने किसी सहयोगी से कहा बताते हैं कि यह परीक्षार्थी तो परीक्षक से भी अधिक होशियार है । ऐसे उनकी याददाश्त को लेकर मुझे लोकसभा सचिवालय में एक टिप्पणी सुनने को मिली थी।किसी ने बताया कि संसद में अपना अभिभाषण तैयार करने से पहले उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को कुछ सुझाव भेजे थे ।लेकिन जब उनके पास भाषण आया तो अपने सुझाव समाहित न देखकर उन्होंने पंडित जी को फोन करके पूछा कि उनके सुझावों को उनके अभिभाषण में सम्मिलित क्यों नहीं किया गया ।पंडित जी का उत्तर था कि उन्हें आपके सुझाव मिले ही नहीं। इस पर राजेंद्र बाबू ने कहा कि मैं आध घंटे में फिर से वे सुझव भेजता हूं ।पंडित जी ने राष्ट्रपति के सुझावों को संसद की दोनों सदनों में पढ़े जाने वाले राष्ट्रपति के अभिभाषण में शामिल किया ।ऐसे थे उस समय के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच के रिश्ते ।तब राष्ट्रपति सरकार द्वारा तैयार किया गया भाषण ही नहीं पढ़ते थे बल्कि उनमें राष्ट्रपति के विचारों का भी सम्मान होता था ।बाद में जब किसी अधिकारी की टेबल से राजेंद्र बाबू के सुझावों का पहला प्रारूप प्राप्त हुआ तो पाया गया कि पहला और दूसरा प्रारूप बिल्कुल एक समान है, कहीं किसी पैरा,विराम और अर्द्धविराम का भी नहीं अंतर नहीं ।

राष्ट्रपति भवन में काम करने वाले एक परिचित ने मुझे बताया था कि राष्ट्रपति बनने के बाद जब डॉ राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में रहने के लिए आये तो अपनी आदत के अनुसार सुबह उठकर अपनी धोती अपने हाथ से धो कर जब सुखाने के लिए डालने लगे तो उनके एक सेवक ने कहा कि ‘सर, अब आप देश के राष्ट्रपति हैं,आपकी सेवा के लिए इतने सारे नौकर चाकर हैं आप यह तकलीफ क्यों करते हैं?’ इस पर डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा बताते हैं कि हम तो बचपन से ऐसा ही करते आये हैं, हमें कोई दिक्कत नहीं ।खैर बाद में उनके पद की गरिमा की वजह से उन्हें प्रोटोकोल को निभाना पड़ा ।

क्योंकि मैं लेजिस्लेटिव ब्रांच में काम करता था ।वहां आम तौर पर गैरसरकारी किसी विधेयक या संकल्प पर मंत्री और प्रधानमंत्री अपनी टिप्पणी लिखकर भेजा करते थे ।होता यों था कि जब भी किसी सांसद का विधेयक या संकल्प ब्रांच को प्राप्त होता था तो वह संबंधित मंत्रालय को उसकी टिप्पणी के लिए भेजा जाता था ।क्योंकि उन दिनों प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ही विदेशमंत्री भी थे उन्होंने एक गैरसरकारी संकल्प पर अपनी टिप्पणी नीली शीट पर लिखकर भेजी और उस पर हस्ताक्षर थे जे. नेहरू ।इसी प्रकार से लोक सभा से जो विधेयक पारित होते थे उन पर लोकसभा अध्यक्ष और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हुआ करते थे जिन्हें safe custody में रखा जाता था।मैंने डॉ राजेंद्र प्रसाद,डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ ज़ाकिर हुसैन के दस्तखत देखे हैं जो बहुत ही सुंदर हुआ करते थे।उन पर पूरा उनका नाम होता था ।लोकसभा स्पीकर के तौर पर एम ए अय्यंगर और सरदार हुकम सिंह के हस्ताक्षर देखे हैं ।ये लोग भी अपना पूरा नाम लिखा करते थे ।पहली,दूसरी और तीसरी लोकसभा के बहुत से महत्वपूर्ण सांसदों और मंत्रियों को मैंने देखा है और कुछ से मिला भी कई बार ।मोरारजी भाई देसाई के दस्तखत बहुत खूबसूरत थे। पंडित नेहरू के हस्ताक्षर से युक्त एक बोर्ड हर ब्रांच में लगा होता था जिस में लिखा होता था कि ‘मुझे सफाई देने की नहीं काम करने में रुचि है ।जवाहरलाल नेहरू ‘।नीचे पूरे नाम के हड़ताक्षर ।

दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू की भांति ही योग्य होने के साथ साथ दार्शनिक भी थे ।जहां राजेंद्र बाबू किसान राष्ट्रपति के तौर पर प्रसिद्ध थे,डॉ राधाकृष्णन दार्शनिक राष्ट्रपति के रूप में ।लोकसभा सचिवालय में काम करते हुए उन्हें उपराष्ट्रपति के तौर पर अक्सर देखा करते थे क्योंकि राज्यसभा का पदेन सभापति होने के नाते संसद केअधिवेशन के दिनों में कमोबेश रोज़ संसद भवन आया करते थे । उन्हें सबसे पहले करीब से 1964 में देखा था जब वह साहित्य अकादेमी के पुरस्कारों को प्रदान करने के लिए आये थे ।हिंदी में अज्ञेय को उनके कविता संग्रह ‘आंगन के पार द्वार’ के लिए और मेरी बहन श्रीमती प्रभजोत कौर को उनकी पंजाबी कविता संग्रह ‘पब्बी’ के लिए पुरस्कार मिला था ।तभी मैंने पहली बार अज्ञेय को देखा और मिला था अपनी बहन के सौजन्य से और उन्हीं के निमंत्रण पर मैं साहित्य अकादेमी के पुरस्कार समारोह में भी शामिल हुआ था ।उसी अवसर पर डॉ राधाकृष्णन को बहुत करीब से देखने का अवसर प्राप्त हुआ था ।यह वह दौर था जब साहित्य अकादेमी की गतिविधियों में शिक्षामंत्री हुमान्यू कबीर के अतिरिक्त राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति,प्रधानमंत्री आदि भी गहरी दिलचस्पी लिया करते थे ।यही कारण है कि उस समय के साहित्य अकादेमी के पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं का खूब स्वागत सत्कार हुआ करता था ।मैं कई बार प्रभजोत कौर जी के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों में गया था जहां के प्रिंसिपलों ने उनका सम्मान किया था ।हिंदी भवन में भी हिंदी के अज्ञेय के अलावा प्रभजोत जी को भी साहित्यिक उपलब्धियों की चर्चा हुई थी ।उन दिनों हिन्दी भवन कनाट प्लेस के पास स्थित थियेटर कम्यूनिकेशन बिल्डिंग में हुआ करता था ।

5 सितम्बर,1888 को तिरुत्तनी, मद्रास (वर्तमान तमिलनाडु) में जन्मे सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के दूसरे राष्ट्रपति थे। वह 1962 से 1967 तक इस पद पर रहे। वह देश के पहले उपराष्ट्रपति थे जिनका कार्यकाल दस बरस का रहा-1952 से 1962 तक ।वह सोवियत संघ में भारत के दूसरे राजदूत थे 1949 से 1952 तक ।उनसे पहले विजय लक्ष्मी पंडित थीं ।1939-1948 तक वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे ।वह देश के महत्वपूर्ण राजनेता,प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक,भारतीय संस्कृति के संवाहक और आस्थावान हिन्दू विचारक थे।उनके इन्हीं सर्वोत्तम गुणों के चलते उन्हें 1954 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था ।डॉ राधाकृष्णन संयुक्तराष्ट्र संघ की ‘यूनेस्को’की कार्य समिति के अध्यक्ष थे ।5 सितम्बर उनके जन्मदिन को प्रति वर्ष शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है । डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की विद्वता का सारी दुनिया बहुत सम्मान करती थी ।

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को देखने,मिलने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का भी मुझे अवसर मिला ।मेरी बहन प्रभजोत कौर के पति कर्नल नरेंद्रपाल सिंह राष्ट्रपति राधाकृष्णन के उपसैन्य सचिव थे।कर्नल साहब भी पंजाबी के जाने माने उपन्यासकार हैं और उन्हें भी साहित्य अकादमी से पुरस्कार प्राप्त हुआ है उन्हें निवास राष्ट्रपति भवन में ही मिला हुआ था। प्रभजोत जी बताया करती थीं कि राष्ट्रपति राधाकृष्णन के नज़दीक रहना भी एक तरह का सौभाग्य होता था ।राष्ट्रपति से मिलने के लिए किस्म किस्म के लोग आते ।यह दार्शनिक राष्ट्रपति बच्चों के साथ बच्चा बन जाते, युवकों के साथ युवा तथा।शक्तिशालियों के साथ शक्तिशाली ।उनसे जो भी मिलने के लिए आता संतुष्ट होकर ही जाता ।प्रभजोत जी बताती हैं कि मेरा उनसे अक्सर मिलना होता था।वह फिलासफी की अपनी किताबें पढ़ने के लिए देते जिन्हें पढ़कर मेरे ज्ञानचक्षु खुल गये । उनकी एक पुस्तक का पंजाबी में अनुवाद भी किया ‘सच दी भाल’ एक बार प्रभजोत जी की बड़ी सख्त ड्यूटी लग गयी उन्हें हर सुबह 11 बजे राष्ट्रपति को अखबारें पढ़ कर सुनाने की ।डॉ राधाकृष्णन की आंख में मोतिया उतर आया था ।एक बार जब मैंने राष्ट्रपति से मिलने की अपनी बहन से गुज़ारिश की तो उन्होंने मुझे 11 बजे से पहले अपने घर आने के लिए कहा ।वह मुझे अपने साथ ही 11 बजे राष्ट्रपति से मिलवाने के लिए ले गयीं ।उन्होंने डॉ राधाकृष्णन से मेरा परिचय कराते हुए कहा था कि यह मेरा भाई है त्रिलोक दीप जो आजकल लोकसभा सचिवालय में काम करता है लेकिन पढ़ने लिखने का बहुत शौक है ।इसने नरेंद्रपाल सिंह के उपन्यास और यात्रा संस्मरणों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद करके छपवाया है और मेरी कविताओं का भी हिंदी में अनुवाद किया है ।डॉ राधाकृष्णन ने मुस्कुराते हुए मेरी पीठ पर हाथ फेरा और अपनी शुभकामनायें दीं । निस्सन्देह उनका बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व था ।अज्ञेय जी की डॉ राधाकृष्णन से भेंट कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के माध्यम से हुई थी जो करीब आध घंटे तक चली ।बताया जाता है कि अज्ञेय और डॉ राधाकृष्णन के बीच दर्शनशास्त्र पर काफी महत्वपूर्ण और रुचिकर बातचीत हुई थी ।यह जानकारी स्वयं मुझे कर्नल साहब ने दी थी ।

राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दूसरा कार्यकाल नहीं मिला था । बताया जाता है कि यदि पंडित नेहरू जीवित होते तो उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलने की पूरी संभावना थी ।लेकिन 1964 में उनके निधन के बाद ये संभावनाएं क्षीण हो गयीं।1966 में देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मौत ने रही सही कसर पूरी कर दी थी।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लगता है किसी भी राष्ट्रपति को दूसरा कार्यकाल देने के पक्ष में नहीं थीं ।वह परम्परा आज तक चल आ रही है ।1967 में डॉ ज़ाकिर हुसैन को भारत का तीसरा राष्ट्रपति बनाया गया

डॉ ज़ाकिर हुसैन से मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी जब वह उपराष्ट्रपति थे शायद 1964 में ।मेरे मित्र जयप्रकाश भारती ने डॉ ज़ाकिर हुसैन को बच्चों की कुछ पुस्तकें भेंट करने के लिए समय लिया था ।उनके साथ मेरे अतिरिक्त शकुन प्रकाशन के मालिक सुभाष जैन और बाल साहित्यकार रत्न प्रकाश शील भी थे ।डॉ ज़ाकिर हुसैन को भारती जी सब पुस्तकें दिखा रहे थे जिन्हें वह बहुत मनोयोग से देखते हुए उनके विषयों की तारीफ कर रहे थे ।जब मेरी पुस्तक ‘हमारा संविधान’उनके हाथ में आयी वह ठिठक गये और उलटना पलटना शुरू कर दिया ।मैंने खड़े होकर उन्हें कुछ बताना चाहा तो बोले यह तो हमारे प्रोफेशन से संबंध रखती है ।लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह की भूमिका को बहुत सटीक बताते हुए उन्होंने भारती जी की ओर मुखातिब होकर सहास्य कहा कि हमें भी ऐसा मौका दिया करें । इस पर भारती जी ने डॉ साहब को बताया कि दीप जी लोकसभा सचिवालय में काम करते हैं और उनका सरदार हुकम सिंह से मिलना जुलना होता रहता है ।डॉ ज़ाकिर साहब ने तब हंस कर कहा था कि बैठते तो हम भी संसद भवन में ही हैं भई,कभी इधर भी नज़रे इनायत हो जाया करे ।यह उनका स्नेहाभाव था ।

एक हफ्ते बाद मैं डॉ ज़ाकिर हुसैन के निजी सचिव से उनसे मिलने का समय मांगने के लिए गया।कुछ ही समय बाद मुझे फोन करके बताया गया कि फलां दिन डॉ साहब 6,मौलाना आजाद रोड पर चाय पर आपका इंतज़ार करेंगे । यह उपराष्ट्रपति भवन का पता था ।मैं निश्चित दिन समय पर डॉ ज़ाकिर हुसैन से मिलने के लिए पहुंच गया ।वह बहुत ही प्यार से मिले ।पहले उन्होंने मेरी जिंदगी का पूरा भूगोल और इतिहास जानना चाहा ।मैंने उन्हें रावलपिंडी के हादसों,गांधी जी और खान अब्दुल गफ्फार के आमजन को दिये गये आश्वासनो से लेकर लोकसभा सचिवालय तक की पूरी कहानी बता दी ।वह खासे संजीदा हो गये थे ।मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,’बहुत बहादुर हो बरखुरदार ।सरदार हुकम सिंह को कैसे जानते हैं?’ उसकी भी उन्हें तफ़सील से जानकारी दे दी।बहुत खुश हुए।उन्होंने मुझ से पूछा क्या उर्दू पढ़ लेते हो ।मैंने हामी भर दी क्योंकि रावलपिंडी के डेनीज़ स्कूल में पढ़ाई का माध्यम उर्दू था।तब तक कुछ अभ्यास था,पढ़ लेता था ।उन्होंने अपनी एक किताब भेंट की ।काफी देर तक बातचीत होती रही ।डॉ ज़ाकिर हुसैन ने मुझसे मिलते रहने के लिए कहा ।

मैं अक्सर डॉ साहब से मिलने के लिए उनके निवासस्थान पर चला जाया करता था।एक दिन उन्होंने पूछा कि आजकल क्या लिख रहे हैं ।उन दिनों मैं बच्चों की कहानियों के अलावा अन्य प्रकार की कहानियां भी लिखा करता था और एक उपन्यास पर भी काम कर रहा था ।उस उपन्यास के विषयवस्तु के बारे में जब डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन ने अपनी दिलचस्पी दिखायी तो मैंने उन्हें बताया कि दो दोस्तों की दास्ताँ है,एक लड़के और लड़की की ।शुद्ध पवित्र दोस्ती की । गौर से सुनने के बाद बोले,बड़ा नाज़ुक विषय है,हर कदम बहुत संभल कर आगे बढ़ाना ।जानते हो दोस्त क्या होता है!एक ऐसा फरिश्ता जो आपको आपसे भी ज़्यादा जानता है ।मेरी इतनी उम्र हो गयी, बेइन्तहा लोग जिंदगी में आये।स्वतंत्रता संग्राम में भी तमाम लोगों का साथ रहा।वह जमावड़ा भर ही रहा। बहुत लोग करीबी भी थे लेकिन उनमें से कोई दोस्त नहीं था। परिचितों और जान पहचान वालों की फहरिस्त लंबी हो सकती है लेकिन उनमें से किसी में भी दोस्ती वाले अंसर आपको देखने को नहीं मिलेंगे ।दोस्ती जिस्मानी और रूहानी मिलन का नाम है,दोस्ती इबादत है, दोस्ती सुबह शाम,सोते जागते आपको गुदगुदाती है,आपकी जिंदगी वह अटूट हिस्सा है ।कभी कभी तो दोस्त को अपने दुख सुख का ख्याल ही नहीं रहता लेकिन असली दोस्त आपकी मन:स्थिति देख आपको डॉक्टर के पास ले जाएगा,आपको किसी आध्यात्मिक गुरु के पास ले जाएगा,वह तब तक बेचैन रहेगा जब तक आप पूरी तरह से महफ़ूज नहीं हो जाते,तंदरुस्त नहीं हो जाते ।उसे यह परवाह नहीं होगी कि आपको सही और तंदरुस्त रखने पर कितना खर्च हो रहा है ।दोस्ती में हिसाब-किताब नहीं होता और न ही उसमें अमीरी-गरीबी देखी जाती है ।दोस्ती जब हो जाती है तो हो जाती है ।यह कुदरती देन है ।मैं कोई फंतासी बयान नहीं कर रहा हूं ,हक़ीक़त है,आंखों देखी हक़ीक़त। मैं कुछ बेलाग और समर्पित लोगों को जानता भी हूं लेकिन अफसोस मुझे आज तक ऐसा कोई दोस्त नहीं मिला यह मैं दिल से कबूलता हूं ।आपको कोई मिल जाये तो बहुत संभाल कर रखियेगा,बहुत बेशकीमती तोहफा होता है परवरदीगार का। जहां तक आपके उपन्यास की बात है उसकी बुनावट कुछ ऐसी रखना कि कहीं भी दोस्ती को शर्मसार न होना पड़े ।इस बात की कोशिश करना कि लड़के-लड़की की यह दोस्ती आखिर तक पवित्र रहे ।मैं तो यह सलाह दूंगा कि लड़का लड़की से खुद शादी न करे बल्कि अपनी पाक दोस्ती की खातिर कुर्बानी दे और अपने हाथों से उसकी शादी किसी और से कराये ।त्याग भी तो दोस्ती का एक तत्व है ।

डॉ ज़ाकिर हुसैन मुझे बेपनाह प्यार करने लगे थे ।हर चीज़ बहुत ही तरीके और सलीके से समझाते थे और मेरे लेखन को बेशक उन्होंने एक नयी दिशा दी थी ।वह तपे हुए राजनीतिक थे लेकिन उनकी इंसानियत लासानी थी। 8 फरवरी, 1897 में हैदराबाद के एक अफरीदी पश्तून परिवार में जन्मे डॉ ज़ाकिर हुसैन की शिक्षा उत्तरप्रदेश के इटावा और अलीगढ़ में हुई ।बर्लिन विश्वविद्यालय में उन्होंने पढ़ाई की और वहीं से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की ।गांधी जी के करीबी सहयोगी डॉ ज़ाकिर हुसैन जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक सदस्य थे । 1948 में उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया ।1962 में उपराष्ट्रपति चुने गये और 1963 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया ।1967 में राष्ट्रपति बनने वाले पहले मुस्लिम थे । राष्ट्रपति बनने पर हमारी मुलाकातें नहीं के बराबर रह गयी थीं ।उनके काम का दायरा बहुत बढ़ गया था और मसरूफियत भी ।फिर भी एक बार मिला ज़रूर ।मेरे प्रति उनके प्यार में कोई कमी नहीं थी लेकिन मुझे ही झिझक होने लगी थी ।वक़्त की वहां बहुत पाबंदी हुआ करती थी और खुलकर बातें भी नहीं हो पाती थीं ।

लेकिन अफसोस उनका कार्यकाल बहुत छोटा रहा ।3 मई,1969 को 72 साल की उम्र में उनका निधन हो गया । वह बमुश्किल दो साल तक राष्ट्रपति के पद पर रहे ।उनके अचानक इंतकाल की खबर सुनकर कर न केवल देश के लोग ही स्तब्ध रह गये बल्कि दुनिया भरके लोग इस ‘शिक्षक राष्ट्रपति’ के निधन पर गमज़दा थे ।उनको आखिरी विदाई देने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा था ।मैं उन अश्रुपूरित लोगों में शामिल था जो अपने हरदिल अज़ीज़ और रहनुमा शिक्षक राष्ट्रपति को अलविदा कह रहे थे ।उनके जनाजे में सिर्फ हिंदुस्तान के ही नहीं पाकिस्तान सहित बहुत से देशों के प्रतिनिधि और राज्याध्यक्ष शामिल थे ।किसी देश के राष्ट्रपति के जनाजे में इतनी खलकत शायद पहली बार देखी गयी थी ।उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया परिसर में दफन किया गया । वहां उनकी मज़ार पर आज भी लोग अपनी अकीकत पेश करने जाते हैं ।

(अगले पोस्ट में पढ़िए पंडित जवाहरलाल नेहरू और लोकसभा के माननीय अध्यक्षों के बारे में)

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