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सेना, सिन्दूर और सियासत | Pavitra India

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वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो यह संभव नहीं कि किसी के शरीर में ख़ून की जगह सिन्दूर बहे। लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भरी जनसभा में यह कहा, तो ज़्यादातर लोगों ने इसे राजनीतिक (सियासी) डायलॉग माना। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के सिन्दूर को इस तरह अपनी सियासी के केंद्र में ले आने के बीच एक कड़वा सच यह है कि पहलगाम में 26 बहनों का सिन्दूर उजाड़ने वाले चार आतंकी अभी भी नहीं पकड़े गये हैं। लेकिन प्रधानमंत्री की पार्टी भाजपा के बड़े नेता आये दिन शहीदों की विधवाओं, सेना की नायिकाओं के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं और सीमा पार भारत के नौ आतंकी ठिकानों पर हमले में बचे सभी आतंकी सरगना नये सिरे से ख़ुद को खड़ा करने में जुटे हैं।

प्रधानमंत्री के बयानों को शायद इसलिए भी राजनीति से जुड़ा माना जाता है कि इस तरह की घटनाएँ चुनावों के आसपास हुई हैं। साल 2019 में लोकसभा के चुनाव थे और अब बिहार के चुनाव हैं। यह चुनाव भाजपा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माने जा रहे हैं। एक नयी बात भारत के इतिहास में यह हुई कि भारत-पाकिस्तान के बीच हाल के लघु युद्ध में देश की नायिका के रूप में उभरी सेना की कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी के माता-पिता ने प्रधानमंत्री मोदी के गुजरात के वडोदरा में उनके राजनीतिक रोड शो में हिस्सा लिया। पहले तो यह पता नहीं चल सका कि उन्होंने ऐसा ख़ुद की इच्छा से किया या इसके पीछे स्थानीय भाजपा नेताओं की इच्छा थी। सोफ़िया की माता हलीमा क़ुरैशी और पिता ताज मोहम्मद क़ुरैशी ने बाद में प्रधानमंत्री से हुई मुलाक़ात को ज़िन्दगी का अविस्मरणीय पल भी बताया। लेकिन जब एक मीडियाकर्मी ने सोफ़िया की माँ से सवाल किया कि क्या आपको स्पेशली इनवाइट किया गया था आज? तो उन्होंने बताया कि वहाँ लोकल कलेक्टर ऑफिस (ज़िलाधिकारी कार्यालय) से कॉल था। मीडियाकर्मी ने पूछा कि अच्छा, ये आपको लोकल कलेक्टर ऑफिस से कॉल आया था कि आप जाइए रोड शो के लिए आज? इस पर हलीमा क़ुरैशी ने कहा कि हाँ; बुलाया गया था।

प्रधानमंत्री मोदी एक चतुर राजनीतिक हैं। यह माना जाता है कि उनके पास अनेक इनपुट थे, जो यह संकेत कर रहे थे कि जिस तरह से भारत-पाक के बीच युद्ध-विराम की घोषणा हुई और यह घोषणा भी अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की तरफ़ से हुई, उसका देश के लोगों में अच्छा संकेत नहीं गया है। सच है कि लोगों में इससे नाराज़गी थी। अभी भी इस पर सवाल उठ रहे हैं। ऊपर से भाजपा के बड़े नेताओं की शहीदों की विधवाओं, कर्नल सोफ़िया को लेकर लगातार अपमानजनक टिप्पणियों ने भाजपा को रक्षात्मक कर दिया। भाजपा की राजनीति कितने निचले स्तर को छू चुकी है, इसका एक उदाहरण भाजपा के बड़े नेता अमित मालवीय ने राहुल गाँधी का आधा चेहरा पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर के आधे चेहरे से मिक्स करके उसे बाक़ायदा अपने एक्स हैंडल पर पोस्ट करके दिया। भाजपा नेताओं के अलावा देश में इसे किसी ने भी पसंद नहीं किया। जिन राहुल गाँधी की दादी इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री रहते पाकिस्तान के दो टुकड़े करवा दिये और उनके सेना प्रमुख को भारत के सामने हथियार डालने के लिए मजबूर किया, उन राहुल गाँधी का इस तरह अपमान करना किसी को अच्छा नहीं लगा। देश के लोग अब सोचने लगे हैं कि भाजपा जिस दिशा में देश को ले जा रही है, उसके नतीजे कितने भयंकर होंगे।

राजनीतिक रूप से हुए इन सभी नुक़सानों को कवरअप करने के लिए ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी को मैदान में आना पड़ा है। युद्ध-विराम में ट्रम्प की मध्यस्थ की भूमिका सामने आने और ट्रम्प के भारत तथा पाकिस्तान को एक ही क़तार में खड़ा करने के साथ यह कहने कि व्यापार के बदले भारत (और पाकिस्तान) युद्धविराम को मान गये, से भारत में यह संदेश गया है कि भारत का नेतृत्व ट्रम्प के दबाव में काम कर रहा है। इसके अलावा भाजपा नेताओं के शर्मनाक बयानों और लोगों में इस बात पर हैरानी होना कि पहलगाम के चार हत्यारे आतंकी कहाँ ग़ायब हो गये और पाक के आतंकी ठिकानों पर हमलों में एक भी बड़ा आतंकी क्यों नहीं मारा गया? जैसे सवाल जनता में उठने के कारण भी भाजपा रक्षात्मक हुई। इसके बाद भाजपा ने ध्यान भटकाने के लिए कांग्रेस, ख़ासकर राहुल गाँधी को निशाना बनाना शुरू किया। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने राजस्थान के बीकानेर की जनसभा में दावा कर दिया कि उनकी नसों में ख़ून नहीं, गरम सिन्दूर दौड़ रहा है। निश्चित ही प्रधानमंत्री हाल में हुए नुक़सान और जनता में गये नकारात्मक संदेश से ख़ुद को और पार्टी को बाहर लाने की क़वायद में जुट गये हैं। उन्हें पता है कि देश की सुरक्षा के मामले में जनता की भावनाएँ अलग तरीक़े से काम करती हैं और राजनीति में बड़ा नुक़सान करने की क्षमता रखती हैं। लिहाज़ा अब रोज़ पाकिस्तान पर शाब्दिक हमले हो रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाओं की ख़बरें अभी भी जारी हैं; लेकिन राजनीतिक शोर में उन्हें दबाने की कोशिश हो रही है।

भारत-पाकिस्तान के लघु युद्ध के बाद जब सेना की वर्दी में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरें देश की सड़कों के किनारे होर्डिंग में लगी दिखीं, तभी यह अहसास हो गया था कि अब पहलगाम के 26 लोगों की शहादत राजनीति की सूली पर चढ़ने वाली है।

राजनीति बड़ी निष्ठुर चीज़ है। दर्द-दु:ख सबको अपने लिए इस्तेमाल करती है। सैनिकों की बहादुरी और क़ुर्बानियों को भी। लिहाज़ा अब देश में सिन्दूरिया सागर की गर्जना है। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी राजनीति की इस रैली को लीड कर रहे हैं। वह नित नये नारे देश को दे रहे हैं। पाकिस्तान को हर भाषण में ख़बरदार कर रहे हैं। निश्चित ही मोदी इस तरह की राजनीति के उस्ताद खिलाड़ी हैं। लेकिन क्या भारत पाकिस्तान के लघु युद्ध के समय की परिस्थितियों में जनता के भीतर उठे सवाल ख़त्म हो गये हैं? शायद नहीं। पहला सवाल यह कि युद्ध-विराम के बाद ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने पाक अधिकृत कश्मीर की बात करके इस मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया। दूसरा सवाल- युद्ध की इतनी भीषण स्थिति में क्यों एक भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ? जबकि सरकार का दावा था कि दुनिया में भारत का डंका बज रहा है। युद्ध में इस तरह अकेले पड़ जाने को जानकार मोदी सरकार की विदेश और कूटनीति और राजनीतिक नाकामी बता रहे हैं। इससे समर्थकों की तरफ़ से सोशल मीडिया के ज़रिये बनायी प्रधानमंत्री मोदी की विश्व गुरु की छवि को धक्का लगा है।

एक और सवाल इस दौरान उभरा है कि पाकिस्तान क्यों जश्न मना रहा है? जबकि हमारे मुताबिक वो युद्ध हारा है। वहाँ के सेनाध्यक्ष असीम मुनीर फील्ड मार्शल का दर्जा पा गये हैं। ऐसा क्या हुआ कि युद्ध के बाद पाकिस्तान में कहीं निराशा का माहौल नहीं है? कोई युद्ध हारे, तो वहाँ की सत्ता और सेना में गहन निराशा होती है, यह स्वाभाविक है। युद्ध में हार को चेहरे से छिपाया नहीं जा सकता। साल 1971 के युद्ध को याद कर लीजिए। महीनों पाकिस्तान में सत्ताधीशों और सेना के जनरलों के चेहरे लटके रहे थे। जनता में भी निराशा थी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि मई के युद्ध में हमारी सेना ने अपनी शक्ति दिखाकर साबित किया कि वह महान् सेना है। लेकिन अचानक युद्ध-विराम के पीछे के क्या कारण थे? यह तो राजनीतिक फ़ैसला था ना! इसी पर सवाल भी हैं। सेना पर तो हर भारतवासी को भरोसा है। प्रधानमंत्री मोदी ने युद्ध-विराम के बाद सिन्दूर को अपनी राजनीति का नया नारा बनाया है, तो पाक अधिकृत कश्मीर को अपनी राजनीति के लक्ष्य (बेंचमार्क) के रूप में सामने रखा है। निश्चित ही यह चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है; क्योंकि चीन भी पीओके में बैठा है। चीन और तुर्की पाकिस्तान को शक्तिशाली कर रहे हैं। यदि मोदी बतौर प्रधानमंत्री इस लक्ष्य को हासिल नहीं करते हैं, तो इंदिरा गाँधी के बाद उनकी तरह का इस मायने में बड़ा नेता कहलाने का उनका सपना सपना ही रह जाएगा। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की घटना होने पर फिर पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर आक्रमण की बात उन्होंने की थी; लेकिन आतंकी अभी भी सक्रिय दिख रहे हैं और उनसे हमारे सुरक्षा बलों की मुठभेड़ भी हो रही हैं।

फ़िलहाल मोदी ‘सिन्दूर मेरी रगों में ख़ून की जगह दौड़ रहा है।’ ‘पाकिस्तानी रोटी नहीं खाना चाहते, तो मेरी गोली तो है ही।’ जैसे जुमले अपनी सभाओं में चला रहे हैं। वह भारत-पाकिस्तान के हाल के टकराव से सबसे ज़्यादा प्रभावित जम्मू-कश्मीर अभी एक बार भी नहीं गये हैं, जहाँ पुँछ और राजौरी में 26 नागरिकों को पाकिस्तान के हमलों में जान गँवानी पड़ी है। जबकि सुरक्षा बलों के 18 जवानों-अधिकारियों ने भी शहादत दी है। वह पहलगाम भी नहीं गये हैं, जहाँ 26 लोगों को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों से भून दिया। विपक्ष के नेता राहुल गाँधी वहाँ जा चुके हैं और प्रभावित लोगों का दु:ख-दर्द बाँट आये हैं। दज़र्नों घर पाकिस्तान की गोलीबारी से तबाह हो गये हैं। उनके प्रभावितों को तत्काल आर्थिक मदद (एक्स ग्रेसिया) अभी तक नहीं मिली है। देशभक्ति सिर्फ़ राजनीति करने और जुमले उछालने की चीज़ नहीं है। देशभक्ति देश के लोगों के सुख-दु:ख में उनके साथ खड़ा होने का नाम है।

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