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मैंने तीन सदियाँ देखी हैं – part 9 | Pavitra India

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एक बार एस एल शकधर ने कर्मचारियों और अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि लोक सभा सचिवालय एक ऐसी पाठशाला है जहां से पढ़कर निकलने वाला व्यक्ति जिंदगी के किसी भी क्षेत्र में मार नहीं खा सकता ।वह यहां न केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही प्राप्त करता है बल्कि व्यवहारिक भी ।यह एक शिक्षा संस्थान भी है जहां वह नोटिंग ड्राफ्टिंग भी सीखता है और मूल लेखन भी। यह जो प्रेक्टिस ऐण्ड प्रोसीज़र ऑफ़ पर्लियमेंट पुस्तक है उसके मूल लेखक तो आप लोग ही हैं ।आप लोगों की शाखाओं से प्राप्त सामग्री को ही तो किसी विशेषज्ञ ने एक सूत्र में पिरोया और संजोया है ।इसलिए मैं कहता हूं,और ज़ोर देकर कहता हूं ,आप में से चाहे और किसी सरकारी ऑफ़िस में चला जाये या किसी निजी संस्थान में वह वहां इक्कीस ही साबित होगा ।उसकी एक बुनियादी वजह है लोकसभा सचिवालय में काम करते हुए अनुशासन,समर्पण और जिम्मेदारी का ज़ज़्बा क्योंकि यहां का काम कल पर नहीं छोड़ा जा सकता । यहां की हर फ़ाइल और दस्तावेज पर ‘इमीडियेट’ और ‘ऐक्शन टुडे’ का फ़्लैग लगा होता है ।

लोकसभा के माननीय स्पीकर भी गाहेबगाहे यहां के कर्मचारियों और अधिकारियों को संबोधित किया करते थे ।ऐसे संबोधन में एस एल शकधर के साथ सचिव एम एन कौल भी मौजूद रहा करते थे। माननीय अध्यक्ष भी लोकसभा सचिवालय को एक ‘बेहतरीन
पाठशाला’ बताते थे, एक दूसरे संदर्भ में ।वह लोक सभा सचिवालय को सांसदों के ‘व्यवहारिक गुरु’ के तौर पर देखते थे ।अपनी बात को स्पष्ट करते हुए स्पीकर साहब कहा करते थे कि हम लोग नये (और पुराने) सांसदों को जितने मर्ज़ी हैं संसदीय प्रणालियों और परंपराओं का भाषण पिलाते रहें लेकिन असली सीख उन्हें आपके साथ बैठकर मिलती है ।इसलिए सचिवालय के रोज़ ब रोज़ के काम के अतिरिक्त सांसदों की हर तरह की सहायता आपको दूसरे सरकारी और गैर-सरकारी दफ्तरों से अलग बनाती है।

एस एल शकधर ने जून,1977 को लोकसभा से अवकाश प्राप्त किया ।वह लोकसभा के सेक्रेटरी जरनल तो तेरह बरसों तक रहे लेकिन कुल नौकरी करीब तीन दशक की रही ।1956 में जब मैंने लोक सभा सचिवालय ज्वायन किया तो वह संयुक्त सचिव थे और 31 दिसंबर, 1965 को छोड़ा तो वह महासचिव थे ।उनके उत्तराधिकारी अवतार सिंह रिखी बने सचिव तो छह बरस (1977-83) तक रहे जबकि महासचिव नौ दिन (22-31दिसंबर,1983)।उनकी जगह सुभाष कश्यप आये जो करीब सात बरस तक लोकसभा के महासचिव रहे ।लोकसभा से अवकाश लेने के बाद एस एल शकधर मुख्य चुनाव आयुक्त हो गये जहां वह 18 जून, 1977 से 17 जून, 1982 तक रहे ।उन दिनों निर्वाचन आयोग में बड़ा अधिकारी मुख्य चुनाव आयुक्त ही हुआ करता था तीन सदस्यीय व्यवस्था अमल में नहीं आयी थी । शकधर के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने से पहले ही लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुके थे तथा कांग्रेस पार्टी को हराकर जनता पार्टी सत्तारूढ़ हो चुकी थी जिसमें मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे और विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ।यह चुनाव तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टी स्वामिनाथन की देखरेख में 16-20 मार्च, 1977 को हुए थे। उन दिनों इतने चरणों में लोकसभा या विधानसभाओं के चुनाव ही हुआ करते थे आज की तरह कई महीनों तक नहीं । लेकिन मोरारजी देसाई की सरकार अपना कार्यकाल पूरा न कर सकी और अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार हो गयी । देसाई सरकार 857 दिनों (24 मार्च, 1977-28 जुलाई, 1979) तक सत्तारूढ़ रही ।उनके बाद चौधरी चरण सिंह की सरकार बनी जो महज़ 171 दिनों (28 जुलाई,1979-14 जनवरी, 1980) तक ही सत्ता सुख भोग पायी । 3-6 जनवरी,1980 को मुख्य चुनाव आयुक्त एस एल शकधर के नेतृत्व में लोकसभा के चुनाव हुए जिसमें एकबारगी पुन: कांग्रेस पार्टी ने 353 सीटों के साथ वापसी की । न तो 1977 और न ही 1980 के लोकसभा चुनाव को लेकर निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता को लेकर कोई प्रश्नचिन्ह लगे ।

क्योंकि लोकसभा का महासचिव रहते हुए एस एल शकधर की कार्यशैली से सत्तापक्ष और विपक्षी पार्टियां पूरी तरह से संतुष्ट थीं इसलिए उनके मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर न तो जनता पार्टी के किसी सांसद-मंत्री ने कोई आपत्ति की और न ही प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने किसी प्रकार की दखलंदाजी की ।प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई चाहते थे कि जर्मनी की तरह हमारे देश में मतदान की दोहरी व्यवस्था हो अर्थात प्रत्यक्ष और आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के मतदान की ।इस पर एस एल शकधर का सुझाव था कि एक संकर प्रणाली अपनाई जाये जिसके तहत आधी सीटों का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान से हो जबकि शेष आधी सीटें राजनीतिक पार्टियों द्वारा उनके वोट शेयर के अनुपात से भरी जायें ।लेकिन हमारे देश के राजनीतिक दलों को देखते हुए ऐसी व्यवस्था कारगर नहीं हो सकती थी ।जर्मनी में 4-5 राजनीतिक दल हैं जहां इस तरह की प्रणाली कामयाब है । वहां तो निम्न सदन में प्रवेश के लिए किसी भी पार्टी को पांच प्रतिशत मतदाताओं के समर्थन की आवश्यकता होती है ।

उस समय तक निर्वाचन आयोग में केवल मुख्य चुनाव आयुक्त ही होता था ।तीन सदस्यीय प्रणाली की शुरुआत हालांकि 16 अक्टूबर, 1989 को हो गयी थी लेकिन 1 जनवरी, 1990 को दो चुनाव आयुक्तों का पद समाप्त कर केवल मुख्य चुनाव आयुक्त का पद ही यथावत रहने दिया गया अर्थात प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा निर्वाचन आयोग में तीन सदस्यीय प्रणाली को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने समाप्त कर दिया ।1 अक्टूबर,1993 में प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव की सरकार ने निर्वाचन आयोग को पुन: तीन सदस्यीय बना दिया ।यह व्यवस्था अभी तक बरकरार है ।फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि पहले मुख्य चुनाव आयुक्त और दोनों आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति किया करते थे जबकि अब नये कानून के अनुसार प्रधानमंत्री के अलावा नेता प्रतिपक्ष और प्रधानमंत्री द्वारा नामजद मंत्री की एक समिति इन अधिकारियों की नियुक्ति करती है ।देश के धाखड़ समझे जाने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन की नियुक्ति 12 दिसंबर, 1990 को प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने की थी जबकि उनके साथ दो चुनाव आयुक्तों मनोहरसिंह गिल और जीवीजी कृष्णामूर्ति की नियुक्ति प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहा राव ने की थी ।

17 जून, 1982 को एस एल शकधर ने मुख्य चुनाव आयुक्त पद से अवकाश ग्रहण कर लिया ।अब वह ज़्यादातर वक़्तअपने वसंत विहार निवास पर ही रहकर पढ़ा-लिखा करते थे । उनके अवकाश प्राप्त करने के बाद मुझे श्री श्यामलाल शकधर से मिलने के कई अवसर मिले ।उसके कारण थे ।’दिनमान’ में सच्चिदानंद वात्स्यायन के बाद रघुवीरसहाय संपादक बने जो करीब चौदहा बरसों तक इस पद पर रहे ।तब तक ‘दिनमान’ की खूब प्रतिष्ठा थी ।राजनीतिक,सांस्कृतिक,सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में उसकी खासी धाक और साख थी ।लेकिन उनकी अचानक विदाई से वह साख भी रघुवीरसहाय के साथ जाती रही ।उनके स्थान पर आये डॉ कन्हैया लाल नंदन ‘दिनमान’ की उस साख को कायम नहीं रख पाये। उन्होंने ‘दिनमान’ को ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिका बनाने का प्रयास किया जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली ।बेशक ‘दिनमान’ की प्रसार संख्या में कुछ हद तक वृद्धि हुई लेकिन उसके स्तर में पाठकों ने गिरावट महसूस की ।प्रसार संख्या की वजह थी पंजाब में आतंकवाद की कवरेज,1984 में इंदिरा गांधी की हत्या तथा उसके बाद लोकसभा चुनाव की विस्तृत कवरेज । इन घटनाओं के बाद ‘दिनमान’ की प्रसार संख्या में उतार शुरू हो गया और प्रबंधन में परिवर्तन भी।नंदन जी की विदाई हो गयी,सतीश झा आये वह भी ज़्यादा समय तक नहीं टिक पाये ।उनके बाद घनश्याम पंकज को लाया गया ।उनके कार्यभार संभालने के साथ ही प्रबंधन की सारे कर्मचारियों के साथ एक मीटिंग हुई जिसे उस समय के चेयरमैन समीर जैन ने संबोधित किया,महाप्रबंधक रमेश चंद्र भी उपस्थित थे ।समीर जैन ने साफ तौर पर कहा कि उनके लिए सभी पत्र-पत्रिकाएं एक ‘उत्पाद’ की तरह हैं जो मुनाफा नहीं देगा उसे बंद कर दिया जाएगा ।

उस मीटिंग में यह निश्चित भी हुआ कि ‘दिनमान’ में अतिथि संपादक की व्यवस्था शुरू की जाये ।पत्रिका के प्रकाशन को जारी रखने का यह अंतिम अवसर था ।पहले अतिथि संपादक बनाये गये इन्दर कुमार गुजराल ।विषय था देश की संसदीय व्यवस्था कितनी कारगर रही।मुझे श्री शकधर से मिलकर उनके विचार जानना था ।जो व्यक्ति लिख सकता था उनसे लिखवाया गया अन्यथा उनसे बातचीत टेप कर ऑफ़िस में लिखा गया । एक दिन शाम शकधर साहब के वसंत विहार स्थित घर पहुंचकर मैंने सबसे पहले उनका धन्यवाद किया । 1956 में इंटरव्यू का वक़्त निकल जाने के करीब पांच घंटे बाद मेरी आपबीती सुनने के बाद उन्होंने मुझे लोकसभा सचिवालय में नौकरी जो दी थी। मेरी दास्तान उन्होंने बड़े सब्र से सुनने के बाद इतना भर कहा ‘कुछ तो आप में भी कोई बात रही होगी ।’ बड़े ही खुशगवार माहौल में बातचीत शुरू हुई ।उन्होंने बहुत से देशों को आज़ादी मिलने का दौर देखा था ।हमारे देश के नेताओं ने संसदीय लोकतंत्र को तरजीह दी थी ।पहली लोकसभा में जो सांसद चुनकर आये बेशक वे कायदे कानूनों से ज़्यादा वाकिफ थे लेकिन उस प्रणाली को सुगम बनाने का ज़िम्मा लोकसभा सचिवालय के कर्मचारियों और अधिकारियों का था ।हमारी संसदीय प्रणाली मोटे तौर पर ब्रितानी हाउस ऑफ़ कॉमन्स जैसी है ।किंतु हमारे संविधान निर्माताओं ने अपने देश के संविधान पर ब्रितानी अलिखित संविधान की छाया तक नहीं पड़ने दी।पहली लोकसभा में हमने उसका भारतीयकरण संस्करण वाला स्वरूप देखा था जो आगे के सत्रों में पुख्ता होते सभी लोगों ने देखा था ।बेशक हमारे देश के लिए संसदीय प्रणाली बहुत ही मुफ़ीद साबित हुई । हां,कदम कदम पर हमें चुनौतियों का सामना अवश्य करना पड़ा लेकिन सभी ने मिलजुलकर उनका मुकाबला किया और हमारी यह व्यवस्था देश के लिए कारगर सिद्ध हुई ।देखिये आसपास के मुल्कों का हाल ।आज़ादी के बाद भी वहां अस्थिरता है ।पाकिस्तान का हाल इसकी जीती जागती मिसाल है ।

श्री श्यामलाल शकधर से यह पहली मुलाकात काफी देर तक चली ।जब मैं वहां से निकलने लगा तो उन्होंने बड़े ही स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि ‘आप तो अपने हैं जब चाहें फोन कर सकते हैं या मिलने के लिए भी आ सकते हैं ।’एक मुलाकात में मैंने उनसे पूछा कि हम लोग भी पहले इरिस्किन मे की ब्रितानी संसदीय प्रणाली का बाइबल समझे जाने वाली पुस्तक प्रैक्टिस ऐण्ड प्रोसिजर ऑफ़ पार्लियमेंट का जब अपने ढंग से प्रयोग कर रहे थे तो उस जैसी अपनी पुस्तक बनाने की जरूरत क्यों पड़ी, इसका दोटूक जवाब था ‘अपनी अस्मिता की खातिर ताकि आने वाली पीढ़ी यह न समझे कि हम किसी के पिछलग्गू हैं। इस पुस्तक में मुख्य रूप से लोकसभा की प्रक्रिया तथा उसके कार्य संचालन का वर्णन है जिसकी व्यवस्था भारत के संविधान, लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों,अध्यक्ष के निदेशों, परिपाटियों और सुस्थापित प्रथाओं में है ।संसद में जिस प्रकार प्रक्रिया का विकास आधुनिक युग में हुआ है उसका वर्णन करने की चेष्टा भी की गयी है ।जहां तक संभव हुआ है प्रत्येक प्रथा तथा  प्रक्रिया का स्रोत पाद-टिप्पणी में दिया गया है ।’जब मैंने शकधर साहब को बताया कि मेरे वहां कार्यरत इस पुस्तक पर काम शुरू हो गया था और लोकसभा की हर ब्रांच ने अपने अपने कार्यों का व्यौरा दिया था’ इसे स्वीकार करते हुए उन्होंने बताया था कि मैं इससे परिचित हूं ।सभी शाखाओं से मैटर प्राप्त होने के बाद उसे सिलसिलेवार तरतीब दी गयी,संयोजन हुआ और संपादन भी ।जो चीज़ों छूट गयी थीं उन्हें कई स्तरों पर जोडा गया । और हां हमने लोकसभा सचिवालय के कर्मचारियों की सेवाओं का उल्लेख करते हुए अपने कुछ सहयोगियों का नाम देकर उनके प्रति आभार भी प्रदर्शित किया है ।

श्री श्यामलाल शकधर ने इस पुस्तक से जुड़ी कुछ और जानकारियां देते हुए बताया कि लोकसभा सचिवालय के सभी लोगों के परिश्रम और समर्पण से ‘प्रैक्टिस ऐण्ड प्रोसीज़र ऑफ़ पार्लियामेंट’ 1968 में छप गयी और इसका न केवल राज्यों के विधानमंडलों में ही स्वागत हुआ बल्कि राजनीति शास्त्र का अध्ययन और अध्यापन करने वालों के बीच बौद्धिक चर्चा भी हुई ।कुछ हिंदी भाषी राज्यों ने इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद की पुरज़ोर मांग की जिसके फलस्वरूप हमने अपने ही ऑफ़िस के बहुत प्रतिभाशाली धर्मपाल पांडेय को यह दायित्व सौंपा जिन्होंने दिन रात एक करके 1178 पृष्ठों की ‘संसदीय प्रणाली तथा व्यवहार’ नाम से यह पुस्तक तैयार कर दी जिसे मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी,भोपाल ने 1972 में छाप दिया ।मैं तो हमेशा से मानता रहा हूं कि प्रतिभा के मामले में लोकसभा सचिवालय के कर्मचारियों की कहीं कोई तुलना नहीं ।शकधर साहब धाराप्रवाह बोल रहे थे ।जब आप वहां काम करते थे हमने अपने अनुवादकों और दूसरे योग्य व्यक्तियों में से दुभाषिए यानी इंटरप्रेटर चुने और अनुवादकों के खाली हुई जगहों को टेस्ट के ज़रिये अपने ही लोगों से भरा जिसमें आप भी थे । प्रैक्टिस ऐण्ड प्रोसीज़र ऑफ़ पार्लियामेंट आसान किताब नहीं है ।इसका अनुवाद वही सही और सटीक कर सकता है जो वहां की कार्यशैली की गहन जानकारी रखता हो ।बेशक धर्मपाल पांडेय ने इस दुर्गम और दुरूह कार्य को बखूबी अंजाम दिया था ।

अब तो शकधर साहब के यहां नियमित तौर पर मेरा आना जाना शुरू हो गया ।उनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता था ।चाहे देश की संसदीय प्रणाली पर बात करनी हो अथवा चुनावी राजनीति और निर्वाचन की प्रणाली पर मुझे उनसे बेहतर व्यक्ति कोई नहीं लगता था ।लोकसभा सचिवालय में काम करते हुए उनकी कार्यशैली को मैंने निकट से देखा था ।हमारी हर मुलाकात में लोकसभा सचिवालय के किसी न किसी पक्ष पर बात ज़रूर हो जाती ।एक बार जब मैंने उनसे पूछा कि लोकसभा में अनुवादक का पद छोड़ कर ‘दिनमान’ में उपसंपादक बनने को तरजीह दी तो मेरा यह निर्णय सही था या गलत ।हल्के से मुस्कराये और बोले अगर गलत होता तो क्या आप मुझसे इस तरह मिल पाते ।आज भी लोकसभा सचिवालय का कोई शख्स मुझसे मिलने से घबराता है जबकि मैं पांच बरस तक मुख्य चुनाव आयुक्त भी रह चुका हूं ।यह बात ज़रूर सही है कि लोकसभा सचिवालय में तरक्की जल्दी जल्दी होती है ।आप कहां पहुंचते संपादक या इंटरप्रेटर बस ।और साठ साल की उम्र में रिटायर कर जाते लेकिन एक बार का पत्रकार सदा पत्रकार रहता है और कई संस्थानों में उम्र की बंदिश भी नहीं ।हां, यह बात ठीक है कि जो व्यक्ति 21-22 बरस की उम्र में क्लर्क या असिस्टेंट के तौर पर लोकसभा में आया वह काफी बड़े पद तक पहुंचा ।सी के जैन और आर सी भारद्वाज आपके समय असिस्टेंट रहे होंगे वे सेक्रेटरी जरनल के पद तक पहुंचे ।सुभाष कश्यप तो तब सेक्शन ऑफिसर थे वह आठ-नौ साल तक महासचिव रहे ।क्लर्क भी अवर सचिव और उपसचिव के पदों तक पहुंचे ।इसके अतिरिक्त लोक सभा सचिवालय में काम कर चुके लोगों की सांसदों और मंत्रियों की भी ज़रूरत रहा करती थी ।ऐसी बहुत सी मिसालें हैं ।

कभी कभी मुझे ऐसा भी लगता कि शकधर साहब भी मुझसे मिलने को इच्छुक रहते थे ।संभव है लोकसभा सचिवालय के अलावा मेरा पत्रकार रहना भी हो ।वह मुझसे अब सभी मुद्दों और विषयों पर बेबाकी से बातचीत करने लगे थे ।कई बार तो शाम की चाय में मुझे अपने परिवार के साथ भी बिठाया करते थे ।तब उन्के तीन बेटे थे ।दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस राजीव शकधर उनके ही बेटे हैं ।एक दिन मैंने जब उन्हें फोन करके मिलने का समय मांगा तो उन्होंने बताया कि वह आजकल शोक में हैं ।उनकी पत्नी का निधन हो गया है ।जब वह शोक से कुछ हद तक उभरे तो वह खासे बुझे बुझे से लगे । अब मेरा उनके यहां आना जाना भी कम हो गया था ।उनके स्वभाव में यह बदलाव स्वाभविक था और चिंताजनक भी ।2002 में 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया ।

बेशक कभी कभी शनिवार की शाम को सांसदों और लोकसभा सचिवालय के कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच बेबाक और बेलाग बातचीत हुआ करती थी ।सांसद लोकसभा की विभिन्न शाखाओं में जाने से भी नहीं झिझकते थे ।कुछ कर्मचारी तो किन्हीं सांसदों के ‘फेवरिट’ भी बन जाते थे ।मुझे अभी तक याद है कि प्रधानमंत्री बनने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने टेबल ऑफ़िस के टी एन माकन को अपने पास बुला लिया था अथवा सीता राम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर अवतार कृष्ण चोपड़ा की ज़रूरत पड़ गयी थी तो कंवर नटवर सिंह को ए आर खान की । ये कुछ उदाहाण मुझे याद आ रहे हैं और भी कई होंगे निस्संदेह । के के कालरा जैसे कुछ लोग ऐसे भी थे जिनका अखिल भारतीय सेवाओं में चयन हो गया तो छाबड़ा का पीसीएस, 1962 में हालन शार्ट टर्म सेना में चुने गये तो डॉ आर पी आनंद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय विभाग के प्रमुख बन कर चले गये ।1979 में मेरी अमेरिकी यात्रा में होनोलूलू में उन से दो लंबी मुलाकातें हुईं ।वह ईस्ट-वेस्ट सेंटर में अनुसंधान कार्य कर रहे थे ।पंडित भी किसी कॉलेज में प्राध्यापक लग गये थे ।

एक और प्रसंग याद आ रहा है ।उन दिनों कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी ।वह सर्वेसर्वा हुआ करती थी।संसद भवन के ग्राउंड फ्लोर पर उसका एक ऑफ़िस था जिसके इंचार्ज थे पाहवा जी ।पूरा नाम याद नहीं ।पंजाबी थे ।उनके पास मुझे यशपाल कपूर भी मिल जाया करते थे जो पंडित जवाहरलाल नेहरू के सहायकों में थे ।पाहवा साहब ने बताया कि शाम को केंद्रीय कक्ष के साथ के एक लॉन में कांग्रेस पार्टी के सदस्यों की चाय पार्टी है जिसमें कांग्रेस के सभी सांसद और मंत्री तो रहेंगे ही प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी,लाल बहादुर शास्त्री आदि भी होंगे ।आपके तीसरी मंज़िल की ब्रांच से वह नज़ारा देख सकते हैं ।अगर आपको किसी मंत्री या सांसद मिल कर कुछ लिखना हो तो उसका प्रबंध भी हो जाएगा ।जब चाय पार्टी के लिए लोग जुड़ने लगे तो मुझे पंडित नेहरू से अधिक इंदिरा गांधी से सांसद और मंत्री मिलने को बेताब दीखे वह शायद इसलिए क्योंकि तब वह पंडित नेहरू के तीन मूर्ति का निवास संभालती थीं और उनके पति फिरोज गांधी अलग बंगले में रहते थे ।वह भी सांसद थे और उन्हें बंगला आवंटित था ।हमने देखा कि उस पार्टी में इंदिरा गांधी ने जब फिरोज गांधी को देखा तो उनकी पीठ के नीचे अपना हाथ मारा और जब उन्होंने मुड़कर देखा तो वह आदाब की मुद्रा में उनका अभिवादन करके आगे बढ़ गयीं ।ऐसे ही देखा कि पंडित नेहरू भी सांसदों से मिलते मिलते जब लाल बहादुर शास्त्री के पास आये तो उन्हें एक तरफ ले जाकर उनके कंधे पर हाथ रखकर उनसे बतियाते और समझाते हुए दीखे ।शास्त्री जी पंडित नेहरू के बहुत क्लोज़ हुआ करते थे ।नेहरू जी और शास्त्री जी का यह चित्र बाद में ऐतिहासिक चित्र बन गया ।

लोकसभा में मेरी लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के साथ साथ मुलाकात भी हुई थी और अलग-अलग भी ।एक दिन हुआ यों कि मैं सदन की लॉबी में किसी सांसद से मिलकर अपनी ब्रांच में जाने के लिए लिफ्ट नंबर एक बजाय लिफ्ट नंबर चार में आकर इंतज़ार करने लगा ।इसे वीआईपी लिफ्ट भी कहा जाता था लेकिन ऑफ़िस के हम लोग यदाकदा इसका इस्तेमाल कर लिया करते थे ।थोड़ी देर में लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी साथ साथ आये और लिफ्ट के आने का इंतज़ार करने लगे ।लिफ्ट आने पर मैंने अपने हाथ के संकेत से उन्हें जाने के लिए कहकर मैं बाहर ही खड़ा हो गया ।शास्त्री जी ने मुझसे कहा कि आप भी आइये ।जब मैंने कहा कि मैं बाद में आ जाऊंगा तो इंदिरा जी बोलीं,बाद में क्यों,इसमें जगह है ।हमें तो पहली फ्लोर तक ही जाना है ।लिफ्ट में ही उन्होंने मुझसे पूछा ‘आप यहां काम करते हैं?किस ब्रांच में हैं ।’ लिफ्ट से बाहर निकलते हुए शास्त्री जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था,’नौजवान हम आपके शिष्टाचार की तारीफ करते हैं लेकिन जब कोई प्यार से साथ चलने के लिए कहे तो इंकार नहीं करते ।’ क्या लोग हुआ करते थे ।बाद में उन दोनों नेताओं से किसी न किसी अवसर पर मुलाकातें होती रहीं ।इंदिरा गांधी शास्त्री जी की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थीं ।एक बार मेरी बहन प्रभजोत कौर ने उन्हें अपने घर आमंत्रित किया था और मुझे भी उनसे मिलने के लिए न्योता था ।प्रभजोत जी के पति कर्नल नरेंद्रपाल सिंह उन दिनों राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उपसैन्य सचिव थे और वे लोग राष्ट्रपति भवन में ही रहते थे ।अवसर था पंडित नेहरू की वसीयत पर लिखी उनकी पंजाबी में कविता ‘ऐ मेरे वतन दे लोको अज मैं वसीयत करदा हां..’ मुझे अब इतनी ही याद है हालांकि मैंने उसका हिंदी में अनुवाद किया था । उन्हें जब शास्त्री जी के साथ मुलाकात की याद दिलायी तो वह बोलीं कि मैंने भी आपको पहचान लिया है ।तब मैंने उन्हें बताया कि प्रभजोत जी मेरी बहन हैं ।यह सुनकर वह बहुत खुश हुईं ।इसके बाद भी उनके साथ कई मुलाकातें हुईं ।

फिरोज गांधी से भी कई मुलाकातें थीं ।एक तो बज़रिया सरदार हुकम सिंह,उसके बाद केंद्रीय कक्ष में कई दफे । एक बार मैं सरदार हुकम सिंह को गैर सरकारी विधेयक एवं संकल्प संबंधी समिति की मीटिंग के लिए उन्हें केंद्रीत कक्ष से एस्कार्ट करके ले जा रहा था तो अपने मित्रों की टोली से उठकर फिरोज गांधी सरदार साहब के पास आकर पहले उनका अभिवादन करके पूछा कि क्या मैं आपसे मिलने के लिए आ सकता हूं तो मेरी तरफ इशारा करते हुए बोले अभी इनकी कमेटी की मीटिंग है उसके बाद आपका स्वागत है ।यह त्रिलोक दीप हैं,यहां काम करते हैं और हिंदी में लिखते हैं ।हिंदी पर सरदार साहब ने ज़्यादा ज़ोर दिया ।फिरोज गांधी ने मुझसे हाथ मिलाया और बोले ‘मिलते रहेंगे’। दरअसल संसद भवन का केंद्रीय कक्ष सांसदों का मिलनस्थल है ,चाय काफी चलती रहती थी ।साथ ही टी बोर्ड और काफी बोर्ड के अपने अपने काऊंटर थे ।वे चाय-काफी सर्व भी करते थे और बेचते भी थे ।केंद्रीय कक्ष में कुछ चुनिंदा पत्रकारों को भी आने की छूट हुआ करती थी ।वहां पर कुछ ऐसे कार्नर भी थे जो खास लोगों के नाम से जाने जाते थे ।इनमें एक फिरोज गांधी कार्नर भी था जहां वह असम की महारानी मंजुला देवी तथा अन्य सांसद मित्रों के साथ बैठा करते थे ।’श्रीमन’ के नाम से प्रसिद्ध भक्त दर्शन का भी एक कोना था ।कुछ सांसद अकेले बैठे भी मिल जाया करते थे तो कुछ पत्रकारों के साथ गपशप करते हुए भी ।फिरोज गांधी की मित्र मंडली में ही मेरी उनसे कई बार भेंट हुई थी ।उसी भेंट में उन्होंने हरिदास मूंदड़ा मामले के बारे में बताया था कि किस प्रकार उन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) के इस सट्टेबाज के देश के पहले बड़े वित्तीय घोटाले को सदन में प्रामाणिक तौर पर उठाने के लिए घंटों लाइब्रेरी में बैठना पड़ा था ।1957 में मूंदड़ा ने सरकारी जीवन बीमा निगम में किस प्रकार छह संकटग्रस्त कंपनियों के शेयरों में निवेश कराया।यह निवेश जीवन बीमा निवेश समिति को दरकिनार करके किया गया था ।इस घटना में जीवन बीमा ने ज़्यादातर पैसा खो दिया ।इस अनियमितता को 1958 में कांग्रेस सांसद, प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के दामाद, फिरोज गांधी ने जब उजागर किया तो शुरू शुरू में तत्कालीन वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी ने इस मामले से पल्ला झाड़ने की कोशिश की लेकिन जस्टिस एम सी छागला की जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मंत्री अपने सचिव के कार्यों के लिए संवैधानिक रूप से ज़िम्मेदार होता है इसके चलते वित्तमंत्री कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा ।इस घटना से नेहरू सरकार की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान हुआ । (और विस्तार से जस्टिस एम सी छागला वाले पोस्ट में)

उस समय हम लोगों के सांसदों से बहुत दोस्ताना रिश्ते हुआ करते थे । मंत्रियों से मिलने में भी हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आया करती थी और न ही विपक्षी पार्टी के सांसदों से ।मैंने संसद भवन की पहली मंज़िल पर कई बार मंत्रियों को पत्रकारों के साथ गपशप करते हुए भी देखा था ।उन दिनों संसद कवर करने वाले बहुत खास, अनुभवी और चुनिंदा पत्रकार ही हुआ करते थे जो सही और सटीक रिपोर्टिंग कर सकें ।एक पत्रकार मित्र ने मुझे एक बार बताया कि मंत्रियों में प्रेस क्लब में बुलाये जाने की काफी इच्छा रहती है ।इससे उन्हें व्यक्तिगत के साथ साथ अपने मंत्रालय के कार्यकलापों के बारे में विस्तार से बताने का अवसर मिल जाता ।प्रेस क्लब की मीटिंग कमोबेश सभी बड़े समाचारपत्रों में कवर होती थी ।कुछ पुराने पत्रकारों का यह भी मानना था कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी एक बार प्रेस क्लब आये थे । प्रेस क्लब के पदाधिकारियों की सूचना के अनुसार प्रधानमंत्रियों में इंदिरा गांधी,मोरारजी देसाई,विश्वनाथ प्रताप सिंह,चंद्रशेखर,इंदर कुमार गुजराल आदि भी प्रेस क्लब आये थे ।खान अब्दुल गफ्फार खान, पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ,पाक सूचना और प्रसारण मंत्री जावेद जब्बार, उद्योगपति जे आर डी टाटा को भी न्योता गया था । मुख्यमंत्री तो बेहिसाब आते रहे हैं जैसे शेख अब्दुल्ला,मोहनलाल सुखाडिया,ज्योति बसु,ब्रह्मानंद रेड्डी, जनरल बी सी खण्डूरी,शीला दीक्षित,देवीलाल,भुपिंदर सिंह हुडडा, तरुण गोगोई, पवन सिंह चाम्लिंग, एन चन्द्रबाबू नायडू,नीतीश कुमार,अजित जोगी आदि ।ये मुख्यमंत्री प्रेस क्लब की सहायता भी किया करते थे ।केंद्रीय मंत्रियों में गोविंद बल्लभ पंत, अजीत प्रसाद जैन, डॉ कर्ण सिंह,के के शाह,महावीर त्यागी आदि प्रमुख हैं ।इतना ही नहीं केनेथ जे कीटिंग जैसे अमेरिकी राजदूत भी ‘मीट द प्रेस’ कार्यक्रम में आया करते थे तो फिल्मी दुनिया के देवानन्द,मीरा नायर,गोविंद नहिलानी, जया प्रदा आदि ।प्रियंका चोपड़ा मिस वर्ल्ड के खिताब की प्रतियोगिता में शामिल होने से पहले प्रेस क्लब आयी थीं ।उनके पिता डॉ अशोक चोपड़ा हमारे क्लब के सदस्य जसविन जस्सी के मित्र थे और वह चाहते थे कि प्रतियोगिता में जाने से पहले उनकी बेटी प्रियंका प्रेस क्लब के सदस्यों से मिल सकें । जस्सी जी ने हम जैसे मित्रों से प्रियंका चोपड़ा को अलग से मिलवाया था ।इनके अतिरिक्त गीतकार गुलज़ार,पार्श्व गायक कुमार शानू,रंगमंच की हस्ती जोहरा सहगल भी शामिल हैं ।ये कुछ चुनिंदा नाम हैं जो मुझे याद हो आये हैं,अभी यह सूची काफी लंबी है ।उन दिनों प्रेस क्लब के पदाधिकारी बहुत रसूखदार हुआ करते थे ।जब हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार शरद द्विवेदी प्रेस क्लब के अध्यक्ष थे तो अंग्रेजी के प्रसिद्ध पत्रकार पंकज वोहरा महासचिव ।दोनों की टीम ने प्रधानमंत्री विश्वनाथ सिंह और चंद्रशेखर को प्रेस क्लब में आमंत्रित किया था ।यह प्रेस क्लब के लिए बहुत महत्वपूर्ण अवसर था ।इसी प्रकार प्रभात डबराल और ए के धर की टीम ने जसविन जस्सी के सौजन्य से प्रियंका चोपड़ा को मिस वर्ल्ड कप की प्रतियोगिता में जाने से पहले आमंत्रित किया था । प्रेस क्लब द्वारा आयोजित इन सभी आयोजनों की देश-विदेश के समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में खूब कवरेज मिली थी ।खुशकिस्मती से प्रियंका चोपड़ा मिस वर्ल्ड का खिताब जीत गयीं ।बेशक इस श्रेय का कुछ हद तक प्रेस क्लब और जसविन जस्सी दोनों हकदार हैं ।

1958 में अस्तित्व मे आये प्रेस क्लब के संस्थापकों में दुर्गा दास,डी आर मनकेकर,रनवीर सिंह,सरदार जंग बहादुर सिंह,पी डी शर्मा जैसे निर्भीक पत्रकार हुआ करते थे ।पहले अध्यक्ष दुर्गा दास थे तो सेक्रेटरी जरनल डी के मनकेकर ।उन दिनों केवल भारत के सभी वर्गों और क्षेत्रों से जुड़े व्यक्ति ही प्रेस क्लब में आमंत्रित किये जाने को अपना गौरव नहीं समझा करते थे बल्कि विश्व भर से संबद्ध लोग भी अपने आप को सम्मानित महसूस किया करते थे ।उसका कारण होता था प्रेस क्लब के पदाधिकारियों का रुतबा जो ज़्यादातर संपादक स्तर के होते थे ।मिसाल के तौर पर प्रेम भाटिया,फ्रैंक मोरेस,डी आर मनकेकर,राम सिंह, पी डी शर्मा,एस विश्वम, एस निहाल सिंह,एम एल कोतरू,जे डी सिंह,आदि अध्यक्ष तो डी आर मनकेकर वी पी रामचंद्रन,एम एल कोतरू,सी एस पंडित,ए के सहाय,ए आर विग,पंकज वोहरा,जी के सिंह,चांद जोशी जैसे सेक्रेटरी जरनल ।अलावा इनके एक मैनेजमेंट कमेटी भी होती है उसमें भी सभी पायदार पत्रकार और फोटोकार चुनकर आया करते थे ।सालाना चुनाव में प्रेस क्लब में उत्सव जैसा माहौल हुआ करता था ।ऐसे पत्रकारों के अनुरोध को कोई भी अति महत्वपूर्ण व्यक्ति कभी टाल नहीं सकता था ।ये सभी लोग बखुशी आया करते थे और ऐसी विशिष्ट मंडली को सुनने के लिए पूरा पत्रकार समुदाय उपस्थित रहा करता था ।इनके विचारों को दैनिक और साप्ताहिक समाचापत्रों के अतिरिक्त पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं को खूब स्थान मिला करता था ।कुछ लोगों के विशेष इंटरव्यू भी छपा करते थे।यह था उस समय का राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों से जुड़ा नेतृत्व । 31 मार्च,1960 तक जहां प्रेस क्लब की सभी श्रेणियों में मात्र 286 सदस्य हुआ करते थे आज उनकी संख्या ग्यारह हज़ार के आसपास है ।’दिनमान’ ज्वायन करने के बाद मैं प्रेस क्लब का सदस्य बना था । मेरा नंबर बारह सौ के आसपास है ।उस समय मुख्य श्रेणियां थीं आर्डिनरी यानी पत्रकार,असोसियेट, आउट स्टेशन और अवैतनिक ।आजकल असोसियेट की दो श्रेणियां हो गयी हैं ।हमारे समय में क्योंकि पत्रकार अधिक होते थे इसलिए पुरानों और नयों में खासी करीबी रहा करती थी ।आजकल हालत यह है कि करीबी तो दूर यह जानना भी मुश्किल होता जा रहा है कि कौन पत्रकार है और कौन असोसियट मेंबर ।शुरू शुरू में मैं रोज़ प्रेस क्लब जाया करता था आजकल सिर्फ बुधवार दोपहर एक-डेढ़ घंटे के लिये ।एक बार मेरे मित्र जसविन जस्सी ने किसी वेटर से किन्हीं लोगों के गिरोह के बारे में पूछा कि ये लोग कौन हैं तो इसका जवाब एक अधिकारी ने यह कहकर दिया कि जिस प्रेस क्लब को आप ढूँढ रहे हैं वह अब नहीं है साहब ।

बेशक अब वह प्रेस क्लब नहीं रहा ।न तो अब यहां सांसद आते हैं, न ही मंत्री ।किसी राज्य के मुख्यमंत्री को आये भी अरसा हो चुका है ।मैंने 1927 में निर्मित पुराने संसद भवन और वहां के अपने अनुभव साझा कर रहा हूँ ।2023 में जो नया संसद भवन बना है वह पुराने संसद भवन के बिल्कुल सामने है ।इसे पुराने संसद भवन का समानांतर भी कहा जा सकता है ।हमारे समय का स्वागत कक्ष,साइकिल स्टैंड के साथ साथ ‘पी’ ब्लॉक के बैरक भी नये संसद भवन में समा गये हैं । बहुत बड़ा है यह नया संसद भवन ।पुराने संसद भवन के गेट नंबर एक के ठीक सामने से शुरू होकर रेल भवन और इंडियन रेड क्रॉस के सामने तक है ।मुझे भीतर तो जाने का अवसर नहीं मिला,उसका बाहरी कुछ हिस्सा देखा है । लगता तो खूबसूरत है ।
(यादों का झरोखा जारी है)

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