1965 और 1972 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दो नायक : भारतीय वायुसेना के मार्शल अर्जन सिंह और फ़ील्ड मार्शल मानेकशा
ब्रिटिश उच्चायुक्त के घर एक पार्टी थी जहां मैं नौरू के काउंसल जनरल करतारसिंह भल्ला से बातों में मशगूल था कि किसी ने भल्ला जी को संबोधित करते हुए कहा ‘हेलो यूअर एक्सलेंसी, की हालचाल है ।”हेलो जनरल साहब,सब वदिया ।मिलो ऐना हूं । त्रिलोक दीप, टाइम्स ऑफ इंडिया दी मैगज़ीन ‘दिनमान’ विच कम करदे ने ते मेरे पुराने साथी ने लोक सभा दे।” इस परिचय के बाद जनरल साहब ने मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा,’सत श्री अकाल जी ।मेरा नां जनरल मानेकशा ऐ, मैं अमरसरी हां (यानी मैं अमृतसरी हूं।’) इस संक्षिप्त परिचय के बाद जनरल मानेकशा और लोगों से घिर गये ।वह डिप्लोमेटिक पार्टियों में बहुत लोकप्रिय थे ।सेना की पार्टियों में तो थे ही ।श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने ‘दिनमान’ में विदेश और प्रतिरक्षा की जो जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी,रघुवीरसहाय ने उसमें कोई फेरबदल नहीं किया अलबत्ता क्राइम की बीट के साथ उसमें स्थानीय समाचार और जोड़ दिये ।क्योंकि हफ्ते में तीन-चार दिन मेरी किसी न किसी बीट की पार्टी होती रहती थी इसलिए करतारसिंह भल्ला, जनरल मानेकशा, मॉरिशस के उच्चायुक्त रवींद्र घरभरण आदि से भेंट होती रहती थी ।हर डिप्लोमेटिक पार्टी में ज़्यादातर चेहरे चीन्हे हुए होते थे और सेना की पार्टियों में भी ।
करतारसिंह भल्ला को मैं लोकसभा के दिनों से जानता था । जब मैंने वहां नौकरी ज्वायन की तो वह शाखा प्रमुख अर्थात सेक्शन ऑफिसर थे ।जैसे मैं पहले लिख चुका हूं उन दिनों पद छोटा बड़ा हो सकता था लेकिन एक दूसरे के साथ मेलजोल में वह आड़े नहीं आता था ।बेशक मैं भल्ला जी की ब्रांच में काम नहीं करता था फिर भी उनसे मेरी निकटता थी । ज़िंदादिल और खुशमिजाज भल्ला जी लोकसभा सचिवालय के लोकप्रिय लोगों में थे ।लोकसभा में मेरे कुछ प्रिय जनों को ज्ञात था कि मैंने तीन बार पीसीएस (पंजाब सिविल सर्विस) और एक बार आईएएस में लिखित टेस्ट पास किया है लेकिन इंटरव्यू में लुढ़क गया था ।एक बार पीसीएस में नियुक्त होते होते रह गया था । उन दिनों वाघा बॉर्डर से लेकर दिल्ली की सीमा तक पंजाब एक ही सूबा था ।
जिन दिनों तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष (माननीय स्पीकर) सरदार हुकम सिंह ने सदन की कार्यवाही को हिंदी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिंदी का साथ साथ अनुवाद करने के लिए इंटरप्रेटर (द्विभाषिया) रखने का निर्णय लिया तो तत्कालीन संयुक्त सचिव (बाद में महासचिव) श्यामलाल शकधर ने ऑफ़िस के वर्तमान कर्मचारियों-अधिकारियों में से उसकी व्यवस्था करने के लिए कहा।तब वहां एक अनुवाद शाखा थी जिसमें से कुछ लोगों को इस काम के लिए छांटा गया।इसके अलावा एक परिपत्र के ज़रिये कहा गया कि जो लोग इंटरप्रेटेशन में रुचि रखते हैं वे भी आवेदन कर सकते हैं ।क्योंकि वेतनमान अच्छा खासा था लिहाजा करतारसिंह भल्ला,जे एन भान, ओ पी खोसला, मुरारीलाल आदि ने भी आवेदन कर दिया लेकिन अनुवाद शाखा के प्रमुख धर्मपाल पांडेय ने नहीं किया क्योंकि वह ‘संसदीय प्रणाली और व्यवहार’ का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद के कार्य में जुटे हुए थे ।अंग्रेज़ी संस्करण ‘प्रेक्टिस ऐण्ड प्रोसीजर ऑफ़ पार्लियामेंट’ के 1041पृष्ठों ने हिंदी के ‘संसदीय प्रणाली तथा व्यवहार’ ने 1178 पृष्ठ लिये । इसकी वजह कुछ नए अध्याय जुड़ना और कुछ तकनीकी शब्दों की हिंदी में व्याख्या थी ।यह खासा मुश्किल काम था जो संसदीय परंपराओं से जुड़ा व्यक्ति ही इसे सही तरह से अंजाम दे सकता है । यह बहुत ही तकनीकी अनुवाद था जो आम अनुवादक के बस की बात नहीं थी ।पंजाबी भाषी धर्मपाल पांडेय निस्सेंदेह बेहतरीन इंटरप्रेटर सिद्ध हो सकते थे लेकिन उनकी प्रतिबद्धता अन्यत्र थी। धर्मपाल पांडेय की अनुपस्थिति में भी ऑफ़िस से ही अच्छी-खासी दुभाषिया टीम तैयार हो गयी और प्रमुख इंटरप्रेटर बने करतारसिंह भल्ला ।उस समय लोकसभा सचिवालय में कश्मीरी, कायस्थ और पंजाबी कर्मचारियों-अधिकारियों की तादाद अच्छी-खासी थी, इंटरप्रेटरों में भी ।
जब मैंने पहली जनवरी 1966 को लोकसभा सचिवालय छोड़ ‘दिनमान’ ज्वायन किया तो वहां ऐसी ही स्थिति थी ।मेरा चयन अनुवादक के तौर पर हो गया था लेकिन मैंने वहां की करीब दस बरस की नौकरी छोड़ पत्रकारिता को तरजीह दी ।बेशक मुझे और भल्ला साहब को लोकसभा सचिवालय छोड़े मुद्दत हो गयी थी लेकिन वहां रहते एक दूसरे से लगाव कुछ ऐसा बना था जो हमेशा हमारे बीच रहा। हम लोग जब भी किसी पार्टी में मिलते तो अपने पुराने सहयोगियों को याद ज़रूर किया करते थे। ब्रिटिश उच्चायुक्त के निवास पर आयोजित इस डिप्लोमेटिक पार्टी में भल्ला साहब ने बताया कि दक्षिण प्रशांत सागर में स्थित नौरू द्वीप राष्ट्र के कौंसिल जनरल के नाते वह यहां पर आमंत्रित किए गये हैं ।उन्होंने यह भी जानकारी दी कि नौरू के स्वाधीन होने के बाद वहां के नेता अपने यहां संसदीय प्रणाली की सरकार स्थापित करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने लोकसभा सचिवालय के महासचिव से सहायता मांगी ।इस काम के लिए मुझे प्रतिनियुक्त किया गया ।
नौरू गणराज्य,जिसे पहले प्लेजेंट आईलैंड कहा जाता था,दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित एक द्वीपीय बहुत छोटा सा देश है जिसका क्षेत्रफल केवल 21 किलोमीटर है और आबादी करीब 13 हज़ार ।इस द्वीप राष्ट्र का पड़ोसी बनबा द्वीप है जो किरिबाती गणराज्य का भाग है ।वह नौरू के पूर्व में 300 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ।नौरू दुनिया का सबसे छोटा स्वतंत्र गणराज्य है जिसकी अपनी कोई राजधानी तक नहीं ।स्वाधीनता से पहले यह देश संयुक्तराष्ट्र के ट्रस्टीशिप में शामिल था जिस पर कभी ऑस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड और ब्रिटेन का प्रशासनिक अधिकार था।बेशक आज नौरू स्वाधीन देश है बावजूद इसके उसकी ऑस्ट्रेलिया पर भारी निर्भरता है । नौरू एक फास्फेट-चट्टान द्वीप है जिसकी सतह के पास प्रचुर मात्रा में भंडार है ।नौरू से दो और छोटे देश हैं वेटिकन सिटी और मोनाको ।नौरू संयुक्तराष्ट्र, राष्ट्रकुल,एशियाई विकास बैंक तथा अफ्रीकी, कैरिबियाई और प्रशांत राज्यों के संगठन का सदस्य है।
नौरू एक संसदीय शासन प्रणाली वाला गणराज्य है ।राष्ट्रपति ही राज्याध्यक्ष और राष्ट्राध्य्क्ष दोनों होता है जिसे अपने पद पर बने रहने के लिए संसदीय विश्वास की आवश्यकता होती है ।एक सदन वाली संसद के सदस्यों की संख्या 19 है ।सांसद तीन बरस के लिए चुने जाते हैं ।संसद अपने सदस्यों में से राष्ट्रपति का चुनाव करती है और राष्ट्रपति पांच से छह सदस्यों का मंत्रिमंडल नियुक्त करता है । नौरू की राजनीति में चार सक्रिय पार्टियां हैं नौरू पार्टी,डेमोक्रेटिक पार्टी,नौरू फ़र्स्ट और सेंटर पार्टी । लेकिन 19 में से 15 सांसद निर्दलीय हैं ।नौरू का अपना सुप्रीम कोर्ट भी है ।संवैधानिक मुद्दों पर मुख्य न्यायाधीश का निर्णय सभी को मान्य होगा ।अन्य मामलों के लिए दो न्यायाधीशों वाला अपीलीय न्यायालय है। संसद अदालत के फैसलों को बदल नहीं सकती ।नौरू के पास कोई सश्स्त्र बल नहीं है हालांकि नागरिक नियंत्रण में एक छोटा सा पुलिस बल है ।ऑस्ट्रेलिया और नौरू के बीच एक समझौते के अंतर्गत नौरू को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान की जाती है ।नौरू की मुद्रा ऑस्ट्रेलियाई डॉलर है ।
नौरू के बारे में यह बुनियादी जानकारी देते हुए करतारसिंह भल्ला ने मुझे बताया था कि ऊपर से देखने में सभी संस्थाएं व्यवस्थित दीखती हैं लेकिन हक़ीक़त यह नहीं थी ।इसीलिए वहां की सरकार ने लोकसभा सचिवालय से एक वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिनियुक्ति की मांग की थी जो इस नवस्वाधीन देश की संसदीय संस्थाओं को स्थापित करने में सहायता कर सकें । इसके लिए मेरा चयन हुआ ।आपको मालूम ही है कि लोकसभा सचिवालय एक ऐसी प्रयोगशाला है जहां काम करने वाला कहीं मात नहीं खा सकता ।नौरू छोटा सा देश है लेकिन उसकी उतनी ही संस्थाएं थीं ।जरूरत थी उनकी एक संसदीय प्रणाली बनाने की ।वहां मैंने लोकसभा के गठन अर्थात सांसदों के चुनाव कैसे होते हैं,सरकार के गठन की क्या प्रक्रिया है,संसद का सदन चलाने के लिए स्पीकर के पद का क्या महत्व है,सत्तापक्ष और विपक्ष के सांसदों के बीच कैसा तालमेल होना चाहिए आदि की प्रणाली लोकसभा के तत्नुरूप बना दी ।उन्होंने न्याय व्यवस्था की प्रक्रिया को भी भारत के समकक्ष बनाने के लिए कहा तो वहां की आबादी के लिहाज़ से दो स्तर के निम्न कोर्ट बना दिए और संवैधानिक मुद्दों को निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के गठन की सलाह दी।संवैधानिक मामलों के अलावा नीचे की अदालतों के फैसलों के खिलाफ़ उसे अपील सुनने का अधिकार भी दर्ज कर दिया ।वहां रहते हुए मैंने एक निर्विघ्न सारी सरकारी मशीनरी बना डाली ।उनके संविधान निर्माण में भी मदद की और आम लोगों से भी मुलाकातों के दौर चलते रहे ।यह बात भी अच्छी है कि वहां की सरकार और लोग नौरू भाषा के अलावा अंग्रेज़ी भी बोल-समझ लेते हैं ।
करतारसिंह भल्ला सपत्नीक मुझे डिप्लोमेटिक पार्टियों में मिल जाया करते थे ।दो-तीन बार मैं उनके जीके-1 के एस ब्लॉक घर में मिलने भी गया था ।क्योंकि भल्ला साहब के माध्यम से जनरल सैम होमुर्सजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा (सैम बहादुर के नाम से मशहूर) से परिचय हो गया था अब उसे निभाना और आगे बढ़ाना तो मेरी अपनी सोच और काबिलियत पर निर्भर करता था ।सैम से भी कमोबेश हर डिप्लोमेटिक पार्टी में मुलाकात हो जाती जो धीरे-धीरे शिष्टाचार की सीढ़ियां लांघकर गंभीर बातचीत में तब्दील होने लगी।सैम ने बताया कि उनका जन्म 3 अप्रैल,1914 को अमृतसर में हुआ ।उनके पिता होर्मुसजी मानेकशा डॉक्टर थे जिन्होंने भारतीय सेना में आर्मी मेडिकल कोर में कप्तान के रूप में काम किया । वह मूल रूप से गुजरात के बलसाड़ के रहने वाले थे।उनके पिता का तबादला तो लाहौर में हुआ था लेकिन ट्रेन में उनकी मां को प्रसव पीड़ा हो जाने की वजह से वह अमृतसर स्टेशन पर उतर गये और फिर यहीं के होकर रह गये । इस प्रकार मैं पारसी पंजाबी बन गया ।मैंने प्राथमिक शिक्षा पंजाब में पूरी की, आठ साल तक शेरवुड कॉलेज, नैनीताल और उसके बाद हिंदू कॉलेज,अमृतसर से अप्रैल, 1932 में स्नातक की परीक्षा पास की ।अब पंजाबियत मेरे रग रग में समा गयी थी जिसने मेरी आगे की ज़िंदगी में बहुत मदद की ।मैं अपने अपको बहुत ही हिम्मती और बेबाक समझने लगा ।
मैं तो चिकित्सा की पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहता था लेकिन पिता जी ने यह कहकर कि तुम्हारा बड़ा भाई पहले से ही लंदन में इंजीनियरिंग कर रहा है, इसलिए दूसरे का मैं खर्च नहीं उठा सकता ।यह सुनकर मेरी ‘पंजाबी गैरत’ को धक्का पहुंचा और
मैंने खुन्नस में आकर भारतीय सैन्य अकादेमी (आईएमए) में आवेदन दे दिया और 1 अक्टूबर, 1932 को हुई एक खुली प्रतियोगिता के माध्यम से चुन भी लिया गया । पंद्रह कैडेटो में से एक मैं भी था और योग्यताक्रम में मेरा छठा स्थान था । आईएमए
की तभी स्थापना हुई थी और मैं उसके पहले बैच का हिस्सा था जिसे तब ‘द पायनियर्स’ कहा जाता था ।इसमें मोहम्मद मूसा खान भी शामिल थे ।हमारे पहले साथी थे दीवान रणजीत राय,भारतीय राष्ट्रीय सेना के संस्थापक मोहन सिंह और मेल्विल डी मेलो, जिन्हें लोग रेडियो के समाचारवाचक और कमेंटर के रूप में जानते हैं । इनके अलावा मिर्ज़ा हामिद हुसैन और हबीबुल्लाह खान खट्टक भी थे ।टिक्का खान, आईएमए में मुझ से पांच साल जूनियर थे और मुक्केबाज़ी में मेरे साथी भी थे । तब तो हम सब एक हिंदुस्तान के बाशिंदे थे ।पाकिस्तान बनने के बाद मूसा खान कमांडर-इन-चीफ़ बन गये। 1945 से 1946 तक मैं और याह्या खान फ़ील्ड मार्शल सर क्लाउड औचिनलेक के दो स्टाफ ऑफिसर थे ।इन सभी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया था ।इनके अलावा सैंडहर्स्ट से स्नातक की डिग्री प्राप्त बिक्रम सिंह और अयूब खान ने भी द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया था । संयोग देखिये एक साथ सेना में भर्ती होने वाले सैनिकों को 1947 के विभाजन ने एक दूसरे का ‘दुश्मन’ बना दिया था ।
सैम बहादुर आज अपने और अपने साथियों के बारे में खुल कर बातचीत करने के मूड में थे ।यह बातचीत दिलचस्प और रोमांचकारी भी थी ।मानेकशा ने बताया कि मैं एक के बाद एक सीढ़ियां चढ़ते हुए और कई लड़ाइयों में अपनी बहादुरी,निष्ठा और समर्पण का परचम लहराते हुए आगे बढ़ता चला गया । रास्ते में याह्या खान भी मिले,टिक्का खान भी ।बिक्रम सिंह भी मिले और अयूब खान भी ।ये लोग सभी एक साथ ब्रिटिश सेना की तरफ से युद्ध मैदान में थे । विभाजन के बाद याह्या खान और टिक्का खान पाकिस्तान चले गये तथा बिक्रम सिंह और मानेकशा ने भारतीय सेना को अपनाया ।
अब मैंने सैम मानेकशा को टोका ।बेशक उनका शौर्य विवरण बहुत दिलचस्प था लेकिन मुझे उनसे कुछ बुनियादी सवाल पूछने थे । मुझे पता चला था कि मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का सुझाव दिया था ।मेरे इस सवाल को सही बताते हुए सैम बहादुर ने बताया था कि जिन्ना एक बार नहीं दो-तीन बार किसी न किसी प्रसंग में मुझे अपने साथ जोड़ते हुए कहते थे कि ‘देखो सैम तुम्हारे मां-बाप गुजराती हैं और मेरे पुरखे भी गुजराती थे इसलिए हमारा डीएनए एक जैसा हुआ,लिहाजा तुम्हें पाकिस्तान को तरजीह देनी चाहिए ।’इस पर मैंने जिन्ना को यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अमृतसर जन्मा पंजाबी पारसी हूं ।’इस पर जिन्ना का दूसरा तर्क था कि पाकिस्तानी फौज भी तो पंजाबियों की है जिसमें अयूब खान,याह्या खान,टिक्का खान वगैरह तुम्हारे साथ पढ़े-बढ़े लोग भी हैं और तुम्हारे दोस्त भी’, इसके जवाब में मैंने कहा था कि ‘बावजूद इसके मुझे अल्पसंख्यक ही माना जाएगा और जब कभी तरक्की का मौका आएगा तो मुसलमान को तरजीह दी जाएगा ।’ इस पर भी जिन्ना ने हार नहीं मानी थी बोले,’जस्टिस दोराब पटेल सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस हैं वे भी पारसी और गुजराती हैं,जब उनके साथ कोई भेदभाव नहीं तो तुम्हारे साथ क्यों कर होगा और दूसरे मेरी सरकार ‘धर्मनिरपेक्ष’ होगी ।’ लगता है अब सैम मानेकशा का सब्र जवाब देता जा रहा था । मैंने हिम्मत करके जिन्ना साहब से पूछ ही लिया कि ‘क्या आप समझते हैं कि आपकी सेहत और नये मुल्क की जिम्मेदारी उसके अनुकूल है!’ मेरी इस बेबाकी पर जिन्ना (25 दिसंबर,1876-11 सितम्बर,1948) चुप्पी साध गये ।1948 में वह इंतकाल फरमा गये ।उसके बाद पाकिस्तान का क्या हाल हुआ यह किसी से छुपा नहीं है ।
जस्टिस दोराब पटेल मोहम्मद अली जिन्ना और मानेकशा की बातचीत के राजदार थे ।1990 में कराची के सिंध क्लब में जब मैं जस्टिस दोराब पटेल से मिला तो मानेकशा के फैसले पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी तो उनका दोटूक जवाब था,’मानेकशा ने सही कदम उठाया था ।बेशक मैं और बैरम अवारी जैसे अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कमोबेश सुरक्षित हैं लेकिन दूसरे समुदायों के अल्पसंख्यक उतने खुशनसीब नहीं ।’ एक बार दिल्ली आने पर जस्टिस दोराब पटेल जब सुप्रीम कोर्ट के 17वें मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी. एन. भगवती (21 दिसंबर,1921-15 जून,2017) से उनके घर मिलने के लिए गये तो उनका इरादा सैम मानेकशा से भी मिलने का था लेकिन तब वह दिल्ली में उपलब्ध नहीं थे ।एक बार मैंने जब मानेकशा से याह्या खान और टिक्का खान से रिश्तों के बारे में पूछा तो उनका उत्तर था कि ‘सैन्य अकादेमी और ब्रिटिश सरकार के दिनों की बात जुदा थी, अब हम लोग दो ऐसे मुल्कों से ताल्लुक रखते हैं जिनके आपसी रिश्ते तनावपूर्ण हैं ।’
सैम मानेकशा का 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, हैदराबाद संकट के दौरान उनकी भूमिका,नगालैंड और मिज़ोरम में उग्रवाद पर नियंत्रण पाने जैसे मुद्दों में उनके साहसिक नेतृत्व का अक्सर ज़िक्र होता था। एक बार मैंने सैम से जम्मू-कश्मीर में तत्कालीन ब्रिगेडियर बिक्रम सिंह की पैदल सेना ब्रिगेड के बारे में पूछा तो उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए पूछा कि ‘क्या आप बिक्रम सिंह जी (4 जुलाई,1911-22 नवंबर, 1963) को जानते थे’। मेरा सकारात्मक उत्तर सुन कर उन्होंने कहा कि इसी पैदल सेना ब्रिगेड का ही कमाल था जिसने आगे बढ़ते कबाइलियों को पीछे धकेला ।सैंडहर्स्ट के स्नातक बिक्रम सिंह मेरे सीनियर थे और बहुत ही दिलेर जनरल थे ।क्या यह सच है कि वह जनरल अयूब खान को ‘अयूबा’कहकर संबोधित किया करते थे और याराना पंजाबी गालियां भी दिया करते थे ।मानेकशा ने फिर मेरी तरफ देखा कि यह सब आपको कैसे मालूम ! मैंने जब सैम को बताया कि 27 अक्टूबर,1958 को पाकिस्तान में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा का तख्ता पलट जनरल अयूब खान ने सत्ता हासिल कर ली तो बिक्रम सिंह ने उन से ‘दोस्ती जैसी आज़ादी’ लेनी चाही। इस पर अयूब खान ने बिक्रम सिंह से कहा कि ‘अब मैं अपने मुल्क का सदर हूं ज़रा ज़बान संभाल कर बात किया करो’। इस पर बिक्रम सिंह का जवाब था कि ‘यह मत भूलो कि तुम मेरे यार हो और हम दोनों ने लंदन में एक साथ बहुत सारी मस्तियाँ की हैं ।’ अयूब खान ने तुर्श लहजे में कहा बताते हैं कि तब हम एक ‘मुल्क’ के बाशिंदे थे, अब हम दो अलग-अलग मुल्कों के हैं इस बुनियादी बात को मत भूलो ।और हां तुम लेफ्टिनेंट जनरल हो और मैं एक मुल्क का प्रेसीडेंट हूं जिसके अंडर कई लेफ्टिनेंट जनरल काम करते हैं ।अब सत्ता की खुमारी जनरल अयूब खान के सिर पर चढ़ कर बोल रही थी ।यह सब बातें मुझे स्वयं जनरल बिक्रम सिंह ने बताई थीं जि।से मैंने मानेकशा को भी वाजे कर दिया था।
अयूब खान का यह बर्ताव बिक्रम सिंह को बहुत खला था,अखरा था । अयूब खान के साथ पुराने दिनों को याद करते हुए बिक्रम सिंह (तब वह लेफ्टिनेंट जनरल बन गये थे) ने मुझे बताया था कि अयूब खान सिख धर्म का बहुत सम्मान किया करते थे ।उनके अनुसार ‘अयूब खान स्कूल जाने से बहुत डरते थे ।वह किसी न किसी बहाने स्कूल जाने से कतराते थे ।एक दिन डर के मारे स्कूल न जाकर वह सीधे गुरुद्वारे में चले गये ।वहां के ग्रंथी साहब को उसने स्कूल जाने में डर के बारे में बताया।ग्रंथी ने अपने तरीके से उसे समझाते हुए कहा कि तुम दिन में दस बार मन लगाकर गुरु ग्रंथ साहब के मूलमंत्र का जाप किया करो,वाहेगुरु तुम्हारा डर दूर करेंगे । अयूब खान ने ग्रंथी जी के बताए हुए रास्ते का अनुसरण किया और उसका डर हमेशा के लिए जाता रहा ।बिक्रम सिंह ने यह भी बताया कि आजकल भी अयूब खान बेनागा मूलमंत्र का जाप करता है ।अफसोस कि 22 नवंबर, 1963 को पुंछ जाते समय हेलीकाप्टर के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से जनरल बिक्रम सिंह के साथ सेना,वायुसेना और नौसेना के कई उच्च अधिकारियों की मृत्यु हो गयी ।इस हादसे के बारे में जब मैंने मानेकशा से पूछा कि यह हादसा क्या किसी साजिश का नतीजा तो नहीं था,इस पर उनकी इतनी ही टिप्पणी थी,’कुछ भी हो सकता है ।’ जांच तो हुई होगी ।
जनरल मानेकशा से मेरी यह बातचीत कई मुलाकातों में हुई ।उन्हें भी यह अच्छा लग रहा था कि उनके जीवन और कार्यों से जुड़े कई महत्वपूर्ण लोगों को मैं जानता हूं ।मैंने उनसे देश के पहले सिख प्रतिरक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह (11जुलाई,1902-29 जून,1961) के बारे में चर्चा की तो वह फिर चौंक पड़े ।बोले,’उन्हें तुम कहां मिल गये ‘।मैंने कहा ‘लोकसभा में’ । 1957 का चुनाव तो वह जीत गए थे लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया था ।अपनी इस अवहेलना से वह बहुत दुखी थे ।कुछ समय के बाद जब वह मुझे सहज और सामान्य दीखे तो उनके 1947 से 1952 के प्रतिरक्षामंत्री के तौर पर उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछा तो उनका जवाब था कि उस वक़्त देश निर्माण, विकास,पुनर्वास और सुरक्षा के दौर से गुज़र रहा है ।इसमें मुझे जिन दो जाँबाज़ और समर्पित फौजी अधिकारियों की याद आ रही है वे हैं बिक्रम सिंह और सैम मानेकशा ।बिक्रम सिंह ने शरणार्थियों के पुनर्वास करने और जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तान से आये कबाइलियों को खदेड़ने में उनकी सेना की पैदल ब्रिगेड ने अहम भूमिका निभाई जबकि सैम मानेकशा का रोल जम्मू-कश्मीर के साथ साथ 1948 में हैदराबाद के भारत में विलय में आपरेशन पोलो योजना के तहत हैदराबाद रियासत को भारतीय संघ में मिला लेना था । सरदार बलदेव सिंह तब कश्मीर संघर्ष और भारत के राजनीतिक एकीकरण के मुद्दों पर पंडित नेहरू के करीबी सलाहकारों में से थे ।जनरल मानेकशा को यह यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोई राजनीतिक किसी फौजी अफसर की ‘ड्यूटी’ की इस तरह से सराहना कर सकता है ।ऊहापोह की इस स्थिति को भांपते हुए मैंने सैम मानेकशा से कहा था कि सरदार बलदेव सिंह जैसे लोग स्वतंत्रता सेनानी थे और हर शख्स की अहमियत को समझते थे।वह संविधान सभा के भी सदस्य रहे थे ।
दरअसल सैम बहादुर से जुड़ी कई खबरों से मैं वाकिफ हूं ।इसलिए कहीं संक्षेप में तो कहीं विस्तार से लिख रहा हूं ।1971 तक पहुंचने से पहले मैं 1965 के उस जाँबाज़ अफसर का ज़िक्र भी करना चाहता हूं जिनका नाम था जनरल हरबख्शसिंह । इस पर जनरल मानेकशा का कहना था कि निस्संदेह वह बहुत ही बहादुर अफसर थे और 1965 में पश्चिमी कमान के मुखिया ।उनके नेतृत्व में सेना ने पाकिस्तानी सेना को लोहे के चने चबवा दिए थे ।जिस तरह से इछोगिल नहर पार कर हिन्दुस्तानी फौज लाहौर में प्रवेश कर गयी थी उसका श्रेय उन्हीं की कमान को दिया जाता था ।मैं उनकी निर्भीकता और काबिल अफसर होने की तारीफ करता हूं ।लेकिन सेना प्रमुख का चयन करते समय वरिष्ठता का भी ख्याल रखा जाता है ।इस मामले में जनरल हरबख्श सिंह मुझसे जूनियर थे मुझे 1932 में कमीशन मिला था और उन्हें 1935 में ।
आम तौर पर जनरल मानेकशा को 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और ईस्ट पाकिस्तान का बंगलादेश के तौर पर अभ्युदय तथा 93 हज़ार पाकिस्तानी युद्धबंदियों के रूप में याद किया जाता है लेकिन सैम बहादुर की इससे पूर्व की कहानी भी खासी दिलचस्प और रोमांचक रही है जिससे मैंने अपने पाठकों को रूबरू कराने का प्रयास किया है ।7 दिसंबर,1970 को पाकिस्तान की 300 सदस्यीय राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान में अवामी लीग को 162 सीटें मिलीं और पश्चिमी पाकिस्तान में मुस्लिम लीग समेत दूसरी पार्टियों को 138। सत्ता की बागडोर को लेकर यहीं से दोनों भागों के बीच भारी अशांति फैल गयी क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तान किसी भी कीमत पर पूर्वी पाकिस्तान को सत्ता सौंपने के हक़ में नहीं था ।यह उसकी पुरानी ‘दादागिरी’ है ।1958 में जनरल अयूब खान ने जिस राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा का तख्ता पलटा था वह भी पूर्वी पाकिस्तान के थे ।लिहाजा अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए वर्तमान राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने जनरल टिक्का खान को पूर्वी पाकिस्तान को ‘सबक’ सिखाने की जिम्मेदारी सौंपी ।25 मार्च से 16 दिसंबर,1971 तक देश के विभिन्न हिस्सों में इतना नरसंहार हुआ जिसे देख-सुनकर रूह कांप उठती है ।करीब एक करोड़ लोग पूर्वी पाकिस्तान से पलायन कर भारत आ गये ।
पाकिस्तानी सेना के बढ़ते दबाव को देखते हुए अप्रैल, 1971 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मानेकशा से पूछा कि क्या वह पाकिस्तान के साथ युद्ध करने के लिए तैयार हैं ।इसके जवाब में सैम मानेकशा ने कहा कि उनकी अधिकांश बख्तरबंद और पैदल सेना डिवीज़न कहीं और तैनात हैं, उनके केवल बारह टैंक ही युद्ध के लिए तैयार हैं ।उन्होंने प्रधानमंत्री गांधी को यह भी बताया कि आगामी मानसून के साथ हिमालय के दर्रे जल्द ही खुल जाएंगे, नतीजतन भारी बाढ़ आ जाएगी लिहाजा इस हालात में जंग मौजूं नहीं होगा ।आप चाहें तो मेरी इस ‘गुस्ताखी’ के लिए मैं अपने पद से इस्तीफा देने को तैयार हूं । इंदिरा गांधी ने उनकी इस बेबाकी की तारीफ करते हुए उनकी सलाह मांगी ।मानेकशा ने कहा कि अगर उन्हें अपनी शर्तों पर संघर्ष संभालने की अनुमति दें तो वह जीत की गारंटी दे सकते हैं और इंदिरा गांधी इसके लिए राज़ी हो गयीं ।यह है पंजाबियत । मानेकशा कहा करते थे ‘खालिस पारसी इतना दिलेर नहीं हो सकता ।’
जनरल मानेकशा ने अपनी रणनीति के बारे में अब बताना शुरू किया ।सबसे पहले बंगाली राष्ट्रवादियों की मुक्तिवहिनी को प्रशिक्षण दिया, उन्हें हथियार मुहैया कराये और इस तरह 75 हज़ार गुरिल्लाओं को पूरी तरह से प्रशिक्षित कर गोला बारूद से लैस कर दिया ।इन बलों का इस्तेमाल युद्ध से पहले पूर्वी पाकिस्तान में तैनात पाकिस्तानी सेना को परेशान करने के लिए किया गया ।वास्तविक युद्ध तो 3 दिसंबर, 1971 को शुरू हुआ जब पाकिस्तानी विमानों ने पश्चिमी भारत में भारतीय वायुसेना के ठिकानों पर बमबारी की ।पंगा उन्होंने लिया था । लिहाजा हमने पूर्वी कमान को आवाजाही के आदेश दे दिए और प्रधानमंत्री गांधी को इस आशय की जानकारी दे दी ।मैंने एक रेडियो संदेश में पाकिस्तानी सैनिकों से कहा कि भारतीय सेना ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है, तुम्हारी वायुसेना नष्ट हो चुकी है, तुम्हें किसी तरह की मदद की कोई उम्मीद नहीं,समुद्र के रास्ते भी तुम तक कोई नहीं पहुंच सकता, मुक्तिवहिनी और जनता तुम्हारे द्वारा किए गए ज़ुल्मों और क्रूरताओं का बदला लेने के लिए तैयार है,अपनी जानें नाहक बर्बाद कर रहे हो । घर में तुम्हारे बच्चे तुम्हरा इंतज़ार कर रहे हैं ।वक़्त मत बर्बाद करो, एक फौजी के सामने हथियार डालने में कोई शर्म नहीं ।हम तुम्हें एक सैनिक जैसा ही सम्मान देंगे ।’
जनरल मानेकशा ने बताया कि मेरे इस संदेश का माकूल असर हुआ ।यह बात सही भी थी कि एक तरफ एयर चीफ़ मार्शल पी सी लाल के नेतृत्व में उनके वायुसैनिकों ने 7300 से ज़्यादा उड़ानें भरीं यानी रोज़ 500 उड़ानें । दूसरी तरफ एडमिरल एस एम नंदा की सरपरस्ती में नौसैनिक पाकिस्तानी सश्स्त्र बलों पर कहर बरपा कर रहे थे ।अमेरिका का भेजा सातवां बेड़ा टापता रह गया ।कराची बंदरगाह धू धू जल रहा था ।जहां हम तीनों सश्स्त्र बलों के मुखियायों में तालमेल था वहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हमें खुली छूट थी। अमेरिकी प्रशासन को उनकी यह धमकी कि ‘तुम सातवां नहीं सत्तरवां बेड़ा भी भेज दो तो भी मेरे देश के जवान अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं,हमारा संबल था।’ जनरल मानेकशा ने मुझे बताया था कि जब राजनीतिक नेतृत्व की आपको खुली छूट मिले तो हिन्दुस्तानी सैनिकों के साहस का कोई सानी नहीं ।1965 के भारत-पाकिस्तान की जंग में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सशस्त्र सेनाओं को इसी प्रकार की छूट दी थी और पाकिस्तान को आखिरकार घुटने टेकने पड़े थे ।
अब जनरल मानेकशा कुछ जज़्बाती हो गये ।बोले, जब मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सूचना दी कि पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया है तो उन्होंने कहा कि ‘आप ढाका जाकर पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण स्वीकार करो’ तो मैंने उन्हें बड़ी विनम्रता से मना करते हुए कहा कि ‘यह सम्मान पूर्वी कमान के जीओसी-इन-सी लेफ्टिनेंट जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा को मिलना चाहिए ।’श्रीमती गांधी ने मेरी भावनाओं की कद्र की ।यह भी मेरी पंजाबियत का सबूत है नहीं तो कौन होगा ऐसा सेना प्रमुख जो 93 हज़ार सैनिकों के आत्मसमर्पण का सम्मान नहीं लेना चाहेगा ।एक बात और ।इस पूरे अभियान में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मुझसे ही सलाह मशविरा करती रहीं उसमें एयर चीफ़ मार्शल पी सी लाल और एडमिरल एस एम नंदा शामिल नहीं होते थे ।लिहाजा युद्ध की समाप्ति के बाद जब हम सशस्त्र बलों के तीनों प्रमुख श्रीमती गांधी से मिले और हमारे प्रति व्यक्त किए गए विश्वास के लिए आभार जताया तो उनके चेहरे पर भी एक विजयी मुस्कान तिरेर गयी ।हम तीनों से हाथ मिलाते हुए उन्होंने कहा कि मुझे आप पर गर्व है ।जिस देश के पास ऐसे समर्पित सैनिक हों उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता ।वह मुझे फ़ील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत कर चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ भी बनाना चाहती थीं लेकिन इस पर वायुसेना और नौसेना के प्रमुखों को आपत्ति थी ।इसलिए उन्होंने इस बात को वहीं खत्म कर दिया ।लेकिन मेरी सेवाओं की विशेष कद्र करते हुए एक तो मेरा कार्यकाल छह माह के लिए बढ़ा दिया ।मैं जून,1972 में सेवानिवृत होने वाला था और ‘सश्स्त्र बलों और राष्ट्र के लिए उत्कृष्ट सेवाओं के सम्मान में ‘मुझे 1 जनवरी, 1973 को फ़ील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया ।मुझे देश का पहला फ़ील्ड मार्शल बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक मैं जिंदा हूं मुझे आज जितना वेतन मिलता रहेगा । लेकिन पहले चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) बनने का गौरव जनरल बिपिन रावत को प्राप्त हुआ।1 जनवरी,2020 को वह सीडीएफ बने । दुर्भाग्य से एक हेलिकॉप्टर हादसे में उनकी मौत हो जाने उनका यह कार्यकाल 8 दिसंबर,2021 तक ही रहा ।वर्तमान सीडीएस जनरल अनिल चौहान हैं ।
क्योंकि मानेकशा धाकड़ और दबंग फौजी अफसर थे इसलिए डिफेंस मंत्रालय के कुछ असैनिक अधिकारी उनसे खुंदक खाते थे जिसके चलते उन्हें बरसों तक पूरे भत्ते नहीं दिए गये जिनके वह हक़दार थे ।एक बार राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम वेलिंगटन में उनसे मिले तो उन्हें 1.3 करोड़ का चेक प्रदान किया गया जो उनके 30 बरसों से अधिक वर्षों के वेतन का बकाया था ।लेकिन मानेकशा ने यह सारा धन सैनिकों की भलाई के लिए दान कर दिया था ।सेवानिवृति के बाद वह तमिलनाडु के वेलिंगटन छावनी के बगल में स्थित कुन्नूर चले गये थे। उन्हें सरकार की तरफ से कोई पद नहीं दिया गया था लेकिन प्राइवेट कंपनियों के बोर्ड के वह स्वतंत्र निदेशक रहे ।गोरखा सैनिकों के बीच लोकप्रिय नेपाल ने उन्हें नेपाली सेना के मानद जनरल के रूप में सम्मानित किया और 1977 में महाराजा बीरेंद्र ने नेपाल साम्राज्य के नाइटहुड के आदेश त्रि शक्ति पट्ट प्रथम श्रेणी से सम्मानित किया ।करगिल युद्ध के दौरान उन्होंने अस्पताल में भर्ती सैनिकों से मुलाकात कर उनकी हौसला अफजाई की । कमांडर सीओएएस वेद प्रकाश मलिक ने फ़ील्ड मार्शल मानेकशा को अपना आदर्श बताया ।27 जून,2008 को 94 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया ।उन्हें ऊटी के उधगमंडलम में पारसी कब्रिस्तान में उनकी पत्नी की कब्र की बगल में दफनाया गया ।अफसोस फ़ील्ड मार्शल मानेकशा की अंतिम विदाई उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं हुई । इसमें सशस्त्र बल के प्रमुख शामिल नहीं हुए और मंत्रियों के नाम पर एक केंद्रीय राज्य मंत्री ही उपस्थित था । लगता है हमारे हुक्मरान नायकों को सम्मान देने में कंजूसी बरतते हैं । ऐसी मानसिकता हमारी समझ से परे है ।
लेफ्टिनेंट जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा से भी मेरी कई मुलाकातें थीं ।1973 में भारतीय सेना से सेवानिवृत हो जाने के बाद वह दिल्ली के अपने फ्रेंड्स कॉलोनी वाले घर में रहने लगे थे ।उनसे भारत-पाकिस्तान के बीच की निर्णायक लड़ाई के बारे में जानने की बेताबी थी। कोशिश मेरी सदा रही है ‘दिनमान’ के लिए एक्सक्लूसिव स्टोरी लेने की ।कभी कभी मुझे ऐसे दायित्व मेरे संपादक जानबूझ कर देते थे या किसी सहयोगी के ‘पकड़ में न आने’ की दलील के बाद ।मेरे साथ अभी भी लोकसभा सचिवालय वाला तमगा कारगर साबित हो रहा था ।जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा के यहां मैं इतनी बार गया था कि मेरे कुछ साथी मुझे उनके ‘घर का बंदा’ कहने लगे थे ।वह थे जो सेलीब्रिटी ।एक बार मेरे साथ श्रीमती शुक्ला रुद्र गयीं तो दूसरी बार जसविंदर भी गये। जसविंदर अब हमारे बीच में नहीं है ।वह ‘दिनमान’ छोड़ बीबीसी में चले गये थे ।उनसे पहले नरेश कौशिक भी ‘दिनमान’ से ही बीबीसी गए थे ।जसविंदर कुछ कवरेज के सिलसिले में गोवा आए थे ।वहां डूब जाने से उनका निधन हो गया ।
श्रीमती शुक्ला रुद्र बंगलादेश की महिलाओं की स्थिति के बारे में जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा से जानना चाहती थीं ।उनके मायके के परिवार का संबंध बंगलादेश से था ।इस सवाल का उत्तर देते हुए जनरल अरोड़ा ने बताया कि पाकिस्तानी गवर्नर जनरल टिक्का खान की फौज ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों को चुन चुन कर मारा था और महिलाओं के साथ भी बहुत बदसुलूकी हुई थी ।टिक्का खान के लिए तो वहां ‘कसाई’ शब्द का प्रयोग किया जाता था ।टिक्का खान आईएमए में जनरल मानेकशा से जूनियर था और दोनों जमकर मुक्केबाजी किया करते थे लेकिन अब वह पहले जैसा टिक्का खान नहीं था।उसके सिर पर खून सवार रहता था ऐसे जैसे वह किसी दुश्मन पर हमला कर रहा हो जबकि हक़ीक़त में उस वक़्त वह पाकिस्तान का अपना एक अंग था।जिस के आदेश पर यह नरसंहार हो रहा था वह राष्ट्रपति जनरल याह्या खान जनरल मानेकशा का बैचमेट था और दोनों ने एक अंग्रेज़ फ़ील्ड मार्शल के अधीन काम किया था ।तब हिंदुस्तान एक था और जनरल मानेकशा के ये पुराने साथी अब पाकिस्तान के हुक्मरान थे ।वे लोग अपने समकक्षों को भूल गए थे ।मैंने और जनरल मानेकशा हम दोनों ने टिक्का खान को बेगुनाहों पर रहम करने की गुज़ारिश भी की थी।उनका जवाब था कि ‘यह हमारी रियाया(प्रजा) है हम जैसा चाहें उनके साथ सुलूक कर सकते हैं ।’इस जवाब से हमारा खून खौल गया था ।हमने एक रणनीति के तहत पाकिस्तानी सैनिकों की चारों तरफ से घेराबंदी कर ली-थल,नभ और जल पर ।ऊपर से हमारे वायुसैनिक उन पर गोलियां बरसा रहे थे और समुद्र में आईएनए विक्रांत ने मोर्चा संभाल लिया था ।अब पाकिस्तानी सेना के पास एक ही रास्ता बचा था आत्मसमर्पण का जो उन्होंने कर दिया, बेशक कुछ देर से ही सही ।
लेकिन एक वेबसाइट भारत रक्षक के अनुसार तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल जैक फ़राज राफेल जैकब (जेएफआर जैकब) ने बार बार ज़ोर देकर कहा था कि बंगलादेश युद्ध केवल उनके अपने प्रयासों और उनके ‘आंदोलन युद्ध’ की योजना के कारण सफल हुआ था न कि फ़ील्ड मार्शल मानेकशा या पूर्वी कमान के जीओसी-इन-सी,लेफ्टिनेंट जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा के प्रयासों से ।इस युद्ध में उनकी भूमिका के लिए जैकब को अत्यंत असाधारण श्रेणी की विशिष्ट सेवा के लिए परम विशिष्ट सेवा पदक से सम्मानित किया गया था ।लेफ्टिनेंट जनरल जैकब ने अपनी पुस्तक ‘एन ओडिसी इन वार ऐंड पीस ‘ में लिखा है कि जनरल अरोड़ा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से एक राज्य के गवर्नर पद के लिए संपर्क किया था लेकिन उन्होंने मना कर दिया ।
पाकिस्तान पर जीत के बाद न तो भारतीय सशस्त्र बलों ने अपना आपा खोया और न ही मुक्तिवाहिनी को खोने दिया ।हम लोग संघर्ष के बाद अनुशासन बनाए रखने को लेकर चिंतित थे और उन्हें लूटपाट और बलात्कार का अन्देशा था लिहाजा मैंने और जनरल मानेकशा ने अपने सैनिकों को यह कड़ी हिदायत दी कि वे एक तो लूटपाट से दूर रहें और दूसरे महिलाओं का सम्मान करते हुए आदेश जारी किए कि जब आप किसी बेगम (मुस्लिम महिला) को देखें तो आपके हाथ बेकाबू नहीं होने चाहिए, उन्हें आप अपनी जेबों में डालकर रखें और सैम बहादुर और जनरल अरोड़ा के बारे में सोचें।इसका असर यह हुआ कि लूटपाट और बलात्कार के मामले नगण्य रहे । हमें अपने अनुशासित सैनिकों पर पूरा भरोसा था ।बंगलादेश बन जाने के बाद वहां के शासकों ने किसी भी भारतीय सैनिक की अनुशासनहीनता के खिलाफ़ शिकायत नहीं की ।
जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा अब हम सभी लोगों से खुल गए थे ।उन्होंने 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग का किस्सा सुनाया ।यह तो सर्वविदित है कि इछोगिल नहर पार कर बुर्की गांव से होते हुए हमारी सेना ने लाहौर में प्रवेश कर लिया था । हमारे सैनिक शहर की तरफ बढ़ रहे थे कि उन्हें रास्ते में बाटापुर स्थान पर शूज़ का एक शोरूम दीखा ।एक सैनिक ने अपने अफसर से पूछा कि आपके पैर का क्या साइज़ है सर, आपके लिए बाटा का एक बढिया सा जूता ले आता हूं ।उधर से कड़क आवाज़ आयी,’खबरदार किसी चीज़ को हाथ भी लगाया तो’। हिन्दुस्तानी सैनिक धीरे-धीरे शहर में प्रवेश कर रहे थे कि उन्हें युद्धविराम का संदेश मिला ।जो जहां था वहीं खड़ा हो गया ।कुछ सिख सैनिकों ने अपने कमांडिंग अफसर से पूछा ‘क्या हम डेरा साहब गुरुद्वारे के दर्शन करने के लिए जा सकते हैं ।’ फिर वैसी ही कड़क आवाज़ ‘बिल्कुल नहीं ।अब तो युद्धविराम हो चुका है ।’और दूसरे वहां अकेले दुकेले जाना खतरे से खाली नहीं ।अगर पूरी फौज को लाहौर शहर पर कब्ज़ा करने की इज़ाजत मिल जाती तो हम लोग कहीं भी आ जा सकते थे ।
गुरुद्वारा डेरा साहब उस स्थान पर बनाया गया है जहां सिखों के पांचवें गुरु अर्जन देव को मुगल बादशाह जहांगीर के हुक्म पर यात्नाएं दी गयी थीं ।इन यातनाओं को देखकर गुरु जी के करीबी और मुस्लिम फकीर मियां मीर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने गुरु जी को नदी में स्नान करने देने की प्रार्थना की जिसे स्वीकार कर लिया गया ।गुरु अर्जन देव नदी में स्नान करने के लिए उतरे तो फिर वापस नहीं आये। मुगल खोजी दल ने उनकी बहुत तलाश की लेकिन नाकामयाबी उनके हाथ लगी । उनके शहीद होने का सन 1606 माना जाता है ।गुरु जी के पुत्र और उनके उत्तराधिकारी छठे गुरु हरगोविंद ने 1619 में यहां एक स्मारक बनवाया ।सोने का पानी चढ़ा गुंबद वाला मुख्य गुरुद्वारा भवन महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान बनाया गया था ।यह गुरुद्वारा लाहौर शहर के ठीक बाहर स्थित है और उन स्मारकों का हिस्सा है जिसमें लाहौर किला, रणजीत सिंह की समाधि, रोशनाई गेट और बादशाही मस्जिद शामिल हैं ।मैंने 1993 में डेरा साहब गुरुद्वारे के दर्शन किए थे ।दर्शनों से पहले वहां तैनात सुरक्षा अधिकारी आपका पासपोर्ट अपने पास रख लेते हैं ।
भारतीय सेनाओं के लाहौर के काफी भीतर तक प्रवेश करने की आंखों देखी घटना ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के तत्कालीन एडिटर अजीज सिद्दिकी ने मुझे 1990 में मेरे पाकिस्तान दौरे के दौरान उस समय सुनायी जब वह मुझे लाहौर की तरफ से वाघा बॉर्डर दिखाने ले जा रहे थे ।बाटापुर रास्ते में ही पड़ता है ।थोड़ी देर के लिए उन्होंने अपनी कार वहां रोककर आसपास का माहौल दिखाया जिसे देखकर यह तय करना मुश्किल था कि हम भारत की तरफ के वाघा बॉर्डर में हैं या पाकिस्तान की तरफ के वाघा बॉर्डर में ।दोनों तरफ के लोगों का एक ही जैसा पहनावा,एक ही जैसी कद काठी, जुबान,खाना पीना और जाति बिरादरी ।
उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान जैसी अनुशासित फौज शायद ही पाकिस्तानी अवाम ने कभी देखी होगी ।क्या मजाल जो बाटा शोरूम से जूते निकाले हों,अवाम से बदसुलूकी की हो,औरतों पर बुरी नज़र डाली हो ।जब उन्हें जंगबंदी का हुक्म मिला वे जहां पर थे वहीं खड़े हो गये ।अगला हुक्म मिलने पर फौज पीछे लौट गयी ।लेकिन एक बात जिसकी पूरे लाहौर में तारीफ हुई वह थी हिन्दुस्तानी फौजों की जांबाज़ी की ।जो फौज इछोगिल नहर पार कर सकती है वह दुनिया में कुछ भी सर कर सकती है ।अपनी फौज की दिलेरी की ऐसी ही कहानी मुझे बुर्की में कुछ पुराने लोगों के मुंह से सुनने को भी मिली जब मैं 1997 में पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव कवर करने के लिए वहां गया था ।इछोगिल नहर के चारों तरफ घने पेड़ों की कतारें हैं जो दुश्मन फौज को भरमाती हैं ।पहले प्रयास में तो भारतीय सेना की टुकड़ी इस झांसे में आ गयी थी। गलती का अहसास होने पर तुरंत पीछे हट गयी ।उसके बाद अपनी नयी रणनीति के तहत उसने बुर्की की लड़ाई में डोगराई पर कब्ज़ा कर लाहौर की तरफ मार्च किया ।युद्धविराम हो जाने से भारतीय सेना की जाट रेजिमेंट की लाहौर पर कब्ज़ा करने की हसरत मन में ही दबी रह गयी ।
जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा ने 1962 में चीन-भारत की लड़ाई भी लड़ी थी।तब वह ब्रिगेडियर थे।1965 मेंभारत-पाकिस्तान युद्ध में भी भाग लिया । उस समय वह मेजर जनरल थे ।इसीलिए उन्होंने हमें इछोगिल नहर पार कर लाहौर में प्रवेश वाला प्रसंग सुनाया था जिसमें मैंने भी अपनी पाकिस्तान यात्रा के संस्मरण जोड़ दिये ।1990 से 1999 के बीच मैंने पाकिस्तान की पांच यात्राएं की थीं ।जनरल अरोड़ा ने यह भी बताया कि 3 दिसंबर, 1971 को उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय थल सेना की कमान संभाल एक सुनियोजित अभियान के तहत कई छोटी-छोटी लड़ाकू टुकड़ियां बनायीं और चार मोर्चों पर हमला किया । इस अभियान के ज़रिये बारह-तेरह दिनो में हमने ढाका पर कब्ज़ा कर लिया और पाकिस्तान सशस्त्र बलों के एकीकृत कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल
अमीर अब्दुल्ला खान नियाज़ी को बिना शर्त आत्मसमर्पण करने के लिए एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर कर दिया ।इस प्रकार सिर झुकाए नियाज़ी ने 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने युद्ध के कैदियों के रूप में जनरल अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से सैनिकों का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था ।
युद्ध के बाद जनरल मानेकशा ने युद्धबंदियों के लिए अच्छी स्थिति सुनिश्चित की लेकिन केंद्रीय सरकार की काबीना की एक बैठक में यह फैसला लिया गया कि युद्धबंदियों के साथ ‘दामादों’ जैसा व्यवहार नहीं होना चाहिए ।जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा ने बताया कि बावजूद केंद्रीय सरकार के निर्देशों के हमने इन युद्धबंदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया । उन्होंने कुछ मामलों में चुनिंदा युद्धबंदियों को व्यक्तिगत तौर पर संबोधित किया ।उनसे अकेले में भी बात की और उनके सहायकों के साथ भी ।उनके साथ बैठकर चाय भी पी ।उन्हें पाक कुरान की प्रतियां प्रदान करने की व्यवस्था की। ये युद्धबंदी कई वर्षों तक कैद में रहे। 16 दिसंबर 1971 को लेफ्टिनेंट जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा ने जिस स्थल पर आत्मसमर्पण दस्तावेज पर हस्ताक्षर लिए थे उसे राष्ट्रीय स्मारक स्वाधीनता स्तंभ में परिवर्तित कर दिया गया ।इसका मुख्य आकर्षण कांच का स्तंभ है । इस स्मारक में एक अखंड ज्योति,शहीदों के टेराकोटा भितिचित्र और एक जलकुंड भी शामिल है ।
इन सैनिक और असैनिक युद्धबंदियों की संख्या 93,000 बताई गयी । यह आंकड़ा कुछ इस प्रकार है: 79,676 वर्दीधारी कर्मी – 55,692 सेना,16,354 अर्धसैनिक, 5296 पुलिस, 1000 नौसेना और 800 पीएएफ। शेष 13,324 कैदी नागरिक थे ।इनमें कुछ सैन्य कर्मियों के परिवार के सदस्य थे और कुछ बिहारी रजाकार। उनकी सुरक्षा भारत के लिए एक बड़ी चुनौती थी ।उधर बंगलादेश की अंतरिम सरकार इन पाकिस्तानी सैनिकों पर अपने विशेष न्यायालयों में ‘मानवता के विरुद्ध अपराधों’ के आरोप में मुकद्दमा चलाना चाहती थी । बंगलादेश सरकार और जनता के सदस्यों ने विशेष रूप से 194 पाकिस्तानी सेना, वायुसेना और नौसेना अधिकारियों पर युद्ध अपराधों के लिए मुकद्दमा चलाने की बात कही । लेकिन भारत सरकार ने उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया ।लिहाजा उनकी सुरक्षा और भलाई की चिंता को ध्यान में रखते हुए इन युद्धबंदियों को ट्रेन और हवाई मार्ग से देश के विभिन्न हिस्सों जैसे रांची, आगरा, ग्वालियर, रुड़की और जबलपुर में विशेष युद्ध शिविरों मेंस्थानांतरित कर दिया ।पाकिस्तान सेना की पूर्वी कमान के सैन्य कमांडरों को कोलकाता के फ़ोर्ट विलियम में रखा गया, बाद में उन्हें जबलपुर छावनी में रखा गया । 1973 में अधिकांश युद्धबंदियों को नई दिल्ली के लाल किले और ग्वालियर किले में स्थानांतरित कर दिया गया ।
भारत सरकार ने सभी युद्धबंदियों के साथ 1925 में पारित जिनेवा कन्वेंशन के अनुसार व्यवहार किया ।आम तौर पर इन युद्धबंदियों से काम कराया जा सकता है । इतने लोगों की सुरक्षा और खान पान का इंतजाम करना कोई आसान बात नहीं थी ।लिहाजा उन्हें छोड़ने से पहले 1972 में भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी और ज़ुल्फिकर अली भुट्टो के बीच शिमला में लंबी बातचीत हुई । 1974 में दिल्ली समझौते के बाद प्रत्यावर्तन हुआ ।शिमला समझौते में यह सुनिश्चित किया गया कि पाकिस्तान युद्धबंदियों की वापसी के बदले में बंगलादेश की स्वतंत्रता को मान्यता देगा । इन समझौतों के बाद धीरे धीरे युद्धबंदियों को वाघा बॉर्डर से वापस भेजा गया । अफसोस कि शिमला बातचीत में भारत ने 54 भारतीय सैनिकों के लापता होने का मुद्दा नहीं उठाया जिन्हें पाकिस्तान ने गुप्त रूप से बंदी बना रखा था। जब 1978 में यह मुद्दा उठाया गया तो पाकिस्तान ने ऐसे युद्धबंदियों के अस्तित्व से इंकार कर दिया ।
क्या युद्धबंदियों के निरस्त्रीकरण करने में कोई दिक्कत पेश आयी जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा ने बताया,’थोड़ी बहुत ।यह आम बात है ।कल तक जो फौजी और उनके कमांडर उछश्रृंखल थे, मनमानी करते थे,पूर्वी पाकिस्तान को अपनी जागीर और चरागाह समझते थे तथा लोगों को अपनी प्रजा, अब युद्धबंदी का तमगा उन्हें साल रहा था ।कुछ कमांडरों की वर्दियों से जब उनके पदक तोड़कर फेंके गये तो कइयों के तो आंसू निकल आये, कुछ ने तेवर दिखाने की भी कोशिश की जिन्हें तुरंत दबोच लिया गया ।निरस्त्रीकरण का काम खासा मुश्किल होता है ।सोचिए करीब 80 हजार वर्दीधारियों को वर्दीविहीन करने में कितना वक़्त लगा होगा ।खैर सब कुछ बिना किसी हादसे के काम मुकम्मिल हो गया ।इन पाकिस्तानी युद्धबंदियों को हमारी इंसानियत की सोच से बड़ा ताज्जुब हुआ ।पाकिस्तानी फौज में इंसानियत नाम की शायद ही कोई चीज़ देखने-सुनने को मिलती हो ।इसलिए पूर्वी पाकिस्तान में जिस तरह से इन लोगों ने लूटपाट की,नरसंहार किया और बेखौफ़ होकर बड़े पैमाने पर बलात्कार किया उससे उनकी ज़हनियत का पता चल जाता है ।
भारतीय सशस्त्र बलों ने आपसी तालमेल से इस तिहरी चुनौती का सामना कर पूरी कामयाबी हासिल की क्या राजनीतिक नेतृत्व ने उसका कोई पुरस्कार भी दिया तीनों सशस्त्र बलों को! तीनों के दो मतलब हैं पश्चिमी और पूर्वी मोर्चों के साथ साथ मुक्तिवहिनी के साथ मिलकर बंगलादेश की आज़ादी ।और इसके अलावा सेना,वायुसेना और नौसेना के बीच समन्वय ।इस पर जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा ने बताया कि हमें सैनिक सम्मान प्राप्त हुए और कुछ को पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी नवाजा गया,भारत रत्न किसी को नहीं मिला ।और राजनीतिक या राजनयिक पद? जनरल अरोड़ा मुस्कुराए और बोले, उसके लिए शायद विशेष योग्यता की जरूरत होती है,हम चारों में से किसी को नहीं मिला न सैम मानेकशा को, न एयर चीफ़ मार्शल प्रताप चंद्र लाल को और न ही एडमिरल सरदारीलाल मथरादास नंदा को । जनरल मानेकशा को 1972 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया,
भारतीय सेना में अपनी सेवा के बाद कुछ कंपनियों के बोर्ड के स्वतंत्र निदेशक बने लेकिन उन्हें कोई राजनीतिक और राजनयिक पद नहीं मिला । एयर मार्शल पी सी लाल इंडियन एयरलाइंस कारपोरेशन का अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक बने जबकि एस एम नंदा 1974 में शिपिंग कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक नियुक्त किए गये ।लेकिन आप तो सांसद बन गये जनरल अरोड़ा ।उन्होंने बताया कि एक बार शिरोमणि अकाली दल के नेता प्रकाशसिंह बादल मिले और उन्होंने कहा कि आप हमारी पार्टी में शामिल हो जायें ।मैंने उनका प्रस्ताव मान लिया जिसके चलते उन्होंने मुझे राज्यसभा का सदस्य बना दिया लेकिन उस हुकूमत ने हमारी उपेक्षा की जिनके अधीन हमने ये लड़ाई लड़ी थी ।
जब मैंने जनरल अरोड़ा को बताया कि 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भाग लेने वालों को तो राजनयिक और राजनीतिक दोनों तरह से सम्मानित किया गया तो उन्होंने इसकी काट पेश करते हुए बताया कि 1971 के लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर
जैकब को भी तो पहले गोवा और बाद में पंजाब का राज्यपाल बनाया गया ।वह सयाने निकले।1990 में वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए जहां से उन्हें यह राजनीतिक पद प्राप्त हुआ ।1965 में भारत- पाकिस्तान युद्ध के दौरान रणजीत सिंह दयाल ने
रणनीतिक हाजी पीर दर्रे पर कब्ज़ा करने के लिए पहली पैरा टीम का नेतृत्व किया था ।1984 में आपरेशन ब्लू स्टार के समय वह पंजाब के राज्यपाल के सुरक्षा सलाहकार थे । उन्होंने जनरल कृष्णास्वामी सुन्दरजी के साथ मिलकर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से
खालिस्तानी आतंकवादियों को खदेड़ने की योजना बनायी । वह जून,1988 से फरवरी, 1990 तक पुदुचेरी के उपराज्यपाल रहे ।उसके बाद उन्हें अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह का उपराज्यपाल बनाकर भेज दिया गया ।
थल सेना में तमाम ऐसे जनरल हुए हैं जिन्हें सेवा निवृति के बाद राजनीतिक और राजनयिक पदों से सम्मानित किया जाता रहा है । 1971 का भारत- पाकिस्तान युद्ध कई अर्थों में अन्य जंगों से जुदा था ।इस जंग के ज़रिये न सिर्फ भारत के तीनों सशस्त्र बलों ने भारतीय अस्मिता कायम रखी थी बल्कि पाकिस्तान के दो टुकड़े कर एक नये देश का अभ्युदय भी किया था ।फिर क्यों इन तीनों बलों के मुखियायों को किसी राजनीतिक और राजनयिक पद से वंचित किया गया ।बेशक जनरल मानेकशा को फ़ील्ड मार्शल बनाकर उनकी सेवाओं का सम्मान किया गया लेकिन बाकी दोनों प्रमुखों और पाकिस्तानी सेना प्रमुख एएके नियाज़ी से आत्मसमर्पण कराने वाले लेफ्टिनेंट जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा की क्यों उपेक्षा की गयी यह समझ से बाहर है । इन सशस्त्र सेना प्रमुखों से पहले और उनके बाद किस प्रकार से जनरलों को सम्मानित किया गया उसका मोटा व्यौरा कुछ इस प्रकार है: सियालकोट में फिलोर की लड़ाई का नेतृत्व मेजर जनरल राजिंदर सिंह की बख्तरबंद डिवीज़न पाकिस्तान की छठी बख्तरबंद डिवीज़न से भिड़ गयी और फिलोरा की लड़ाई में सफलता प्राप्त की । इस लड़ाई में पाकिस्तान ने 66 पैटन टैंक खो दिए जबकि भारत ने केवल 6 खोये । ‘सैपरो’ नाम से विख्यात मेजर जनरल राजिंदर सिंह ‘स्पैरो’ 26 सितम्बर, 1966 को सेवानिवृत हुए और उन्होंने राजनीति में प्रवेश कर लिया ।1967 में पंजाब में अकाली नेता जस्टिस गुरनाम सिंह की मिलीजुली सरकार में मंत्री बने ।बाद में कांग्रेस में शामिल हो गये ।उन्होंने 1980 में जालंधर से लोकसभा चुनाव लड़ा और वह जीत गये ।1985 का चुनाव भी वह जीते थे । मई 1994 में 83 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया ।
इसी तरह के कुछ और दिलचस्प आंकड़े हैं ।1962 में भारत-चीन युद्ध के समय सेना प्रमुख रहे प्राणनाथ थापर (23 मई, 1906-23 जून,1975) ने भारतीय सेना के खराब प्रदर्शन से इस्तीफा दे दिया और उनके स्थान पर लेफ्टिनेंट जनरल जंयतो नाथ चौधरी (10 जून,1908-6 अप्रैल, 1983) सेना प्रमुख बने ।लेकिन जनरल थापर को अफगानिस्तान में भारत का राजदूत
नियुक्त किया गया (अगस्त, 1964-1जनवरी,1969)। जनरल थापर पत्रकार करण थापर के पिता हैं । जनरल एस एम श्रीनागेश भारत के दूसरे सेनाध्यक्ष थे ।सेवानिवृत होने के बाद उन्हें असम, आंध्रप्रदेश और मैसूर के राज्यपाल के पदों पर नियुक्त किया गया ।जनरल के एस थिमैया को जुलाई,1964 से दिसंबर, 1965 तक साइप्रेस में संयुक्तराष्ट्र शांति सेना का कमांडर नियुक्त किया गया । जनरल मानेकशा से पहले तथा जनरल थापर के उत्तराधिकारी जनरल जे.एन. चौधरी 1965 में भारत-पाकिस्तान के समय सेना प्रमुख थे। सेवानिवृत होने के बाद उन्हें कनाडा में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त किया गया जहां वह जुलाई,1966 से अगस्त, 1969 तक रहे । जनरल मानेकशा के बाद सेनाध्यक्ष बने जनरल गोपाल गुरुनाथ बेवूर को सेवानिवृत होने के बाद डेनमार्क में भारत का राजदूत बनाकर भेजा गया जहां वह फरवरी,1976 से फरवरी, 1978 तक रहे ।जनरल टी.एन. रैना को भी सेवानिवृत होने के बाद कनाडा में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त किया गया जहां वह फरवरी,1979 से मई,1980 तक रहे । जनरल ओमप्रकाश मल्होत्रा को ही लीजिए वह पहले इंडोनेशिया में भारत के राजदूत (1981-1984) रहे और बाद में पंजाब के राज्यपाल के साथ चंडीगढ़ के प्रशासक भी रहे 1990-1991 में ।जनरल केवी कृष्ण राव तो सेवा निवृति के बाद पहले त्रिपुरा,नगालैंड और मणिपुर के राज्यपाल (13 जून, 1984-19 जुलाई,1989) रहे और उसके बाद उन्हें जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया जहां वह 12 मार्च,1993 से 2 मई,1999 तक रहे ।जनरल एस एफ रोड्रिग्स सेवा निवृत होने के बाद 16 नवंबर,2004 से 22 जनवरी,2010 तक पंजाब के राज्यपाल और चंडीगढ़ के प्रशासक रहे। जनरल शंकर राय चौधरी राज्यसभा के सदस्य चुने गये । जनरल जे जे सिंह को सेवानिवृत होने के बाद अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल (26 जनवरी,2008-28 मई, 2013) बनाया गया। उनके उत्तराधिकारी जनरल वी के सिंह ने 2014 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर गाज़ियाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता, 2019 में भी वह जीते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के कई मंत्रलायों में राज्य मंत्री रहे।इनमें विदेश मंत्रालय भी शामिल है ।वर्तमान में वह मिज़ोरम के राज्यपाल हैं ।
1965 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध में वायुसेना की महती भूमिका रही ।उस समय एयर चीफ़ मार्शल अर्जन सिंह थे जो अपनी निर्भीकता के लिए जाने जाते थे ।वह तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की आंख और कान थे वैसे ही जैसे 1971 में जनरल मानेकशा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के थे ।अर्जन सिंह 19 वर्ष की उम्र में रॉयल एयर फोर्स कॉलेज कैंनवल में दाखिला ले 1939 में स्नातक बन गये ।उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में भी भाग लिया और 1947 में विभाजन के बाद लाल किले के ऊपर रॉयल इंडियन एयर फोर्स विमान के पहले फ़्लाई पास्ट का नेतृत्व किया ।वह दिलेर और निडर उड़ाके थे और हर उपलब्ध लड़ाकू विमान को उड़ाने की क्षमता रखते थे ।1 अगस्त,1964 को वायुसेना प्रमुख का पदभार संभालने के बाद उनकी पहली कड़ी परीक्षा 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान थी ।
उस समय भारतीय वायुसेना में बड़ी संख्या में हॉकर हंटर्स, स्वदेशी फोलैंड नैट, डी हैवीलैंड वैम्पायर, कैंबरा और मिग-21विमानों की एक स्क्वाड्रन थी जबकि पाकिस्तान के पास अमेरिकी विमान एफ-8एफ सेबर, 104स्टार फाइटर के साथ बी-57 कैंबरा बमवर्षक शामिल थे । हमारे पास ब्रिटिश, रूसी और स्वदेशी विमान थे जबकि पाकिस्तान के पास आधुनिक अमेरिकी विमान थे ।पाकिस्तान का दावा था कि संख्या के लिहाज़ से वह हम से बहुत आगे है 5:1 के आसपास । एयर चीफ़ मार्शल अर्जन सिंह से मेरी खासी मुलाकातें थीं उनके घर कौटिल्य मार्ग, चाणक्यपुरी से लेकर उनके कई दफ्तरों तक ।जब वह 1965 के भारत पाकिस्तान युद्घ में वायुसेना की भूमिका का उल्लेख करते तो ऐसा लगता मानो वह फिर से आसमान में उड़ कर दुश्मनों के ठिकानों को नष्ट कर रहे हैं ।वह गर्व से कहा करते थे ‘हमारे नैट ने तो उनके छ्क्के छुड़ा दिए थे ।मैं क्योंकि नेतृत्व कर रहा था मेरे हाथ में जो भी विमान आता वह ले उड़ता लेकिन मुझे छोटा सा नैट बहुत पसंद था ।’
एयर चीफ़ मार्शल अर्जन सिंह ने एक बार मुझसे पूछा कि क्या आपने चकलाला और सरगोधा का नाम सुना है ? मैंने हामी भरते हुए कहा कि चकलाला तो रावलपिंडी के पास है जहां का मैं रहने वाला हूं ।वहां तो हवाई अड्डा होता था ।रावलपिंडी से जब हम अपने गांव फालिया जाते थे तो रास्ते में हमें लालामूसा उतर कर सरगोधा जाने वाली ट्रेन पकड़नी होती थी ।हम लोग मंडी बहावलद्दीन उतर जाते थे । इस तरह से हमने सरगोधा का नाम जाना ।अब एयर चीफ़ मार्शल अर्जन सिंह ने मुझे समझाते हुए कहा कि मैंने अपने नैट से इन दोनों एयरबेस को नष्ट कर दिया था ।बेशक पाकिस्तान के पास आधुनिक अमेरिकी लड़ाकू विमान थे लेकिन हौसले भारतीय हवाबाज़ों के बुलंद थे ।वायुसेना ने सिर्फ पंजाब में ही नहीं राजस्थान में भी थल सैनिकों के साथ तालमेल करके पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर उनकी कब्र खोद दी । हम लोगों ने पाकिस्तानी सशस्त्र बलों को पस्त और त्रस्त कर दिया था ।उनकी हालत यह थी कि अपने आसमान पर नैट को चक्कर लगाते देखकर घबरा जाया करते थे ।
एयर मार्शल से एयर चीफ़ मार्शल बनने वाले अर्जन सिंह पहले व्यक्ति थे । पहले यह सीएएस पद कहलाता था लेकिन 15 जनवरी,1966 को भारतीय वायुसेना के योगदान को मान्यता देते हुए इस पद को एयर चीफ़ मार्शल के पद पर उन्नत किया गया ।एयर चीफ़ मार्शल का पद धारण करने वाले अर्जन सिंह पहले अधिकारी थे ।वह देश के तीसरे वायु सेनाध्यक्ष थे (1 अगस्त,1964-15 जुलाई,1969) उनके बाद ही यह नया पद नाम उनके उत्तराधिकारियों को मिला ।पहले वायुसेनाध्य्क्ष थे सुब्रोतो मुखर्जी (5 मार्च,1911-8 नवंबर 1960)। उन्हें ‘भारतीय वायुसेना का जनक’ कहा जाता है। वह 1 अप्रैल, 1954 से 8 नवंबर, 1960 तक वायु सेनाध्य्क्ष रहे। टोक्यो (जापान) में उनका असामयिक निधन हो गया ।जन्म से बंगला सुब्रोतो मुखर्जी ने 1939 में एक प्रतिष्ठित महाराष्ट्रीयन शारदा पंडित से विवाह किया । रंजीत पंडित उनके चाचा थे जिन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित से शादी की थी । अपने पति के निधन के बाद शारदा मुखर्जी सामाजिक कार्यों में जुट गयीं ।कांग्रेस पार्टी ने उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लेने के लिए कहा ।लिहाजा उन्होंने 1962 में रत्नागिरी से लोकसभा का चुनाव लड़कर जीत हासिल की । वह लोकसभा की सदस्य 2 अप्रैल,1962 से 18 मार्च,1971 तक रहीं । इसलिए मैं उन्हें जानता था ।वह बहुत ही ज़हीन महिला थीं ।उन्हें हम लोग दीदी कहकर संबोधित किया करते थे ।वह 5 मई,1977 से 14 अगस्त,1978 तक आंध्रप्रदेश की राज्यपाल रहीं और उसके बाद गुजरात की 14 अगस्त,1978 से
6 अगस्त,1983 तक।दोनों ही राज्यों में वह पहली महिला राज्यपाल थीं ।
दूसरे वायुसेनाध्य्क्ष एस पी इंजीनियर थे जो 1 दिसंबर,1960 से 31 जुलाई,1964 तक अपने पद पर रहे ।सेवा निवृत होने के बाद उन्हें ईरान में भारत का राजदूत (6 दिसंबर,1964-6 दिसंबर,1966) नियुक्त किया गया ।एयर चीफ़ मार्शल पी सी लाल को तो कोई राजनयिक या राजनीतिक पद नहीं मिला लेकिन उनके उत्तराधिकारी ओमप्रकाश मेहरा पर केंद्र सरकार कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो गयी ।सेवा निवृत होने के बाद उन्हें महाराष्ट्र का राज्यपाल (3 नवंबर,1980-5 मार्च,1982), राजस्थान का राज्यपाल (6 मार्च,1982-4 जनवरी, 1985) बनाया गया ।इससे पहले उन्हें 1975-80 तक भारतीय ओलिंपिक संघ का
पांचवां अध्यक्ष बनाया गया था । एयर चीफ़ मार्शल इदरीस हसन लतीफ़ सेवा निवृति के बाद पहले महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे (6 मार्च, 1982-16 अप्रैल,1985) और उसके बाद फ्रांस में भारत के राजदूत रहे (अप्रैल,1985-अगस्त,1988) ।एयर चीफ़ मार्शल दिलबाग सिंह को सेवा निवृति के बाद 1985 से 1987 तक ब्राज़ील में भारत का राजदूत बनाकर भेजा गया ।
लेकिन भारतीय वायुसेना के मार्शल अभी तक अकेले अर्जन सिंह ही हैं । 23 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रपति भवन में एक विशिष्ट समारोह में राष्ट्रपति के.आर.नारायण ने भारतीय वायुसेना के मार्शल को फाइव स्टार रैंक का बैटन सौंपा ।यह पद थलसेना के फ़ील्ड मार्शल के समकक्ष होता है यानी पांच सितारा अफसर ।जब तक ये पांच सितारा अफसर जीते रहते हैं उन्हें पूरा वेतन मिलता है ।थलसेना में हालांकि पहले फ़ील्ड मार्शल मानेकशा थे लेकिन उनके साथ पुराने सेना प्रमुख के.एम. करियप्पा (15 जनवरी,1949-14 जनवरी,1953, तब कमांडर-इन-चीफ़ कहलाते थे) को भी जोड़ दिया गया ।उन्हें 15 जनवरी,1986 को फ़ील्ड मार्शल का पद प्रदान किया गया ।सेवा निवृति के बाद उन्हें ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का उच्चायुक्त (1954-1956) नियुक्त किया गया ।लेकिन वायुसेना में अर्जन सिंह अकेले मार्शल हैं ।मार्शल अर्जन सिंह को सेवा निवृति के बाद राजनयिक और राजनीतिक पदों से सम्मानित किया गया । मार्च,1971 से 26 मार्च,1974 तक वह स्विट्ज़रलैंड, होली सी और लिकटेंस्टीन में भारत के राजदूत रहे। 1974 से 1977 तक केन्या में भारत के उच्चायुक्त रहे तथा 12 दिसंबर,1989 से दिसंबर, 1990 तक दिल्ली के उपराज्यपाल रहे ।
जैसा मैंने कहा कि मुझे मार्शल अर्जन सिंह से मिलने में कभी दिक्कत पेश नहीं आयी। अप्रैल,1988 में मेरे बड़े बेटे मनदीप सिंह की शादी का रिसेप्शन था ।मेरी पत्नी और मैं मार्शल अर्जन सिंह को आमंत्रित करने के लिए गये । हमारा निमंत्रण स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि वह ज़रूर आकर नवदंपति को आशीर्वाद देंगे ।वह और राव वीरेंद्र सिंह साथ साथ ही पहुंचे ।राव वीरेंद्र सिंह से भी मेरे बहुत आत्मीय संबंध थे ।मार्शल अर्जन सिंह बहुत देर तक रुके ।समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधि उनसे मिलने के लिए आ रहे थे ।वह ताउम्र सेलिब्रिटी रहे ।
ऐसे ही 1990 में मैं मार्शल अर्जन सिंह से एक बार राजनिवास में मिला ।उन दिनों वह दिल्ली के उपराज्यपाल थे । ‘संडे मेल’ (साप्ताहिक) का प्रकाशन तो दिसंबर, 1989 में शुरू हो गया था लेकिन उसका विधिवत लोकार्पण नहीं हुआ था ।लिहाजा उस समय हमें दिल्ली के उपराज्यपाल से माकूल दूसरा कोई नेता नहीं लगा ।जब मार्शल अर्जन सिंह से मिलकर मैंने उन्हें ‘संडे मेल’ के बारे में पूरी जानकारी दी तो उन्होंने मुझे बधाई देते हुए कहा कि मैं ज़रूर आऊंगा ।साथ में मैं ‘संडे मेल’ का ताज़ा अंक भी ले गया था जिसे उन्होंने उलट पलट कर देखा और साथ की पत्रिका को भी ।पूछा कि यह पत्रिका पेपर के साथ मुफ्त में देते हैं क्या!मैंने कहा,’जी हां ।’ मार्शल अर्जन सिंह वक़्त पर हयात रीजेंसी होटल पहुंच गये ।उन्होंने लोकार्पण की औपचारिकता पूरी की ।’संडे मेल’ के मालिक समाजसेवी उद्यमी संजय डालमिया, उनके भाई अनुराग डालमिया, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड,पूर्व केंद्रीय मंत्री वसंत साठे,नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर, कार्यकारी संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह, स्टेस्मैन के पूर्व संपादक एस. निहाल सिंह,’रविवार’ के संपादक उदयन शर्मा, सारिका के संपादक अवध नारायण मुद्गल, ‘संडे मेल’ के प्रधान संपादक डॉ कन्हैयालाल नंदन सहित ‘संडे मेल’ के सहयोगियों समेत बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे । मार्शल अर्जन सिंह का आकर्षक व्यक्तित्व सभी को अपनी ओर खींच रहा था ।कुछ पत्रकारों ने तो दिल्ली की समस्याओं पर उनसे छोटा मोटा इंटरव्यू भी कर लिया था।
15 अप्रैल, 1919 में लायलपुर (पाकिस्तान ने उसका नाम बदलकर फैसलाबाद कर दिया है) में एक पंजाबी जाट सिख परिवार में जन्मे अर्जन सिंह अपने परिवार की चौथी पीढ़ी में आते हैं जिनके पिता,दादा और परदाता ने फौज में ही अपना जीवन होम दिया था । पिता एक रिसालदार थे, दादा रिसालदार मेजर और परदादा नायब रिसालदार ।1879 के अफगान युद्ध में वह शहीद हो गए थे ।सेना के निचले और मध्यम रैंक में सेवा करने वाले पुरुषों की तीन पीढ़ियों के बाद अर्जन सिंह एक कमीशन अधिकारी बनने वाले अपने परिवार के पहले सदस्य थे ।अर्जन सिंह की शिक्षा मिंटगुमरी (लोकसभा के पूर्व स्पीकर सरदार हुकम सिंह का 1895 में यहां जन्म हुआ था) में हुई ।उसके बाद गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में शिक्षा प्राप्त की ।उनकी खेलों में भी बहुत रुचि थी ।कॉलेज में अर्जन सिंह तैराकी, एथलेटिक और हॉकी की टीमों के उपकप्तान थे।अविभाजित भारत में वह कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे ।द्वितीय विश्वयुद्ध में भी भाग लिया ।लगभग पांच वर्षों तक भारतीय वायुसेना का नेतृत्व करने के बाद 1969 में 50 साल की उम्र में सेवानिवृत हुए ।वायुसेना के इतिहास में वायुसेना प्रमुख के रूप में मार्शल अर्जन सिंह का दूसरा सबसे लंबा कार्यकाल था ।
जैसा हमने कहा कि सेवानिवृति के बाद भी मार्शल अर्जन सिंह बहुत सक्रिय रहे । एक बार इम्पीरियल होटल में उस समय उनसे मुलाकात हुई जब वह जनरल जे जे सिंह की पुस्तक ‘एक सैनिक का जनरल’ का लोकार्पण करने आये थे ।क्योंकि मैं भी सक्रिय पत्रकारिता से अवकाश प्राप्त कर चुका था तो मार्शल अर्जन सिंह से भेंट किसी न किसी समारोह में ही हो पाती थी ।उनका स्नेह मुझे निरंतर मिलता रहा ।जीवन के अंतिम वर्षों में उनकी तबियत कुछ नरम रहने लगी थी ।16 सितम्बर,2017 को दिल का दौरा उनके लिए जानलेवा साबित हुआ । मार्शल अर्जन सिंह 98 साल के थे ।उनके निधन के बाद उनका पार्थिव शरीर 7ए कौटिल्य मार्ग स्थित उनके घर पर रखा गया जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, तत्कालीन रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण और भारतीय सशस्त्र सेनाओं के तीनों सेना प्रमुख तथा अनेक गणमान्य लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी ।18 सितम्बर को भारत सरकार द्वारा पूरे राजकीय सम्मान के साथ मार्शल अर्जन सिंह का अंतिम संस्कार किया गया ।इसमें भारतीय वायुसेना के लड़ाकू जेट और हेलीकाप्टरो द्वारा सैन्य फ़्लाईपास्ट द्वारा श्रद्धांजलि दी गयी ।
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