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बिहार चुनाव 2025  | Pavitra India

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बिहार के चुनाव परिणाम जिस सुस्त, धुंधले नवंबर की सुबह खुलने शुरू हुए, उसी क्षण से यह साफ़ होने लगा था कि यह सिर्फ़ एक हार-जीत का खेल नहीं है; यह राज्य की मन:स्थिति का वह आइना है जिसमें राजनीति के सारे छल, सारे वादे और सारे भय बिना धूल के दिखने लगते हैं। ईवीएम के उन ठंडे अंकों में न सिर्फ़ राजनीतिक गठबंधनों का भविष्य दर्ज था, बल्कि बिहार के मतदाता के बदलते मानस की छिपी परतें भी थीं।वे परतें, जिन्हें शायद महागठबंधन समझ नहीं पाया और एनडीए ने चुपचाप पढ़ लिया।

सुबह छह बजे जब पहले रुझान आए, राजद कार्यालय में उम्मीदें हवा में तैर रही थीं। पीले रंग की इमारत के बाहर जुटी भीड़ को लग रहा था कि तेजस्वी की मेहनत रंग लाएगी। उनके कस्बों, शहरों, देहातों में फैले भाषणों की तपिश अभी भी लोगों की स्मृति में थी। अधिकार यात्रा के समय लोगों की आँखों में चमक थी। यह चमक कि शायद इस बार कोई नया अध्याय खुलेगा। लेकिन जैसे-जैसे घंटे आगे बढ़ते गए, यह चमक एक बेचैन, चुप्पी भरे डर में बदलने लगी।

यह वही डर था जो महीनों पहले चुनाव की हवा में उड़ रहा था।वह डर, जिसे एनडीए ने बहुत धीरे-धीरे बूथ तक पहुँचाया था। ‘जंगलराज’ का वह पुराना, धुंधला हो चुका मुहावरा फिर एक बार धूल झाड़कर मतदाताओं के मानस में डाल दिया गया। कई युवा तो शायद उस दौर को जानते भी नहीं, लेकिन प्रचार ने उन सबके मन में एक कहानी उकेर दी।एक कहानी कि अगर सत्ता बदली, तो शायद स्थिरता भी खो जाएगी। बिहार का मतदाता स्थिरता से डरता नहीं, पर अस्थिरता से थरथरा उठता है।

इस चुनाव में महागठबंधन का संघर्ष यहीं से शुरू होता है।

तेजस्वी यादव की छवि एक युवा, शांत, नए युग के नेता की थी। वे मंच पर संयमित रहते, विरोधियों को चुनौती भी देते लेकिन भाषा में तीखापन नहीं लाते। उनके चेहरे पर वह साफ़-सुथरी राजनीतिक ऊर्जा थी जिसमें युवाओं को भविष्य दिखता है। लेकिन राजनीति केवल चेहरों से नहीं जीती जाती। चेहरों के पीछे खड़ी मशीनरी का दम होना चाहिए।वह मशीनरी जो हर दरवाज़े तक पहुँच सके, जो हर फोन पर उपलब्ध हो, जो हर बूथ पर सुबह से शाम तक जमी रहे। और यही वह बिंदु था जहाँ महागठबंधन की आंधी, एनडीए की अदृश्य जकड़न से हार गई।

महागठबंधन के बड़े रणनीतिकार मान रहे थे कि लोकसभा में 10 सीटें जीत लेने के बाद विधानसभा में 60 के आसपास पहुँच जाना कोई मुश्किल काम नहीं होना चाहिए। यह चुनावी गणित, यह हवा, यह मीटिंगें सभी कुछ यही संकेत दे रहे थे कि माहौल विपक्ष के पक्ष में है। बिहार के गाँवों में घूमने वाले पत्रकारों को लोकसभा के बाद यह लगता था कि जनता बदलाव चाहती है। बेरोज़गारी की शिकायतें थीं, महंगाई का दर्द था, और महिलाओं का डर था कि सुरक्षा से समझौता न हो। यह एक ऐसा मिश्रण था जो किसी भी सरकार के खिलाफ़ जाता है। पर बिहार में कहानी कभी सीधी नहीं होती। यहाँ राजनीति रस्सी पर चलने जैसा है, संतुलन ज़रा बिगड़ा नहीं कि पूरा ढाँचा गिर गया।

महागठबंधन ने उस संतुलन को समझने में गलती की।

राहुल गांधी की ‘वोट चोरी यात्रा’ ने बिहार में अपनी एक अनोखी गूँज पैदा की थी। 25 जिलों से गुजरती हुई, 110 विधानसभा सीटों को छूती हुई, 1300 किलोमीटर लंबी इस यात्रा ने कांग्रेस को एक बार फिर सक्रिय दिखाया। राहुल की सभाओं में भीड़ आती थी, युवा नारे लगाते थे, महिलाओं की संख्या भी बढ़ी थी। लेकिन यात्रा का प्रभाव वह नहीं बना जो प्रभाव एक चुनावी लहर बनाता है।

लोग राहुल को सुनते तो थे, पर उन्हें अपने बीच का नहीं मानते थे। उनकी आवाज़ में जो चिंता थी, वह असली थी, पर राजनीति में असली चीज़ें भी असर तभी करती हैं जब उनमें निरंतरता हो। राहुल आते थे, बोलते थे, चले जाते थे। बिहार जैसे राज्य में, जहाँ चुनाव का आधा असर जनता के साथ ‘सतत उपस्थिति’ से बनता है, वह उपस्थिति कांग्रेस दे नहीं पाई।

राजद और कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने दायरों में कैम्पेन कर रहे थे, पर उनके बीच वह समन्वय नहीं था जो दिखना चाहिए था। सीट बंटवारे ने एक और दरार पैदा कर दी। कई जगहों पर कांग्रेस को उसके अपेक्षा से कम सीटें मिलीं, कई जगहों पर राजद नेताओं को लगा कि कांग्रेस कमजोर सीटें लेकर बोझ बढ़ा रही है। यह तनाव ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं तक पहुंचा, जिसने साझी लड़ाई की एकता को कमज़ोर कर दिया।

एनडीए ने इसके मुकाबले एकदम सटीक संयम रखा। वहाँ सीट बंटवारे पर न कोई सार्वजनिक नाराज़गी, न पोस्टर युद्ध, न बगावत सब कुछ असामान्य रूप से शांत। यह शांत वातावरण मतदाता के लिए ‘स्थिरता’ का संकेत था। कई क्षेत्रों में पत्रकारों ने पाया कि लोग कहते हैं, “इनका घर में झगड़ा नहीं है, तो सरकार भी स्थिर होगी।” राजनीति में यह बारीक संकेत बहुत मायने रखते हैं।

महागठबंधन को इस संकेत की गंभीरता समझ नहीं आई।

तेजस्वी यादव की हर सभा में भारी भीड़ इकट्ठा हो रही थी। युवा लड़के उनकी गाड़ियों के पीछे दौड़ते थे, महिलाएँ उनके भाषण में उत्साह से सिर हिलाती थीं, बुजुर्ग कहते थे कि लड़का ठीक है। पर समस्या यह थी कि तेजस्वी का भाषण हर सभा में लगभग समान रहता था—बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, और विकास के वादे। इन विषयों पर वे बात करते तो साफ़, पर विस्तार में नहीं जाते। बिहार का मतदाता विस्तार चाहता है। वह जानना चाहता है कि नौकरी आएगी कैसे। शिक्षकों की भर्ती होगी कैसे। स्वास्थ्य तंत्र सुधरेगा कैसे।

तेजस्वी यह सब कहते-कहते आगे बढ़ जाते थे, यह जल्दबाज़ी मतदाता को खटकती थी।

उनकी अधिकार यात्रा अपनी जगह शानदार थी। यात्रा के दौरान लोग उन्हें देखकर उत्साहित होते, कुछ महिलाएँ बच्चों को गोद में लेकर उनके सामने खड़ी हो जातीं, कई बूढ़े किसान उनसे हाथ मिलाने की कोशिश करते। उस यात्रा में ‘राजनीतिक संवेदना’ थी। लेकिन यात्रा के बाद जो संगठनात्मक ढाँचा उस संवेदना को वोट में बदलना चाहिए था, वह ढाँचा उतना सशक्त नहीं था।

महागठबंधन की अंदरूनी कमजोरी यहाँ साफ़ उभरती है।

इसके विपरीत, भाजपा का बूथ स्तर पर काम बेहद संगठित था। उनके ‘पन्ना प्रमुख’ सिस्टम ने हर मोहल्ले, हर टोले तक उनकी उपस्थिति कायम रखी। चुनाव में कौन किस परिवार को प्रभावित कर रहा है, किस बूथ पर दलित वोट खिसक रहे हैं, किस इलाके में राजपूतों में असंतोष है, किस गाँव में यादवों के बीच दुविधा है। इन सबकी जानकारी भाजपा के पास थी, लगातार अपडेटेड। यह वही मशीनरी है जो चुनाव जीतने के लिए असली हथियार होती है।

महागठबंधन के पास यह सूक्ष्म जानकारी का नेटवर्क कमज़ोर था।

भारत के कई राज्यों में एक दिलचस्प बात देखी जाती है। विपक्ष जितनी भीड़ जुटा ले, जब तक उसके पास बूथ-स्तर की मशीनरी नहीं होती, वह भीड़ वोट में नहीं बदलती। बिहार इसका सबसे बड़ा उदाहरण बन गया।

इसी बीच, एक और बात जिसने महागठबंधन को भारी नुकसान पहुंचाया, वह था उसके समर्थकों का व्यवहार। तेजस्वी तो सभ्य भाषा में बोलते थे, लेकिन कई स्थानीय स्तर के कार्यकर्ता, खासकर युवा नेता, पुराने राजद वाले अंदाज़ में व्यवहार करने लगे। कहीं रोड शो में बदतमीज़ी, कहीं विरोधियों को धमकाने जैसी घटनाएँ, कहीं सोशल मीडिया पर घमंड भरी पोस्ट इन सबने एनडीए के आरोपों को जस्टिफाई कर दिया कि ‘सत्ता मिली तो जंगलराज आएगा।’

बिहार में वोटर बहुत संवेदनशील है। वह चेहरे से ज़्यादा व्यवहार देखता है। और यही व्यवहार महागठबंधन को नुकसान दे गया।

चुनावी मौसम के दौरान जिस तरह गांवों की पगडंडियों पर चर्चाएँ बदल रही थीं, वह महागठबंधन के लिए चेतावनी थी, लेकिन शायद उन्होंने उसे सुनने की कोशिश नहीं की। एक तरफ जहां तेजस्वी और राहुल की यात्राओं से एक राजनीतिक माहौल बन रहा था, वहीं दूसरी तरफ एनडीए की टीम गांवों में चुपचाप उन कमजोर बिंदुओं को पकड़ रही थी, जहाँ महागठबंधन की पकड़ ढीली थी। यह चुनावी लय किसी को दिखाई नहीं दे रही थी, लेकिन उसका असर धीरे-धीरे जड़ पकड़ रहा था।

कई गांवों में महिलाओं ने साफ कहा था कि वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहतीं। तेजस्वी और राहुल के वादों में उन्हें उम्मीद तो दिखती थी, लेकिन सुरक्षा और स्थिरता का भाव नहीं। महिलाओं ने यह भी कहा कि हर बार चुनाव में बड़े वादे सुनकर वे थक चुकी हैं।वे अब सिर्फ यह देखना चाहती हैं कि घर सुरक्षित रहे, रात में सड़कें शांत रहें, और बच्चों के स्कूल जाने में कोई रुकावट न हो। महागठबंधन ने महिलाओं के लिए योजनाएँ ज़रूर बनाई थीं, पर योजनाएँ वही असर नहीं डाल पाईं, जो मतदाता के वास्तविक डर को कम कर पातीं।

बिहार में महिलाओं की भागीदारी किसी भी चुनाव का निर्णायक हिस्सा होती है। इस बार भी महिलाएँ भारी संख्या में वोट डालने पहुँचीं। लेकिन जिस तरह चुनावी समीकरण बने, उससे लगा कि उनका वोट बड़ी मजबूती से एनडीए के पक्ष में गया। यह बात महागठबंधन ने देर से समझी कि महिलाओं का यह भरोसा,स्थिरता और सुरक्षा पर उनके खिलाफ़ चला गया।

राहुल की वोट चोरी  यात्रा अपने आप में बड़ी थी, पर वह एक ‘लंबी लड़ाई’ की शुरुआत नहीं बन सकी। यात्रा के दौरान राहुल गांधी के मंचों पर ताली बजाने वाले हजारों लोग थे, पर चुनाव परिणामों में उस ताली की गूंज नहीं सुनाई दी। बिहार का मतदाता यह सवाल पूछ रहा था कि क्या ये यात्राएँ चुनाव के कुछ महीने पहले की राजनीतिक घटनाएँ थीं या यह किसी लंबे संघर्ष की रणनीति है?

विपक्ष का सबसे बड़ा संकट यही था। वे विश्वास जगा नहीं सके कि यह लड़ाई केवल सत्ता पाने की नहीं, बल्कि सत्ता बदलने की है।

तेजस्वी यादव की अधिकार यात्रा में जोश था। युवाओं के चेहरे पर उम्मीद थी। यह यात्रा कई बार उस पुरानी याद को जगाती थी कि बिहार एक युवा मुख्यमंत्री को स्वीकार कर सकता है, जैसे एक वक्त युवा नीतीश को किया था। लेकिन तेजस्वी के सामने समस्या यह थी कि वे अपने पूरे गठबंधन को एक सूत्र में नहीं बाँध पाए।

राजद की जातीय पकड़ मजबूत थी, पर बिहार 2025 में सिर्फ जातीय समीकरणों से नहीं चलता। EBC, OBC, SC, ST और अल्पसंख्यक वोट का एक बड़ा हिस्सा अभी भी नए पटरी पर चलते विकास और स्थिरता के मुद्दों को प्राथमिकता दे रहा है। महागठबंधन जातिवाद के आरोप से बाहर निकलने में जितना संघर्ष कर रहा था, उतना ही वह जातियों के जोड़-तोड़ में उलझता भी जा रहा था। यह एक विरोधाभास था, जिसे मतदाता ने महसूस किया।

इधर एनडीए इस सवाल का जवाब बहुत साफ़-सुथरे ढंग से दे रहा था। उनका प्रचार कह रहा था कि विकास वही कर सकता है जो सत्ता में स्थिर है। कानून-व्यवस्था वही संभाल सकता है जो राज्य को लंबे समय से चला रहा है। और बिहार के गांवों में यह संदेश बहुत गहराई से बैठ गया था।

साथ ही, पीएम मोदी का चेहरा इस चुनाव में निर्णायक भूमिका निभा रहा था। बिहार में एक सामान्य भावना यह है कि राज्य चाहे किसी भी दल को चुने, लेकिन केंद्र में प्रभावशाली नेतृत्व के साथ तालमेल बनाए रखना जरूरी है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में यह भी सुना गया कि लोग कहते थे।“जो सरकार केंद्र में है, वही राज्य को पैसे देती है।” यह असलियत चाहे राजनीतिक मायने में जटिल हो, लेकिन अधिकांश वोटरों की नज़र में यह एक सीधी, सरल बात थी।

महागठबंधन का यह भी दुर्भाग्य रहा कि वह भाजपा के प्रचार की धार को काट नहीं पाया। हर इलाके में भाजपा के कार्यकर्ता यह बात फैला रहे थे कि ‘अगर महागठबंधन आया तो फिर वही पुराने दिन लौट आएंगे।’

राजद ने इसे चुनौती दी, लेकिन जमीनी स्तर पर इसका बचाव करने के लिए वे उतना मजबूत संदेश नहीं दे सके।

जब जंगलराज का आरोप बार-बार दोहराया जाता है, और उसके खिलाफ़ आपका प्रत्युत्तर कमजोर पड़ जाता है, तो मतदाता की सोच पर उसका असर पड़ता है।

यही महागठबंधन की सबसे भारी चूक थी।

इसके अलावा सीट बंटवारे को लेकर जो मनमुटाव था, उसने कार्यकर्ताओं को भीतर से कमजोर कर दिया। कांग्रेस के कई परंपरागत क्षेत्रों में राजद के युवा समर्थक सक्रिय नहीं दिखे। राजद की मजबूत सीटों पर कांग्रेस के कार्यकर्ता उतने उत्साहित नहीं थे। महागठबंधन का यह ढीला जोड़ चुनावी मैदान में बिखर गया।

इस चुनाव में एक और दिलचस्प बात दिखाई दी—युवाओं की मानसिकता।

वे बदलाव चाहते थे, लेकिन अनिश्चित बदलाव नहीं।

वे नौकरी चाहते थे, पर नौकरी देने वाले तंत्र की स्थिरता भी चाहते थे।

वे वादे सुनना चाहते थे, पर वादों के पीछे की ईमानदारी भी देखना चाहते थे।

तेजस्वी ने नौकरी देने का बड़ा वादा किया था, पर युवाओं के बड़े हिस्से ने इस वादे पर भरोसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें लगा कि राजद की सरकार में नियुक्तियाँ घोटाले में फँस सकती हैं या प्रक्रिया धीमी हो सकती है। यह डर किसी बड़े प्रचार का हिस्सा नहीं था। यह बिहार की राजनीतिक स्मृति का हिस्सा था।

इधर भाजपा ने नौकरी का वादा नहीं किया, पर स्थिरता का वादा किया। और बिहार जैसे राज्य में स्थिरता एक बड़ी राजनीतिक मुद्रा होती है।

यही कारण है कि चुनाव के आखिरी हफ्ते में ऐसे मतदाता भी एनडीए की ओर झुकते दिखे, जो पहले महागठबंधन को वोट देने के मुड में थे।

यह झुकाव इतना सूक्ष्म था कि महागठबंधन उसे पढ़ नहीं पाया।

और जब तक पढ़ पाया, तब तक देर हो चुकी थी।

चुनाव परिणामों ने यह साफ कर दिया कि बिहार की राजनीति अब एक नए युग में प्रवेश कर चुकी है—जहाँ जाति की भूमिका बनी रहने वाली है, लेकिन निर्णायक नहीं। जहां नेता की लोकप्रियता मायने रखती है, लेकिन उससे ज्यादा मायने रखता है उसका संगठन। जहां भीड़ जुटाना जरूरी है, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है बूथ संभालना। जहां यात्रा निकालना प्रभावशाली है, लेकिन उससे भी ज्यादा प्रभावशाली है वर्ष भर जनता के बीच रहना।

महागठबंधन ने केवल चुनाव लड़ा।

एनडीए ने पूरा सिस्टम चलाया।

यही वजह है कि दोनों का नतीजा इतना अलग-अलग दिखाई दिया।

चुनाव के बाद जब सन्नाटा छाया, महागठबंधन की हार का सबसे बड़ा दर्द यह था कि वे अपनी ही बढ़त को बरकरार नहीं रख पाए। लोकसभा में मिली 10 सीटें उम्मीद की खिड़की थीं, लेकिन वे खिड़कियाँ विधानसभा में बंद हो गईं। यह विफलता सिर्फ़ राजनीति की विफलता नहीं, रणनीति की विफलता भी थी।

तेजस्वी यादव अपनी मेहनत, अपनी सभाओं, अपने संयमित भाषणों के बावजूद हार गए—क्योंकि उनके पास वह मशीन नहीं थी जो वोट को संभाल सके।

राहुल गांधी यात्रा करके भी प्रभावित नहीं कर पाए—क्योंकि कांग्रेस अपनी जमीनी पकड़ खो चुकी है।

महागठबंधन ने बिहार को कुछ नया देने की कोशिश की,लेकिन बिहार तैयार नहीं था।

यह चुनाव सिर्फ़ यह नहीं बताता कि एनडीए जीता और महागठबंधन हारा।

यह बताता है कि राजनीति केवल भावनाओं का खेल नहीं, यह संगठन, रणनीति, धैर्य और जनमानस की धारणा का खेल है।

यह बताता है कि भीड़ और वोट का रिश्ता बहुत अलग-अलग होता है।

यह बताता है कि बिहार का मतदाता अब पुरानी राजनीति नहीं चाहता।वह स्थिरता के साथ बदलाव चाहता है, पर ऐसा बदलाव जो उसके हर दिन को प्रभावित न कर दे।

महागठबंधन को अब अपने भीतर झांककर यह तय करना होगा कि आगे का रास्ता क्या होगा।

क्या वे उसी पुरानी रणनीति के साथ अगला चुनाव लड़ेंगे?

या एक नई दिशा, नई भाषा और नए संगठन के साथ अपनी लड़ाई दोबारा शुरू करेंगे?

चुनाव परिणाम एक संदेश हैं।

और बिहार ने इस बार बहुत स्पष्ट संदेश दिया है—

कि जूनून से चुनाव जीता जा सकता है,

लेकिन सिर्फ़ जूनून से सत्ता नहीं पाई जा सकती।

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