कहने को मनोहर श्याम जोशी ‘दिनमान’ के संपादक सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय के बाद दूसरे नंबर पर थे और संपादक की अनुपस्थिति में वह ‘दिनमान’ का संपादन किया करते थे लेकिन वात्स्यायन जी उन्हें अपना उत्तराधिकारी नहीं मानते थे ।इस हक़ीक़त से मनोहर श्याम जोशी भी वाकिफ थे।जब मैं ‘दिनमान’ से जुड़ा तो वह सहायक संपादक थे ।एक और सहायक संपादक भी थे जितेंद्र गुप्त। मनोहर श्याम जोशी कभी कभी यह शिकायत किया करते थे कि वह फिल्म्स डिवीजन की क्लास वन गज़टेड ऑफिसर की नौकरी इसलिए छोड़ कर नहीं आये थे कि वात्स्यायन जी के ‘दिनमान’ छोड़ने के बाद उन्हें उनका स्थान प्राप्त नहीं होगा । जोशी जी की इस शिकायत के बारे में जब मैंने अज्ञेय जी से वास्तविकता जानने का प्रयास किया तो पहले उन्होंने मेरे चेहरे की तरफ देखा और फिर बोले,कुछ बातचीत गोपनीय होती है जिनका संबंध दो व्यक्तियों से होता है ।ऐसी बातें सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए ।अब क्योंकि हम दोनों के बीच की बातचीत सार्वजनिक हो गयी है इसलिए मैं स्पष्ट कर दूं कि मैंने कभी भी जोशी जी को यह आश्वासन नहीं दिया था कि ‘दिनमान’ छोड़ने के बाद वह मेरे उत्तराधिकारी होंगे।उन्हें यह बताया गया था कि वर्तमान व्यवस्था में उनकी स्थिति नंबर दो की होगी अर्थात मेरी अनुपस्थिति में वह ‘दिनमान’ का संपादन करेंगे । कालांतर में जोशी जी को पता चला कि अज्ञेय के जेहन में रघुवीरसहाय हैं जो उनके उत्तराधिकारी होंगे। उन दिनों रघुवीरसहाय ‘नवभारत टाइम्स’ में विशेष संवाददाता थे। वात्स्यायन जी ने मुझे बताया कि उन्होंने जोशी जी को पहले दिन ही बता दिया था कि वह ‘दिनमान’ में एक वरिष्ठ पद पर रहेंगे उनके उत्तराधिकारी नहीं । इस वरिष्ठ पद का वह क्या अर्थ लगा बैठे यह वही जानें।
ऐसी और और इस तरह की अन्य कई बातें मैं अज्ञेय जी से तब किया करता था जब वह ‘दिनमान’ छोड़ चुके थे।1980 और उसके बाद उन्होंने मुझे काफी छूट दे रखी थी। मैंने जब यह सवाल पूछा कि मनोहर श्याम जोशी और रघुवीरसहाय दोनों आपके शिष्य रहे हैं आकाशवाणी में फिर यह भेदभाव क्यों ! कोई भेदभाव नहीं ।वात्स्यायन जी ने मुझे बताया था।आप भी शिष्य के फेर में पड़ गये।मैंने न किसी को अपना शिष्य कहा है, न माना है और न ही मैं इसमें विश्वास रखता हूं ।ये दोनों लखनऊ में पढ़े लिखे हैं, दोनों मित्र हैं,कवि हैं,अच्छा लिखते हैं इसलिए वे दोनों ‘प्रतीक’ में प्रकाशित हुआ करते थे,अपनी प्रतिभा के बल पर ।इसी प्रकार जोशी जी ने एक बार कहीं काम करने की इच्छा जताई थी। मैंने उन्हें अमेरिकी सूचना सेवा (यूएसआईएस) में कुछ पुस्तकों का अनुवाद करने का सुझाव दिया ।अमेरिकी सूचना सेवा के एक पांडेय जी हमेशा कहा करते थे कि कुछ अच्छे अनुवादकों के नाम बतायें ।क्योंकि जोशी जी ने काम के लिए कहा था इसलिए उन्हें वहां का अनुवाद करने का सुझाव दे दिया ।लगता है वहां का काम उनकी विचारधारा के विरुद्ध था । इसलिए उन्हें रुचा नहीं और इंकार कर दिया ।मैंने कहा,कोई बात नहीं अगर कहीं ‘और’ काम करने की रुचि हो तो बता दीजिएगा ।कुछ दिनों के बाद मुझे आकाशवाणी के समाचार कक्ष का प्रमुख बनाया गया ।मैंने फिर मनोहर श्याम जोशी से पूछा कि यद्यपि काम आपकी ‘प्रतिभा’ के अनुकूल नहीं फिर भी आप चाहें तो अनुवादक के तौर पर यहां काम कर सकते हैं। और वह मान गये।तब रघुवीरसहाय भी मेरे साथ जुड़े हुए थे।मेरी जानकारी के अनुसार उन दोनों में गहरी दोस्ती थी,यह दुराव क्यों,मेरी समझ से परे था।फिर हंसकर बोले, छोड़िए इन पुरानी बातों को, अब दोनों अपनी अपनी जगह खुश हैं ।
जनवरी, 1966 में मैं जब ‘दिनमान’ से विधिवत जुड़ा तो उसके पहले से मैं मनोहर श्याम जोशी को जानता था ।एक तो उनके फिल्म्स डिवीज़न से जुड़े होने की वजह से और दूसरे रेडियो में उनकी फाकामस्ती की कहानियों के कारण।मैंने भी ‘दिनमान’ में आने से पहले बहुत से रेडियो प्रोग्राम किये थे । इसलिए संपादक सच्चिदानंद वात्स्यायन से विधिवत मिलने के बाद सहायक संपादक मनोहर श्याम जोशी से जब हाथ मिलाया तो उन्होंने घूर कर कुछ यों देखा जैसे कह रहे हों ‘बच्चू आ गये न, अब देखो तुम्हारा कैसे कचूमर निकलता है ।’ उसी कक्ष में दूसरे सहायक संपादक बैठते थे जितेंद्र गुप्त । दोनों से मेरी यह रस्मी मुलाकात थी । सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा आदि बाहर हाल में बैठते थे ।मेरी जगह भी हाल में ही थी ।
मनोहर श्याम जोशी ऐसे सहायक संपादक थे जो अपने कक्ष में बहुत कम बैठते थे ।सुबह वात्स्यायन जी से भेंट करने के बाद सभी साथियों के साथ बैठ कर उनके काम का ब्यौरा लिया करते थे। वह कमोबेश हर विषय की जानकारी रखते थे ।कला, साहित्य,फिल्म, रंगमंच से लेकर विज्ञान और खेल कूद तक ।राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर भी उनकी खासी पकड़ थी ।अंग्रेज़ी के अलावा उनका फ्रेंच भाषा पर भी समान अधिकार था। ‘दिनमान’ में फ्रेंच पेपर ‘ल मांद’ आता था जिसे वात्स्यायन जी और जोशी जी पढ़ा करते थे ।कभी कभी रमेश वर्मा भी ।जरूरत पढ़ने पर वहां से कुछ ‘टीप’ भी लिया करते थे ।इतनी व्यापक जानकारी की वजह से कुछ लोग उन्हें चलता फिरता विश्वकोश भी कहा करते थे ।
‘दिनमान’ के चुटीले और अलौकिक शीर्षक अक्सर मनोहर श्याम जोशी ही देते थे । एक बार मुझे एक स्टोरी दी गयी पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों की हत्या पर लिखने के लिये।उस पर खूब मेहनत कर संवाद तैयार किया गया ।पुलिस की
दौड़धूप से मुजरिम भी पकड़ में आ गये ।मुख्य मुजरिम था सुच्चा सिंह । जब सभी पक्षों और आयामों को लेकर मैंने वह स्टोरी मनोहर श्याम जोशी को दी तो उसपर उन्होंने शीर्षक दिया, ‘सुच्चा सिंह हाज़िर हो ।’ इस शीर्षक को हमारे साथियों सहित पाठकों ने भी खूब सराहा ।ऐसी ही भाषा के आमजन के अधिक निकट लाने के लिए वह नये नये शब्द गढ़ा करते थे ताकि उस स्थान के लोग भी ‘दिनमान’से जुड़ जायें जहां के लोकगीत या लोकोक्ति से वह शब्द, वाक्य या गीत का अंश लिया गया होता है ।मुंबई में फिल्म्स डिवीज़न में काम करते करते भाषा के साथ वह कई तरह के प्रयोग भी किया करते थे और रेडियो के समाचार कक्ष में वात्स्यायन जी और रघुवीरसहाय के साथ काम करते करते उत्तर के कई तरह के लोकगीतों को भी अपने और सहयोगियों के संवादों में समाहित किया करते थे । वाक्यों की बुनावट करने में उन्हें मास्टरी हासिल थी ।एक बार ‘सारिका’ के तत्कालीन संपादक मोहन राकेश के आग्रह पर उन्होंने साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक सिरीज़ लिखी थी जिस में उनकी भाषा से खिलवाड़ वाली यह कला देखने को मिली थी ।
मनोहर श्याम जोशी को मैं उतना ही जानता हूं जब तक वह ‘दिनमान’ में रहे।उसके बाद वाले जोशी जी को मैं कम ही जानता हूं । ‘दिनमान’ वाले जोशी जी मस्त थे,फक्कड़ थे ।उनका फकीराना अंदाज़ होता था ।वह बहुत ही सहज, सरल और सामान्य
प्रकृति के व्यक्ति थे । कभी अपनी केबिन के बाहर निकल कर आएंगे और बोलेंगे ,’चल दीप, पान खा कर आते हैं ।’ पान खाएंगे और सिगरेट को दो उंगलियों में दबाकर लंबा-सा कश लगाकर कहेंगे, ‘यार अब यहां मन नहीं लगता ।कहीं और जुगाड़ करनी होगी ।’ जब मैं इसका कारण पूछता तो पहले हंसते हुए कहते कि मैं तो तुम से मज़ाक कर रहा था । फिर दूसरे ही पल कहते कि मैं मुंबई की नौकरी छोड़ कर ‘दिनमान’ में इसलिए आया था कि वात्स्यायन जी के बाद मैं संपादक बनूंग लेकिन अब मुझे ऐसा होते दीख नहीं रहा है ।’ एकाएक यह प्रसंग बीच में छोड़ कर कहते चलो ऊपर चलते हैं ।हम लोग टाइम्स हाउस की दूसरी मंज़िल पर बैठा करते थे ‘नवभारत टाइम्स’, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया ‘ और ‘इकनॉमिक टाइम्स’ के संपादकीय विभाग के साथ ।उन दिनों मोटा मोटी हरेक को हरेक बंदा जानता था ।क्योंकि वात्स्यायन जी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के सम्पादक थे उनसे मिलने आने वाले भी सेलिब्रिटी हुआ करते थे ।अपने अपने कारणों से मनोहर श्याम जोशी,श्रीकांत वर्मा और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का भी खासा महत्व और प्रभाव हुआ करता था ।
‘दिनमान’ का संपादकीय विभाग 7, बहादुर शाह जफर मार्ग पर था लेकिन उसकी प्रिंटिंग 10, दरियागंज स्थित प्रेस में हुआ करती थी। हफ्ते में तीन दिन संपादकीय विभाग के लोग प्रूफ पढ़ने, पेपर के पृष्ठ बनवाने और उन्हें पास करने के लिए वहां जाया करते थे ।इसमें सीनियर जूनियर कोई नहीं होता था ।दोपहर को जब कम्पोजिटर लंच के लिए चले जाते तो सम्पादकीय विभाग के लोग प्रेस के सामने सरदार जी की दुकान में चाय पीने के लिए चले जाया करते थे ।आम तौर पर जोशी जी भी मंगलवार को अन्य सहयोगियों के साथ आते थे । चाय पीते पीते उनके मुंबई के किस्से शुरू हो जाते तो कभी ‘दिनमान’ की खबरों और उनके शीर्षकों पर भी चर्चा हुआ करती थी ।कहीं कोई छोटा बड़ा नहीं था ।बहुत ही सुखद और स्वस्थ वातावरण हुआ करता था ।वह बेहतरीन ‘किस्सागो’ थे ।
मनोहर श्याम जोशी इस बात से वाकिफ थे कि मेरी तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह से निकटता है ।कभी कभी लोकसभा के किन्हीं विषयों की जानकारी उनके माध्यम से भी हम प्राप्त कर लिया करते थे । उन दिनों प्रेस कर्मचारियों पर यूनियन का खासा प्रभाव रहा करता था । मेरे वहां रहते दो बड़ी हड़तालें हुई थीं–एक 1967 और दूसरी 1972 में ।अब हड़तालों के दौरान या तो हम लोगों के बीच खतोकिताबत हुआ करती थी या कहीं बाहर मुलाकात भी । हमारे साथियों में शायद ही किसी के घर फोन रहा होगा ।एक दिन जोशी जी का पोस्टकार्ड आया ।उसका मजमून कुछ इस तरह से था ‘प्रिय दीप, मैं इस बीच शुद्ध अकर्मण्यता का आनन्द (?) लेता रहा हूं ।जाने क्यों मुझे उम्मीद थी कि तालाबंदी ज़्यादा लंबे अर्से तक नहीं चलेगी ।’कुछ बाद तो जाना ही है चलो थोड़ा आराम कर लो’वाला मूड बना रहा ।कुछ भी नहीं किया सिवा मक्खी मारने के (शाब्दिक अर्थ में!)। ‘सारिका’ के लिए इंटरव्यू ज़रूर ले रहा हूं लेकिन तालाबंदी ने उसकी भी अर्जेंसी खत्म कर दी है ।रीलों का यह हाल है कि मुंबई से एक मित्र (दिग्दर्शक-निर्माता) आए थे । उनके साथ एक टॉप क्लास दिन बिताया और ‘किस्सा पौने चार यार’ के फिल्मीकरण की आरम्भिक बातचीत की। देखो क्या बनता है,क्या नहीं ।बने तो तब जब मैं उपन्यास पूरा करुँ ।तुम्हारे और हुकम सिंह जी के भविष्य
के बारे में चिंतित हूं! दोनों का कल्याण एक साथ ही होगा । बारह मील का फासला ज़्यादा मालूम होता हो तो किसी दिन 6 मील तय करके कनाट प्लेस पहुंचो । तुम्हारा जोशी ।जोशी जी का यह खत 11 मार्च, 1967 का था जो अभी तक मेरे पास मौजूद है।
मेरे और सरदार हुकम सिंह के भविष्य की चिंता के बारे में उन्होंने जो संकेत अपने खत में दिया था उस बाबत मुझे भी कुछ फिक्र हुई ।लेकिन जब सरदार हुकम सिंह को उसी बरस राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया तो यह डर तो जाता रहा ।अपने बारे में जब मैंने सोचा तो दिमाग में यही आया कि वात्स्यायन जी के जाने के बाद मेरा क्या होगा ।अपनी जगह उनकी चिंता बेजा नहीं लगी ।फिर भी तालाबंदी के बाद ऑफ़िस खुलने पर मैंने उनसे इस तथाकथित चिंता का जब सबब जानना चाहा तो टालते हुए बोले ऐसी कोई रहस्य की बात नहीं है,गंभीरता से मत लो । परंतु मेरा संदेह जायज था । उन्हें लग रहा था कि रघुवीरसहाय के संपादक बनने के बाद मेरी स्थिति कैसी रहेगी ।
लेकिन रघुवीरसहाय के संपादककाल में मेरी स्थिति बहुत पुख्ता हुई ।उन्हीं के समय मैंने दुनिया भर के देशों की यात्राएँ कीं जो किसी भी हिंदी साप्ताहिक में काम करने वाले संवाददाताओं के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण कही जा सकती हैं । इन्हीं मनोहर श्याम जोशी ने एक बार प्रदीप पंत से कहा था कि हिंदी पत्रकारों में त्रिलोक दीप जितना विदेश घूमने वाला शायद ही कोई दूसरा संवाददाता हो ।मैं यह नहीं कह सकता कि उन्होंने तंज कसा था या तारीफ की थी ।लेकिन मैंने तो इसे उनके ‘आशीर्वाद’ के तौर पर ग्रहण किया था और उनके बड़प्पन को सराहा था ।वह इसलिए भी कि ‘दिनमान’ में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा था ।
रघुवीरसहाय द्वारा ‘दिनमान’ का पद संभालने के पहले मनोहर श्याम जोशी ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का संपादक बनकर चले गये ।इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है । एक दिन मुझ से आकर बोले,’उठो दीप,पान खाने चलते हैं ।’ मैं समझ गया कोई खास बात है ।पान खाते और सिगरेट को अपनी दोनों उंगलियां में दबाए कश पर कश लगाये जा रहे थे।फिर बोले ‘अब यार,यहां मन लगता नहीं ।’मैंने कहा कि रघुवीरसहाय तो आपके ‘खाने-पीने ‘ वाले दोस्तों में हैं ।कभी कभी मस्ती में आकर पंजाबी भी तो बोला करते थे।झुंझला कर बोले मैं तुमसे सीरियस बात कर रहा हूं और तम्हें मजाक सूझ रहा है ।मैंने भी संजीदगी से जवाब दिया ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में संपादक की जगह खाली है,’राजा’ से मिल लो, काम हो जायेगा।मुझे लगा कि जोशी जी को मेरी सलाह तो भा गयी लेकिन बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोले,यह इतना आसान नहीं ।मेरे सुझाव का तत्कालिक कारण था ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’के संपादक रामानंद दोषी का निधन ।वही रामानंद दोषी जो ‘कादम्बिनी’ का संपादक रहते हुए ‘बिंदु बिंदु विचार’ लिखा करते थे ।बाँके बिहारी भटनागर के बाद उन्हें साप्ताहिक हिंदुस्तान का संपादक बनाया गया,उनके स्थान पर राजेंद्र अवस्थी ‘नंदन’ से आये और ‘नंदन’ के संपादक बने थे जयप्रकाश भारती। उन्हें ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ से पदोन्नत करके वहां भेजा गया था। जिस राजा साहब का मैंने जोशी से उल्लेख किया था वह थे कृष्णचंद्र पंत जिनके बिरला घराने से बहुत अच्छे संबंध थे ।जोशी जी और पंत जी साथ साथ पढ़ते थे और दोनों की अच्छी खासी दोस्ती भी थी।
कृष्णचंद्र पंत के साथ पढ़ने की बात तो स्वयं जोशी जी ने ही मुझे एक बार बतायी थी।उन्होंने सोचा होगा कि मैं इस हक़ीक़त से वाकिफ नहीं हूं ।उस समय उन्होंने यह दिखाने और जताने की कोशिश की कि यह सुझाव फिजूल और ‘बेवकूफाना’ है लेकिन मुझे न जाने क्यों लगा कि मेरा यह सुझाव उन्हें जंच गया था । कुछ समय बाद मेरे अपने सूत्रों से यह पता चला कि वह कृष्णचंद्र पंत से मिले थे।उनके ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में संपादकी दिलाने का ज़रिया वही बने थे। मनोहर श्याम जोशी के ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का संपादक बनने के बाद उन्होंने मुझे कभी याद नहीं किया,औपचारिक तौर भी नहीं ।इसे आप सतही दोस्ती कह सकते हैं या ‘दिनमानी’ मित्रता ।
कई सालों बाद मनोहर श्याम जोशी से समाजसेवी उद्यमी संजय डालमिया के निवास पर एक रात्रिभोज में भेंट हुई । संजय डालमिया के एनजीओ आर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग ऐंड फ्रेटरनिटी की ओर से उन्हें हिंदी के लेखक और पत्रकार के तौर पर पुरस्कृत किया गया था ।हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेज़ी में सीमा मुस्तफा, उर्दू में जमनादास अख्तर, पंजाबी में बरजिंदर सिंह, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विनोद दुआ,स्वयंसेवी संस्था के तौर पर एच डी शौरी आदि को भी पुरस्कृत किया गया था ।ये पुरस्कार सिने अभिनेता दिलीप कुमार के हाथों दिए जाने थे ।दिलीप कुमार को निमंत्रित करने का ज़िम्मा संजय डालमिया ने एनजीओ की महासचिव श्रीमती नफ़ीस खान को सौंपा था ।पुरस्कार समारोह से एक दिन पहले संजय डालमिया सभी पुरस्कृत विद्वानों को डिनर पर आमंत्रित करते हैं ।उस डिनर में दिलीप कुमार और उनकी बेगम सायरा बानो भी शामिल थीं ।पुरस्कार चयन समिति का सदस्य होने के नाते मुझे भी न्योता गया था ।दिलीप कुमार और सायरा बानो की शिरकत से डिनर की रौनक दुगुनी हो गयी थी ।संजय जी के भाई अनुराग डालमिया भी उपस्थित थे ।दिलीप कुमार सभी पुरस्कृत विद्वानों से खुलकर बातचीत कर रहे थे ।मुझ से और विनोद दुआ से पंजाबी में ।दिलीप कुमार ने बताया था कि मुंबई की ज़िंदगी में हम पंजाबी बोलने को तरस जाते हैं ।
कुछ दिनों के बाद पता चला कि ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ पत्रिका में कुछ ऐसा छप गया जो तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह की गरिमा और मर्यादा के अनुकूल नहीं था ।लिहाजा मनोहर श्याम जोशी को ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ से हटा कर ‘मॉर्निंग इको’ भेज दिया गया ।उनके स्थान पर श्रीमती शीला झुनझुनवाला को ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के संपादक का दायित्व सौंपा गया ।उससे पहले वह ‘कादम्बिनी’ में संयुक्त संपादक थीं ।शीला जी क्योंकि ‘धर्मयुग’ में डॉ धर्मवीर भारती के साथ काम कर चुकी थीं इसलिए ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ को उन्होंने एक नया स्वरूप दिया ।एक बार शीला जी ने बताया था कि ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में सारा काम अस्तव्यस्त था ।उन्होंने वहां पहुंचकर सारा स्वीकृत मैटर मंगवाया और तीन महीने की अग्रिम डमी तैयार की ।उन्होंने अपने ऑफ़िस के साथ साथ सामग्री को भी व्यवस्थित कर दिया ।अब कहीं ऊहापोह की स्थिति नहीं थी ।अब ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ ने सही मायने में ‘धर्मयुग’ को टक्कर दी थी । हालांकि मेरा ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ से बड़ा पुराना रिश्ता था लेकिन न तो मैंने मनोहर श्याम जोशी के समय और न ही श्रीमती शीला झुनझुनवाला के संपादककाल में कुछ लिखा ।बाँके बिहारी भटनागर की संपादकी के दिनों में मैंने जमकर लिखा । उन दिनों गोविंद प्रसाद केजरीवाल,बालस्वरूप राही,जयप्रकाश भारती,ईश्वरसिंह बैस आदि लोग हुआ करते थे ।
बहरहाल 9 अगस्त,1933 में अजमेर में जन्मे मनोहर श्याम जोशी का संबंध अल्मोड़ा के कुमांऊनी परिवार से था ।उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। जोशी जी को उनके सीरियल ‘हम लोग, ‘बुनियाद’ ‘कक्काजी कहिन’,’मुंगेरीलाल के हसीन सपने’,’हमराही ‘ के तौर पर खूब ख्याति मिली ।कुछ लोग तो उन्हें ‘भारतीय सोप ओपेरा का जनक’ भी कहते हैं । उनके उपन्यास ‘करु करु स्वाहा’, ‘कसप’ और ‘क्याप’ जैसे प्रयोगात्मक उपन्यास भी थे ।वह साहित्य अकादेमी पुरस्कार से भी सम्मानित थे ।उनकी पत्नी डॉ भगवती जोशी जी से भी मेरा अच्छा परिचय था । 30 मार्च,2006 को 72 साल की उम्र में दिल्ली में मनोहर श्याम जोशी का निधन हो गया ।वह भले इंसान थे।भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें ।
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