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मैंने तीन सदियाँ देखी हैं (24) : रघुवीरसहाय: बेहतरीन संपादक और नेकदिल इंसान | Pavitra India

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गो कि मैं ‘दिनमान’ में आने से पहले रघुवीरसहाय को उस तरह से नहीं जानता था जैसे अज्ञेय को जानता था लेकिन उनसे मुलाकातें कई हुई थीं पत्रकार सम्मेलनों में । वह तब ‘नवभारत टाइम्स’ में विशेष संवाददाता थे और मैं ‘दिनमान’ में उपसंपादक । हमारे संपादक श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने हम सभी लोगों को इतना प्रशिक्षित कर दिया था कि हम लोग बेझिझिक किसी भी विषय पर आयोजित पत्रकार सम्मेलन में शिरकत कर सकते थे । उन दिनों ‘दिनमान’ में एक ही विशेष संवाददाता था श्रीकांत वर्मा । वह सभी पत्रकार सम्मेलनों को कवर नहीं कर सकते थे।खालिस कोई संवाददाता था नहीं लिहाजा जरूरत पड़ने पर उपसंपादक ही संवाददाता की भूमिका निभाया करते थे।इसी नाते मेरी रघुवीरसहाय से कई मुलाकातें थीं ।उन्हें भी मेरे ‘दिनमान’ का प्रतिनिधि होने की जानकारी थी और हम दोनों की दुआ सलाम भी ।

उन दिनों मैं ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अवश्य पढ़ता था क्योंकि वे दोनों ‘होम पेपर’ थे ।जिस प्रेस सम्मेलन को मैं रघुवीरसहाय के संग कवर करता, उस पर उनकी रिपोर्ट मैं ज़रूर पढ़ता और साथ ही ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के सुभाष किरपेकर की भी । इन दोनों के संवाद लेखन का मैं कायल था ।इनके संवादों के प्रस्तुतिकरण की शैली सपाट नहीं होती थी बल्कि कुछ वैसी ही लय देखने और पढ़ने को मिलती थी जैसे अक्सर ब्रितानी पत्र ‘इकानामिस्ट’ या अमेरिकी वीकली ‘टाइम’ और ‘न्यूज़वीक’ में । कालांतर में मैंने लंदन में ‘इकानामिस्ट’ तथा न्यूयॉर्क में ‘न्यूज़वीक’ की संपादकीय कार्यशैली को निकट से देखा भी था ।मैं ही नहीं उन दिनों पत्र सूचना ब्यूरो (पीआईबी) के कई अधिकारी भी कहा करते थे कि जहां आम तौर पर अखबारों की रिपोर्टिंग सपाट रहती है और उनमें ‘उन्होंने कहा’ या ‘उन्होंने बताया’ जैसे उद्धरणों से कुछ नहीं होता वहां रघुवीरसहाय की रिपोर्टिंग शैली कुछ इतर होती थी। ऐसी बात नहीं कि वह राजनेताओं के भाषणों को उद्धृत नहीं करते थे लेकिन उनके शब्द ‘बोझिल’ नहीं होते थे बल्कि सहज, सरल और सामान्य हुआ करते हैं ।एक ने तो मसहास्य कहा था कि लगता है समाचार लिखते समय रघुवीरसहाय शुद्ध पत्रकार होता है,कवि नहीं ।अंग्रेज़ी में उन्हें सुभाष किरपेकर की रिपोर्टिंग बहुत अच्छी लगा करती थी ।

पत्रकारिता का यह वह दौर था जहां पत्रकारों और राजनेताओं के बीच बहुत ही सौहार्दपूर्ण संबंध हुआ करते थे परस्पर विश्वास के ।कुछ पत्रकारों के संपर्क सूत्र इतने पुख्ता हुआ करते थे कि यह जानना मुश्किल होता था कि फलां पत्रकार का यह ‘गोपनीय और सटीक’ सूत्र कौन हैं ।इस कद्र आपसी भरोसे और तालमेल की भावना हुआ करती थी ।रघुवीरसहाय के राजनीति के अतिरिक्त सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी खासी पैठ थी । वह हरफनमौला पत्रकार थे रंगमंच,संगीत और फिल्म भी कभी कभी लिखा करते थे ।उनके ‘दिनमान’ में संपादक का कार्यभार संभालने से पहले मैं उनकी इस पत्रकारी प्रतिभा से परिचित हो चुका था लिहाजा जब 1969 में उन्होंने विधिवत संपादकी संभाली तो मुझे उनके साथ काम करने में कोई दिक्कत पेश नहीं आयी । विशेष संवाददाता के तौर पर सभी विशेष संवाददाता टाइम्स हाउस की दूसरी मंज़िल के इकनमिक टाइम्स के ब्यूरो में ही बैठा करते थे,अंग्रेज़ी,हिंदी और महाराष्ट्र टाइम्स के, इकानामिक टाइम्स के संवाददाताओं के अतिरिक्त ।जहां रघुवीरसहाय के अलावा आनंद जैन,ललितेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव और डॉ नंदकिशोर त्रिखा को मैं जानता था तो टाइम्स ऑफ इंडिया के सुभाष किरपेकर और इकानामिक टाइम्स के सतिंदर सिंह को भी ।सतिंदर मेरे लिए ‘सत्ती’ थे ।वह पंजाबी में कहानियां लिखा करते थे जिनका मैं हिंदी में अनुवाद करके छपवाता था ।उनकी कहानियों का अंग्रेज़ी अनुवाद खुशवंत सिंह ने किया था ‘Dreams in Debris’। ब्यूरो के सभी विशेष संवाददाताओं के बीच परस्पर सहयोग और सौहार्द की भावना होती थी ।

एक दिन हमेशा की तरह मैं ब्यूरो की तरफ से निकल रहा था कि सत्ती ने मुझे पीछे से आवाज़ दी,’ओए दीप ऐदर आ ‘। मैं जब सत्ती के पास पहुंचा तो उसने एक व्यक्ति से परिचय कराते हुए कहा कि ‘मिलो इनसे, यह हैं श्री रघुवीरसहाय ।’ मैंने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया ।वह बोले,’हां वात्स्यायन जी ने आपके बारे में बताया था ।’ उन्होंने कहा।मैंने भी कई बार आपको संसद भवन में देखा है कभी स्पीकर चेम्बर के पास तो कभी किसी सांसद से बातचीत करते हुए । मैंने सत्ती का शुक्रिया अदा करते हुए उसे बताया कि ‘मैं इन्हें पहले से जानता हूं ।हम लोग कई पत्रकार सम्मेलनों में मिल चुके हैं ।’सत्ती खीझ कर बोला,’पहले क्यों नहीं दसिया’। ‘तुम्हारा प्यार देखकर’ कहकर मैं ‘दिनमान’ की तरफ चला गया ।हमारे संपादक सच्चिदानंद वात्स्यायन ऑफ़िस आ चुके थे ।आम तौर पर वह साढ़े दस और ग्यारह बजे के बीच दफ्तर पहुंच जाते थे । ‘दिनमान’ में कोई भी व्यक्ति फ़ील्ड के लिए चिन्हित नहीं था ।करीब करीब सभी लोगों को फ़ील्ड में भेजा जाता था । इसी क्रम में कभी कभी ऐसी स्थिति भी पैदा हो जाती कि मुझे स्थानीय,राष्ट्रीय और राजनयिक स्तरों पर रिपोर्टिंग के लिए जाना पड़ता तथा ऐसे ही अवसरों पर रघुवीरसहाय से भेंट हो जाती थी ।अब हम दोनों एक दूसरे और उनके काम से वाकिफ हो चुके थे ।लिहाजा 1969 में उन्होंने जब ‘दिनमान’ का कार्यभार सम्भाला तो परस्पर परिचय जैसी कोई दिक्कत पेश नहीं आयी।एक बार पीआईबी के प्रमुख यू.एस. तिवारी ने मुझे बताया था कि रघुवीरसहाय कुछ अलग किस्म के पत्रकार हैं ।इन की रिपोर्टिंग हट कर होती है । न वह सपाट होती है और न ही सरकारी विज्ञप्ति पर आधारित ।उसमें अलग तरह की लय होती है,भाषा में लालित्य होता है जिससे कभी कभी काव्यत्व की झलक मिलती है ।तिवारी जी पीआईबी के सब से वरिष्ठ अधिकारी थे जिनकी कला और साहित्य में भी अभिरुचि थी ।जब मैंने रघुवीर जी को यू.एस. तिवारी की उनकी लेखकीय शैली के बारे में उल्लेख किया तो उन्होंने हंसते हुए मात्र इतना भर कहा था,’वह बेहतरीन अधिकारी हैं और पढ़े लिखे भी ।कम ही अफसर हिंदी में लिखे आलेखों या रपटों को इतनी शिद्दत के साथ पढ़ते हैं जितने कि तिवारी जी’।

रघुवीरसहाय के कवि,उनकी कविता की शैली और समय समय पर उन में होने और किए जाने वाले प्रयोगों पर खासा लिखा गया है लेकिन उन की पत्रकारिता पर जितना लिखा जाना चाहिए था उतना शायद लिखा नहीं गया ।यह भी संभव है कि लिखा गया हो लेकिन मेरी नजरें उन्हें तलाश न पायी हों।लिहाजा मैं अपने अनुभव और विचारों को अपने तईं ही सीमित रख कर प्रस्तुत कर रहा हूं ।रघुवीरसहाय फ़ील्ड रिपोर्टिंग के महत्व को समझते थे ।उन्होंने ‘नवभारत टाइम्स’ में रहते हुए तो फ़ील्ड रिपोर्टिंग की ही थी,’दिनमान’ का सम्पादक बनने के बाद भी उनका यह शौक बरकरार रहा ।वह मानते थे कि किसी भी घटना या दुर्घटना को उस स्थल पर जाकर जिस करीबी और बारीकी से देखा और समझा जा सकता है वह सम्पादक की कुर्सी पर बैठे हुए नहीं ।घटनास्थल पर आपको सब तरह के लोग मिलेंगे,कुछ चश्मदीद गवाह भी,कुछ समाजसेवी भी तो कुछ राजनीतिक नेता भी,कुछ बेलाग तथा बेबाक लोगों के साथ साथ कुछ धुर तटस्थ लोग भी ।इस तरह बातचीत के साथ जो संवाद तैयार होगा वही उस घटना या दुर्घटना के साथ न्याय करने की स्थिति में होगा ।वह अक्सर अपने साथ कैमरा भी रखा करते थे ताकि घटनास्थल के चित्र भी ले सकें ।उनकी 1971-72 में बंगलादेश की रिपोर्टिंग वैसी ही सराही गयी थी जैसे 1966-67 में वात्स्यायन जी की गोवा के अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महाधिवेशन की रिपोर्टिंग ।तब किसी ने सहास्य टिप्पणी की थी,’क्यों न हो आखिर तीनों रेडियो में जो साथ साथ थे-सच्चिदानंद वात्स्यायन , रघुवीरसहाय और मनोहर श्याम जोशी ।तीनों लिक्खाड़, बहुभाषाविद और कवि ।शुरू शुरू में मनोहर श्याम जोशी भी कविताएँ लिखा करते थे तथा रघुवीर जी और जोशी जी का दोस्ताना भी तब मशहूर हुआ करता था ।वास्तव में रघुवीरसहाय के बारे में लिखने और बताने लायक इतना है कि भटकाव हो ही जाता है ।रघुवीरसहाय वात्स्यायन जी को अपना ‘काव्य-गुरु’ और ‘जीवन-गुरु’ मानते थे।

चलिये अब मुद्दे पर आते हैं ।रघुवीरसहाय ने जब विधिवत ‘दिनमान’ की संपादकी संभाल ली तो मेरी वात्स्यायन जी के समय वाली पुरानी बीट जारी रहीं अर्थात् विदेश, प्रतिरक्षा के साथ साथ और भी । 1969 में लेह लद्दाख में कांग्रेस ‘ए’और कांग्रेस ‘बी’ में आपसी झगड़े की खबरें राष्ट्रीय अखबारों में जब छपीं तो दिल्ली के पत्रकारों ने इसे गंभीरता से लिया ।डिफेन्स कवर करने वाले पत्रकारों ने सेना के जनसंपर्क अधिकारी से लेह जाने की मांग की ।एक पत्र रघुवीरसहाय को भी मिला ।मुझे तलब किया गया और श्रीनगर जाने को कहा गया जहां से डिफेंस वाले पत्रकारों के एक दल को लेह ले जाएंगे ।मैंने रघुवीर जी को सलाह दी कि यह जिम्मेदारी आप जवाहरलाल कौल को दें।वह कश्मीरी हैं और वहां के हालात को मुझ से बेहतर जानते और समझते हैं ।अभी तक मैं खड़े खड़े उनसे बात कर रहा था ।रघुवीर जी मुस्कुराये और बोले, आप बैठ जाइए।मेरे बैठने पर वह बोले। मैं भी कौल साहब की बहुत इज़्ज़त करता हूं ।जिस तरह से उन्होँने पिछ्ले दिनो बिहार और उत्तरप्रदेश की घटनाओं को कवर किया है वे कबिलेतारीफ हैं ।फिर बोले,’आपके साथ मुमकिन है कोई विदेशी पत्रकार भी हो जो हिंदी भी न जानता हो ।वह भी तो इस घटनाक्रम को कवर करेगा ।उसका अपना नज़रिया होगा ।अब होगा यह कि सरकार सहित सभी लोग पहले उसकी रपट पढ़ना पसंद करेंगे ।क्यों! उसका दृष्टिकोण जानने के लिये ।जब विदेशी पत्रकार इस काम को बखूबी अंजाम दे सकता है तो एक भारतीय पत्रकार क्यों नहीं ।’अब मैं निरुत्तर हो गया और श्रीनगर के लिए निकल गया । श्रीनगर पहुंचने पर कुछ और पत्रकारों से भेंट हुई ।मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ के समाचार संपादक पंडित हरिदत्त शर्मा और समाचार भारती के विद्या सागर का नाम ही इस समय याद पड़ रहा है जो मुझे उस दौरे में मिले थे ।कुछ अंग्रेज़ी के भी पत्रकार थे ।हम से पहले हिंदुस्तान टाइम्स के राज गिल भी हो आये थे ।वह मेरे दोस्त थे ।उन्होंने भी मुझे ब्रीफ कर दिया था ।श्रीनगर और लेह के रास्ते में कुछ ऐसी जानकारियां भी मिलीं जो मेरे लिए नये संवाद लिखने को प्रेरित करती थीं जैसे जून की तपती दुपहरी में गुमरी के पास बर्फ की चट्टानें तोड़ कर फौजी जीप के निकलने का रास्ता बनाना,द्रास को दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा स्थान बताना और पहला स्थान देखने को प्रेरित करना,करगिल में रात गुज़ारना,जहां 90 फीसद से ज़्यादा मुसलमान रहते हैं, करगिल की आसपास की पहाड़ियों में एक तरफ पाकिस्तानी और दूसरी तरफ चीनी फौजों द्वारा टकटकी लगाये सदा तैनात रहना, करगिल और लेह के रास्ते में ऐतिहसिक पत्थर साहब गुरुद्वारे के दर्शन करना जहां कभी सिखों के पहले गुरु नानक देव आये थे,लेह में कुशक बकुल से मुलाकात और वहां हेमिस गुम्पा सहित कई गुम्पा देखना तथा चीनी सीमा से सटे चांगला और चुशुल की यात्रा । यह काफी महत्वपूर्ण और विविध यात्रा हो गयी ।

दिल्ली पहुंच कर अपनी लेह की इस प्रायोजित यात्रा के इन तमाम आयामों की जब रघुवीर जी को जानकारी दी तो उन्होंने उत्फुल्ल होते हुए कहा कि ‘मैं जानता था कि तुम एक यात्रा से इतने सारे संवाद बनाने और निकालने में सक्षम हो ।’एक तो मैंने प्रतिरक्षा संबंधी स्टोरी बनायी जो क्लियरिंग के लिए भेज दी,दूसरा राजनीतिक संवाद तैयार किया तथा दो- तीन और ।लद्दाख पर पुस्तक लिखने के बारे में भी सोचा और उसके लिए कुछ अतिरिक्त सामग्री भी जुटायी । इसके बाद मुझे और कई लंबी प्रायोजित यात्राओं पर भेजा गया ।मुझे जो याद पड़ रही हैं वे थीं बिहार की भूदान तथा राजस्थान की खादी ग्रामोद्योग की अध्ययन संबंधी यात्राएं । पटना से कार द्वारा कमोबेश सारे बिहार की यात्रा के साथ साथ नेपाल के बिराटनगर भी हो आया फरीश्वरनाथ रेणु ने सलाह दी कि जब आप पूर्णिया और सहरसा जा ही रहे हो तो वहां बिहारी सिखों से मिलना न भूलना ।’दिनमान’ के लिहाज़ से यह बढ़िया स्टोरी होगी और इससे आपकी व्यक्तिगत जानकारी बढ़ेगी,सो अलग ।पूर्णिया और सहरसा दोनों स्थानों पर बिहारी सिखों से मुलाकात हुई जो पूरी तरह से गुरुसिख थे ।वे लोग गुरु ग्रंथ साहब से पाठ कर सकते थे,अपने मधुर कंठ से कीर्तन भी करते थे शुद्ध गुरुबाणी का लेकिन पंजाबी बोल नहीं सकते थे ।उनके पाठ और कीर्तन में भी बिहारी लहजा झलकता था लेकिन सिख धर्म के प्रति उनकी पूरी श्रद्धा और आस्था थी । भूदान के अलावा मेरे और कई संवाद तैयार हो गये,बिराटनगर का जो हुआ,सो अलग ।इसी प्रकार खादी ग्रामोद्योग की राजस्थान की इकाइयां दिखाने के लिए हम कुछ पत्रकारों को दिल्ली से कार द्वारा ही ले जाया गया । ।कार में मेरे साथी थे हिन्दुस्तान टाइम्स के राज गिल,जो बेहतरीन पत्रकार के अतिरिक्त कहानीकार और उपन्यासकार भी थे ।इस यात्रा में खादी के विभिन्न उत्पादों के अलावा राजस्थान की कला,जीवन शैली,रेगिस्तानी टीले,जैसलमेर की विश्व प्रसिध्द हवेलियाँ भी देखीं ।बाड़मेर के आगे गदरा रोड भी गये जहां हमारी सेना का कब्ज़ा हो गया था ।वहां पर लगे मील पत्थर पर बैठ कर हमारे एक साथी ने अपनी फोटो भी खिंचवाई ।बाड़मेर में एक ध्वस्त पाकिस्तानी टैंक रखा था जो हमारी सेना के शौर्य का प्रतीक था ।इस प्रकार इन प्रायोजित यात्राओं से भी कई अतिरिक्त और रोचक संवाद प्राप्त हो गये।

रघुवीरसहाय मेरी यात्राओं से जुड़ी स्टोरीज़ में पूरी दिलचस्पी लिया करते थे ।जब मैंने उन्हें बताया कि बिराटनगर से मेरी विदेश यात्रा की शुरुआत भी हो गयी,इस पर रघुवीर जी की टिप्पणी थी ‘अभी आगे आगे देखिए’। मेरी अपनी निश्चित बीट के अलावा ये गैरबीट की यात्राएं भी मेरे लिए बहुत ही उपयोगी और ज्ञानवर्धक सिध्द हुईं। 1975 में जब मुझे पश्चिम जर्मनी की यात्रा का निमंत्रण प्राप्त हुआ तो सबसे पहले इसकी जानकारी मैंने रघुवीरसहाय को दी । विदेश मंत्रालय की मार्फत जब मुझे पश्चिम जर्मनी
(उस समय दो देश थे पूर्व और पश्चिम जर्मनी ।1990 जर्मनी के दोनों देशों का एकीकरण हुआ) के राजदूत गुएन्टर डीएल का मूल पत्र मिला तो उसे भी मैंने सबसे पहले रघुवीर जी को दिखाया जिन्होंने अपनी सीट से खड़े होकर मुझसे हाथ मिलाकर बधाई दी । बाद में मुझे समझाते हुए कहा कि यह यूरोप की आपकी पहली यात्रा है ।खुल कर देश देखो, ‘दिनमान’ के पाठकों की रुचि का जो लगे या दीखे उसे नोट करो और कैमरे में भी कैद करो।उन्हें मैंने लंदन और पेरिस यात्रा बाबत भी बताया ।इसी प्रकार मैंने रघुवीर जी को 1977 में सोवियत संघ से प्राप्त निमंत्रण की जानकारी देते हुए बताया था कि यह यात्रा पूर्व और पश्चिम यूरोप के आठ देशों की है ।उस समय पूर्व यूरोपीय देशों में कम्युनिस्ट सरकारें थीं और पश्चिम में लोकतंत्री प्रणाली वाली सरकारें । आप चाहें तो इन्हें पूंजीवादी सरकारें भी कह सकते हैं ।इनमें आपसी तालमेल के संबंधों के अध्ययन के साथ साथ भारत के साथ रिश्तों का जायजा भी लेना था।

1979 में मुझे अमेरिका की एक महीने की यात्रा का निमंत्रण पत्र मिला ।मई के मध्य में मुझे अमेरिका जाना था और उससे दो हफ्ते पहले ब्रितानी हाउस ऑफ़ कॉमन्स का चुनाव था ।रघुवीर जी ने प्रबंधन को एक नोट भेज कर कंपनी के खर्चे पर एक सप्ताह का ब्रितानी चुनाव कवर करने की अनुमति ले ली ।लेकिन मैंने अमेरिका की इस यात्रा को विश्व यात्रा में परिवर्तित कर लिया यानी इंग्लैंड,कनाडा, अमेरिका के होनोलूलू से जापान और हांगकांग को भी जोड़ लिया । यात्रा पर निकलने से पहले रघुवीर जी के आग्रह पर हम दोनों ने एक शाम इकट्ठी बितायी । यह बातचीत निजी रुचियों से लेकर पत्रकारिता के आयामों के अलावा विदेश यात्राओं पर भी हुई ।रघुवीर जी की ड्रिंक करने की अपनी कलात्मक शैली है ।उन्होंने यह भी बताया था कि धीमी आंच पर बनने वाले मीट का कैसा स्वाद होता है और अगर वह चूल्हे पर चढ़ा कर बनाया जाये तो उसके क्या कहने ।रघुवीर जी को खाने-पीने के अलावा पकाने का भी शौक था ।उन्होंने फ़ील्ड रिपोर्टिंग के मुझे कुछ टिप्स दिये तथा विदेशों में चीज़ों को देखने और उनमें भारतीय पाठकों की रुचि बाबत चीज़ों को सहेजने की सलाह भी दी ।उनके कई प्रकार के विशिष्ट अध्ययन और आकलन से मैं चौंका भी और सीखा भी ।

क्योंकि हमारी यह मुलाकात घोर निजी और गोपनीय थी, लिहाजा इस विशेष बातचीत में हम दोनों ने ही दिलखोल अपने अपने खयालात पेश किये । उन्होंने बताया था कि मेरी विदेश यात्राओं पर केवल भीतर ही नहीं, बाहर भी कुछ लोग शक़ की नज़रों से देखते हैं ।दूतावासों से मेरी निकटता और वहां के लोगों को’ ‘दिनमान’ के बाबत जानकारी देने और उसमें विश्व स्तंभ में किस तरह की सामग्री छपती है यह बताने पर भी कुछ लोगों को एतराज़ था ।इस पर मुझे हंसी आ गयी ।मैंने कहा कि हमारे लोगों को तो खुश होना चाहिए कि ‘दिनमान’ के बारे में विदेशियों को भी पर्याप्त ज्ञान है और अपने देश के बारे में ही नहीं पूरे विदेश स्तंभ में वे दिलचस्पी रखते हैं ।यह हम सब लोगों के लिए खुशी और गर्व की बात होनी चाहिए कि एक हिंदी पत्रिका को विदेशी दूतावास इतनी गंभीरता से लेते हैं ।रघुवीर जी ने मेरे तर्क गौर से सुने ।उनमें एक सिफत थी ।वह सुनी सुनायी बातों पर विश्वास नहीं किया करते थे ।कुछ दूतावास अपने यहां सांस्कृतिक सचिव रखते हैं जिनका काम भारत की कला, संस्कृति और साहित्य का अध्ययन करना होता था ।ये सचिव समय समय पर देश के प्रमुख व प्रगतिशील कवियों,साहित्यकारों ,हिंदी के संपादकों,पत्रकारों आदि को आमंत्रित करते रहते थे ।रघुवीर जी ने मेरी जानकारी के लिहाज़ से मुझे बताया कि ऐसे ही कुछ अवसरों पर जब मैं अपने मेजबान को बताता कि मैं ‘दिनमान’ का संपादक हूं तो कभी कोई उत्तर देता कि हम इस पत्रिका के बारे में जानते हैं और आपके बारे में भी, तो कोई अपने यहां से ‘ दिनमान’ की प्रति लाकर दिखा देता ।इसका राज़ पूछने पर मुझे तुम्हारे बारे में बताया जाता और यह भी जानकारी दी जाती कि तुम किसी खास विषय पर उनके देश की प्रतिक्रिया जानने के लिए उनसे मिले थे ।उस विषय पर जब तुम आलेख तैयार करते थे तो उसमें मात्र उतना ही उल्लेख होता था जितने की संवाद को दरकार हुआ करती थी ।बहुत ही संतुलित आलेख तुम्हारे हुआ करते थे ।कुछ राजनयिकों की यह आत्मस्वीकृति थी कि हम लोग भी पत्र-पत्रिकाओं में सन्तुलित अध्ययन चाहते हैं,एकतरफा नहीं। ऐसा हमें ‘दिनमान’ के संवादों से मिलता था जिसे हमारे देश में पसंद किया जाता ।रघुवीर जी ने मेरी अमेरिका यात्रा को लेकर भी एक जानकारी साझा करते हुए बताया था कि कुछ तथाकथित वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों ने अमेरिकी अधिकारियों से मुझे निमंत्रित किये जाने पर यह कह कर आपत्ति जताई थी कि एक तो मैं जूनियर पत्रकार हूं और दूसरे मैं साप्ताहिक पत्र में काम करता हूं । विरोध करने वालों को अमेरिकी अधिकारियों का टका-सा जवाब मिला था कि यह हमारा विशेषाधिकार है कि हम किसे आमंत्रित करते हैं,किसे नहीं ।रघुवीर जी से मुझे यह भी पता चला था कि अखिल भारतीय सेवाओं के बहुत से ऐसे अधिकारी हैं जिन्होंने अपनी प्रतियोगिताओं की तैयारी में अन्य अनेक पुस्तकों के साथ साथ ‘दिनमान’ के विदेश,अर्थजगत तथा अन्य कई स्तंभों का अध्ययन कर उनका लाभ भी उठाया था । इसीलिए मुझे हमेशा से ही तुम्हारे सहित अपने सभी साथियों-सहयोगियों की क्षमताओं पर गर्व है और कभी किसी से कोई शिकायत नहीं रही है ।सच पूछा जाये तो विदेश से मिलने वाले आपको या अन्य किसी सहयोगी को निमंत्रणपत्रों को मैं ‘दिनमान’ की उपलब्धि मानता हूं ।’कितने ऐसे हिंदी के साप्ताहिक ही क्यों,दैनिक समाचारपत्र होते होंगे जिन्हें विदेशी सरकारें इस तरह का सम्मान प्रदान करती होंगी।’ रघुवीर जी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मुझे सुरक्षित यात्रा का आशीर्वाद दिया था।

रघुवीर सहाय की किस किस खासियत की मैं चर्चा करूं।वह सहृदय थे, मानवीय करुणा और संवेदनाओं से परिपूर्ण एक भावुक व्यक्ति थे,परस्पर सद्भावना और सौहार्दपूर्ण व्यवहार के लिए वह सर्वत्र जाने जाते थे ।जितने लोगों की प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में उन्होंने सहायता की थी उसकी निश्चित गणना के बाबत तो मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर जानता हूं कि वह असंख्य थी ।कुछ लोग हज़ारों का आँकड़ा भी कूतते हैं ।इस आंकड़े को लेकर लोगों को दुविधा हो सकती है जिसका निराकरण करना आवश्यक है ।रघुवीर जी 14 वर्षों तक ‘दिनमान’ के संपादक रहे ।उन्होंने उन सभी पाठकों के पत्र अपने ‘मत-सम्मत ‘ स्तंभ में छापे जिन्हें वह दूर दूर तक नहीं जानते थे ।केवल उन्हीं पाठकों के पत्र ‘दिनमान’ में छ्पा करते थे जो पठनीय होते थे और हमारे मापदंड पर खरे उतरते थे । कुछ पाठक अपने राज्यों के संवाद भी भेजते थे,सही और सटीक पाये जाने पर वह भी ‘दिनमान’ में छ्पा करते थे ।ऐसे लोगों से न तो ‘दिनमान’ के संपादक और न ही किसी और सम्पादकीयकर्मी का कुछ लेनादेना होता था ।रघुवीर जी के दामाद प्रो. हेमंत जोशी ने एक दिलचस्प वाकया सुनाते हुए कहा कि रघुवीरसहाय शायद पहले संपादक थे जो अपने पाठकों से अपने पत्र फिर से लिख कर यानी रीराइट कर के भेजने के लिए कहा करते थे।कभी कभी उन्हें किसी पत्र की विषयवस्तु इतनी भा जाती थी कि उसके लेखक से विस्तार से लिखने को कहा करते थे । उनमें खबर की नब्ज़ पकड़ने की कुव्वत थी ।पूरे देश और कुछ हद तक विदेश में भी ‘दिनमान’ की अपनी निष्पक्षता की साख थी ।रघुवीरसहाय के संपादक कार्यकाल में मैंने अपने देश और विदेश के कई विस्तृत दौरे किये थे । देश में कस्बों,छोटे से लेकर बड़े शहरों में मैं जाया करता था ।कई कई जगह लोग ‘दिनमान’ की प्रति लाकर दिखाते हुए कहते कि ‘देखिए मेरा यह पत्र छ्पा है’ तो कोई ‘दिनमान’ में छ्पा अपना संवाद दिखाता जो उसने हाईलाईटर से हाईलाईट किया होता था ।वह बताता कि ‘दिनमान’ में छपे इस समाचार की वजह से वह फ़लां दैनिक का स्थानीय संवाददाता बन गया और उसे एक निश्चित पे-पैकट मिलता है । राज्यों की राजधानी में बहुत-से ऐसे लोगों से भी मुलाकात हुआ करती थी जो ‘दिनमान’ के किसी संवाद को दिखा कर राज्य सरकारों की सुविधाएं प्राप्त कर लेते थे ।उन दिनों ‘दिनमान’ का न तो किसी राज्य और न ही विदेश में कोई अधिकृत संवाददाता हुआ करता था ।ये सभी स्वघोषित स्थानीय और राज्य संवाददाता ‘दिनमान’ में छपे अपने पत्रों और संवादों के ज़रिये हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे होते थे ।संभव है कुछ लोगों के पास संपादक का अपने क्षेत्र की सामग्री भेजने संबंधी पत्र रहा हो जिसका इस्तेमाल ऐसे ‘तथकथित ‘ संवाददाता ‘दिनमान’ के अधिकृत संवाददाता के तौर पर किया करते हों । लिहाजा ऐसे स्वघोषित संवाददाताओं की संख्या हज़ारों से कम नहीं रही होगी । ऐसे स्वघोषित संवाददाता उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान में अधिक तो हिमाचल, जम्मू,हरयाणा ,गुजरात और महाराष्ट्र में भी पाये जाते हैं । ‘दिनमान’के ऐसे कई स्वघोषित संवाददाता इस समय कई क्षेत्रीय अखबारों में संपादक हैं तो कई अन्य उच्च पदों पर आसीन हैं । इन लोगों ने अभी भी अपने पास ‘दिनमान’ की वे सभी प्रतियां संभाल रखी हैं जिनमें उनका कुछ न कुछ प्रकाशित हुआ है ।

रघुवीर जी ने कुछ लोगों की सीधे सहायता भी की थी । रघुवीर जी का यह बहुआयामी व्यक्तित्व दरअसल वात्स्यायन जी की देन माना जाता है । विदेशों में भी ‘दिनमान’ का कोई स्थायी प्रतिनिधि नहीं होता था लेकिन पश्चिम जर्मनी से रजत अरोड़ा और राम नारायण यादव,लंदन से सत्येंद्र श्रीवास्तव तथा कभी कभी नरेश कौशिक और वॉशिंगटन से रवि खन्ना (अब दिवंगत) संवाद भेजा करते थे ।नरेश कौशिक ‘दिनमान’ से बीबीसी गये थे जबकि रवि खन्ना वायस ऑफ़ अमेरिका में काम करते थे और 1979 की अमेरिकी यात्रा में वह मुझ से मिले थे तथा राजधानी का नगर दर्शन कराया था। उनके जीजा डॉ.आर.पी.आनंद मेरे साथ कभी लोकसभा सचिवालय में काम किया करते थे ।उन दिनों वह होनोलुलु में थे ।उनसे भी मेरी लंबी मुलाकात हुई थी और हमने अपने पुराने साथियों को याद किया था ।

रघुवीरसहाय अपनी मानवीय सहायता और करुणा के लिए भी जाने जाते थे । 1971 में बंगलादेश के अभ्युदय के बाद वह वहां के साथ साथ बॉर्डर की स्थिति का आकलन करने के लिए गये और अगरतला में उन्हें रोते हुए एक लड़का मिला जिसने बताया कि आततायियों ने उनके माँ बाप और बहन की हत्या कर दी है,वह किसी तरह से उनके चंगुल से बच निकला था ।रघुवीर जी ने उसे ढांढस बन्धाया और अपने साथ दिल्ली अपने घर पर ले आये ।उसे दिलासा दिया, अपने घर में ही रखा।वह परिवार से हिलमिल गया ।उसे बच्चे ‘जूंटू दा’ कहकर बुलाया करते थे ।वह कुछ काम करना चाहता था ।किसी से कह कर रघुवीर जी ने उसे काम दिलवा दिया और वह दूसरी जगह शिफ्ट कर गया परंतु हर शनिवार-रविवार उनके यहां आ जाया करता था।रघुवीर जी की पत्नी बिमलेशवरी सहाय (जिन्हें रघुवीर जी बट्टू जी कहते थे) ने बताया कि वह परिवार से बहुत हिलमिल गया था ।बाद में कोलकाता चला गया जहां उसने शादी कर ली ।हेमा सिंह तो उससे कोलकाता में मिली भी थी जहां उसकी खूब इज़्ज़त की गयी।अब वह बड़ा व्यापारी हो गया था ।हेमा बताती हैं कि काफी समय तक उससे संपर्क बना रहा ।

ऐसे ही यूरोप से एक पत्रकार आये थे रोजर मूडी।वह भी रघुवीर जी के घर पर रहे करीब एक बरस ।बीच में दो महीने के लिए पाकिस्तान गये थे ।अंग्रेज़ी में वह अपनी रिपोर्टें टाइप करते जिनका अनुवाद रघुवीर जी खुद किया करते थे ।उन का परिचय दिल्ली में कई लोगों से कराया ।उन्हें वह कभी कभी अपने साथ ऑफ़िस भी ले आया करते थे ।मंजरी जोशी ने बताया कि दरअसल रोजर मूडी प्रभाष जोशी का मेहमान था लेकिन उन्होंने न जाने क्या कह कर पापा जी से मिलवा दिया जो साल भर हमारे यहां ही टिका रहा ।इतने भोलेभाले थे हमारे पापा । ऐसे ही एक बार वह हाथरस गये और किसी का ‘एम्स’ में इलाज कराने के लिये अपने घर ले आये थे ।बिमलेशवरी जी बताती हैं कि सहाय जी से किसी की दुख तकलीफ देखी नहीं जाती थी ।कुछ लोगों का मानना है कि लोगों की मदद करने का मादा उन्हें अपनी पत्नी से ही मिला था ।

एक और प्रसंग का उल्लेख करते हुए हेमा ने बताया कि उनके यहां काम करने वाली माई की झुग्गी तोड़ दी गयी ।वह रोती चिल्लाती हमारे घर आयी ।उसने जब अपनी व्यथा कथा बताते हुए कहा कि अब बाल बच्चों के साथ कहां जाऊं तो रघुवीर जी ने कहा कि हमारे क्वार्टर के बाहर वाली तरफ आकर रह लो ।वह अपने चार बच्चों और पति के साथ हमारे यहां रहकर घर का काम करने लगी ।तब हम लोग रामकृष्णापुरम में रहा करते थे ।हेमा हंस कर कहती हैं कि हमारे घर में हमेशा रौनक लगी रहती थी ।हमारे चाचा जी भी आते जाते रहते थे ।अमेरिका में रहने वाला उनके पुत्र वसंत सहाय के पास एक बांसुरी है जिसे वह बजाते हैं और अपने पापा की अमूल्य निशानी के तौर पर सहज कर रखे हुए हैं । 1992 में वह अपनी मां बिमलेशवरी देवी जी को अमेरिका ले गये थे, उन्हें केलिफोर्निया सहित कई जगह घुमाने भी ले गये थे ।2016 में भी वह फिर अमेरिका गयीं । बिमलेशवरी जी बताती हैं कि वह बेटी गौरी के पास भी गयी थीं जो वसंत के घर से ज़्यादा दूर नहीं रहती ।वहां गिर जाने की वजह से उन्हें दो बरस अमेरिका में ही रहना पड़ गया था ।उन्हें ग्रीन कार्ड भी मिल गया था । 2018 में वह स्वदेश लौटीं ।ग्रीन कार्डधारी के लिए दो साल में एक बार अमेरिका जाना अनिवार्य होता है।उन्हें वहां जाना था लेकिन वह नहीं गयीं, यह कहते हुए कि ‘एक तो आयु बढ़ गयी है और दूसरे वहां मुझे अच्छा भी नहीं लगता,इसलिए नहीं गयी और ग्रीन कार्ड निरस्त हो गया है ‘।

रघुवीर जी अपने मधुर,शिष्ट और हमदर्द स्वभाव के लिए भी जाने जाते थे। मैंने उन्हें कभी किसी से ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं सुना था। उन्होंने शायद ही अपने बच्चों को कभी डाँटा हो।इस पर हेमा बताती हैं कि कभी कभी हमें अपनी गलतियों पर डांट पड़ जाया करती थी ।बड़ी बेटी मंजरी जोशी उसे गुस्सा नहीं,झिड़की कहती है जिस में माँ बाप का प्यार छुपा होता है ।गलती क्या हुआ करती थी? हेमा सिंह बताती हैं कि जैसे पापा ने हमें कुछ लिखे हुए कागज़ एक तरफ रखने के लिए कहा,हमने ऐसा न कर के पढ़ने बैठ गए तो पापा का नाराज होना तो बनता था। और मंजरी कहती हैं कि हमारे घर में अखब़ारों का अंबार लगा रहता था,पापा उसमें विदेशी पेपर छांट कर अलग करने के लिए कहते तो हम लोग फोटो देखने लग जाते या कोई कबाड़ी आता तो उसके रद्दी तौलते वक़्त हम कोई पत्रिका निकाल लेते, हमारी ऐसी ऊलजुऊल की हरकतों पर पापा को गुस्सा करने का पूरा हक़ होता था ।लेकिन हमारे पापा का गुस्सा दूध में उफान की तरह होता था ।हम लोग जब मुंह फुलाकर बैठ जाते तो न केवल पापा हमें प्यार करते बल्कि हमारे साथ और बच्चों को भी इकट्ठा कर अपनी कार में लाद कर कभी लोदी गार्डन तो कभी इंडिया गेट घुमाने के लिए ले जाते,आइसक्रीम खिलाते और हमारे साथ खेलते भी ।

क्या आप लोगों के कामकाज पर कोई टीका-टिप्पणी करते या सलाह दिया करते थे ।मंजरी बताती है कि दूरदर्शन पर समाचार बुलेटिन खत्म होने के बाद ऑफ़िस में तो तारीफ सुनने को मिलती थी लेकिन घर आने पर पापा इतना भर कहते ‘ठीक-ठाक थी लेकिन फ़लां वाक्य को अगर ऐसा पढ़ती तो और अच्छा होता या अमुक जगह पर विराम के बजाए अर्ध विराम अधिक सटीक बैठता ।वह आलोचना नहीं करते थे बल्कि सलाह दिया करते थे ।उनकी सलाह पर चल कर बेशक़ हमें लाभ ही होता था ।वह न तो हम पर लादी लादते थे और न ही अपने विचार थोपा करते थे । हेमा सिंह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पढ़ाती थीं और नाटकों में भाग भी लिया करती थी नृत्य का भी शौक रखती थीं ।वह बताती हैं कि जब कभी रघुवीरसहाय उसका कार्यक्रम देखने जाते तो उसके काम को देखकर भावुक हो जाया करते थे, आँखों से आंसू भी निकल आया करते थे ।इन आँसुओं को वह ‘खुशी के आंसू ‘ करार दिया करते थे । हेमा को इस बात का मलाल है कि वह अपने पापा की कविता की वाचन और मंचन शैली को आगे नहीं बढ़ा सकीं । रघुवीर जी ने एक नयी विधा खोजी थी – कविता लिखने वाला अपनी कविता खुद न पढ़े बल्कि लिखित और वाचन की प्रक्रिया अलग अलग हो । इस विचार को उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों की सहायता से अमली जामा पहनाया ।उनका यह प्रयोग काफी कामयाब बताया गया था ।इस सिलसिले में उन्होंने स्वयं भी कुछ कक्षाएँ ली थीं । उन्होंने वाचन शैली के साथ साथ कविता मंचन का प्रयोग भी किया था जो हेमा के शब्दों में खासा सफल रहा।हेमा सिंह बताती हैं कि वह ‘कविता-आवृति’ के अपने पापा के इस सपने को पूरी शिद्दत के साथ साकार करने का
प्रयास करेंगी।

उनका एक ऐसा पारदर्शी व दूरदर्शितापूर्ण व्यक्तित्व था जो हरेक की यथासंभव सहायता करता और खुशी देता था लेकिन उसके बदले में न किसी से कुछ मांग करता या अपेक्षा और न ही उम्मीद रखता या चाहता था ।यह बात रघुवीरसहाय के दामाद प्रो. हेमंत जोशी भी मानते हैं और कहते हैं कि ‘साफ सोच होने की वजह से उन्हें कवि और पत्रकार के बीच की पतली रेखा का ज्ञान था । उन्होंने भावात्मक क्षणों में भी पत्रकारिता पर कविता को हावी या प्रभावी नहीं होने दिया । वह व्यक्ति की क्षमताओं से परिचित थे ।रघुवीर जी को पता था कि मैं विदेशी भाषाओं की कविताओं का हिंदी में अनुवाद करता हूं और फ्रेंच भाषा मैं ठीक-ठाक बोल समझ लेता हूं ।इस नाते वह कभी कभी मेरा सहयोग ले लिया करते थे ।एक बार उन्होंने मुझे एक फ्रांसीसी फिल्म देखने के लिए भेजा ।जब मैंने उसकी समीक्षा लिख कर दी तो उन्होंने कई जगह लाल निशान लगा कर फिर से लिखने के लिए कहा ।इस पर मैं चौंका कि फिल्म मैंने देखकर समीक्षा लिखी है फिर मुझ से चूक कहां हो गयी ।उनके लाल निशान सटीक थे ।उन्हें हर विषय की गहरी समझ थी ।उनका वैचारिक आधार और धरातल अद्भुत था ।कभी कभी किन्हीं मुद्दों पर हम दोनों के बीच गहरी और लंबी बहस भी हो जाया करती थी लेकिन वह अपने विचारों के प्रति पूरी तरह से स्पष्ट हुआ करते थे ।इस तरह की बहस में ससुर- दामाद का रिश्ता आड़े नहीं
आता था । लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि वह अपने विचारों को दूसरों पर थोपा नहीं करते थे ।

मंजरी जोशी, हेमा सिंह और वसंत सहाय यह मानते हैं कि हमारे पापा हमें कई सामाजिक समारोहों में भी ले जाया करते थे ।एक बार हमारे परिवार में शादी थी जो अमूमन सुबह ही होती है ।उस शादी में शामिल होने के लिए रघुवीर जी अपने चारों बच्चों के साथ आये थे ।मेरी पत्नी और बच्चों के साथ साथ दूसरे रिश्तेदारों से भी मिले ।शादी की व्यवस्था का अवलोकन किया ।उस दिन बहुत समय तक बच्चों के साथ हमारे यहां रहे ।हमारे निवेदन पर वह लंच करने के लिए भी सहमत हो गये थे ।अपने परिवार और बच्चों के प्रति वह पूरी तरह से समर्पित थे ।सामाजिक सरोकारों में उनका कोई सानी नहीं था ।हमारे एक साथी योगराज थानी की बेटी ज्योति की शादी थी ।क्योंकि शादी रात की थी इसलिए अपने बच्चों को तो नहीं ला पाये लेकिन अपनी अम्बेसडर कार में दफ्तर के हम सभी लोगों को ढो कर ले गये,रास्ते में खूब हंसी ढ़िढोली करते हुए ।उनमें अवसर के अनुसार अपने आप को ढालने की अद्भुत क्षमता थी । निस्संदेह वह बहुत ज़िंदादिल इंसान थे ।

रघुवीर जी हर किसी का दुख दर्द बड़ी संजीदगी से सुनते थे और जो कुछ भी उनसे बन पड़ता था उसकी सहायता भी किया करते थे । कभी कभी तो मैंने उनके कार ठीक करने वाले मेकैनिक,कबाडी,मोची,ड्राइवर, चपरासी आदि की तकलीफ़ों को उन्हें पूरी तवज्जो के साथ सुनते हुए उनकी हर संभव मदद करते हुए देखा था ।एक बार मैं और जितेंद्र गुप्त उनकी कार में बैठे बियर पी रहे थे तो किसी ने उनकी कार के शीशे पर दस्तक दी ।दस्तक देने वाले को रघुवीर जी ने डांट कर भगाया नहीं बल्कि उसकी परेशानी सुनकर उसे दूर किया ।वह वास्तव में आम आदमी के संपादक थे और एक नेकदिल इंसान ।उनसे उनकी सर्जनात्मक निकटता भी थी,पत्रकारी और इंसानी भी ।शायद यही वजह थी कि उनकी शव यात्रा में साहित्यकारों और पत्रकारों के अतिरिक्त आमजन का भी भारी हुजूम था ।निगम बोध घाट में उनकी अन्त्येष्टि में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर तथा भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा कुछ मंत्री भी शामिल हुए थे । आमजन लोगों में से कुछ की प्रतिक्रिया थी कि ‘हम नहीं जानते थे कि यह इतने बड़े साहब हैं ।हम से तो ऐसी बातें किया करते थे जैसे वह हम में से ही एक हों।इतनी सादगी थी उनमें, कहीं किसी तरह का बड़प्पन नहीं ।हमने इतना प्यारा इंसान कभी नहीं देखा।’

‘दिनमान ‘ से ‘नवभारत टाइम्स’ में तबादले के बाद वह खासे खिन्न रहने लगे थे ।वहां उन्हें सहायक संपादक बना कर भेजा गया था ।इसे वह अपनी अवन्नति मानते थे ।जिस व्यक्ति ने 14 साल तक डंके की चोट पर संपादकी की हो,भला किसी की अधीनता वह कैसे स्वीकार कर सकता है । बेशक़ ‘नवभारत टाइम्स’ में प्रधान संपादक ने उनके अनुभव और वरिष्ठता का सम्मान करते हुए उन्हें पूरी छूट दे रखी थी लेकिन ‘दिनमान’ से हटाया जाना उन्हें सदा सालता रहा ।एक दिन उन्होंने ‘नवभारत टाइम्स’ से त्यागपत्र दे कर अपने आप को स्वतंत्र कर लिया ।उसके बाद बहुत लोगों ने उन्हें नयी पत्रिका निकालने की सलाह दी ।हमारे एक मित्र वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल तो एक लाख रुपए का चेक लेकर उनके पास इस निवेदन के साथ पहुंच गये कि आप काम शुरू कीजिए और पैसा आ रहा है ।रघुवीरसहाय ने उनकी सदायशता के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘जब कभी भी मैं इस बाबत सोचूगा तब आपको याद करूंगा ।’ दरअसल रघुवीर जी के आत्मसम्मान को गहरी ठेस पहुंची थी। मेरी जानकारी के अनुसार कुछ उद्योगपतियों ने भी उनसे सम्पर्क साध कर एक साप्ताहिक निकालने की पेशकश की थी लेकिन अब वह कोई नयी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार और उत्साहित नहीं थे ।वह आज़ाद रहना चाहते थे और स्वतंत्र लेखन में अपने आप को खपाना चाहते थे । अपने किसी ऐसे काम में ही लगे 30 दिसंबर,1990 को 61 साल की उम्र में रघुवीरसहाय हम से सदा के लिए बिछुड़ कर अलविदा कह गये । उनकी मधुर और यादगार यादों को सादर नमन ।

रघुवीरसहाय पर मैंने और सुधेन्दु ओझा ने एक पुस्तक तैयार की है ।इसके लिए हमें बहुत सारे लोगों का सहयोग और समर्थन प्राप्त हुआ है ।रघुवीरसहाय के बहुआयामी व्यक्तित्व के बारे में बहुत-से साहित्यकारों,विद्वानों, पत्रकारों,उनके बच्चों और भाई-दामाद ने भी लिखा है। कुछ
अप्रत्याशित कारणों से पुस्तक के प्रकाशन में विलंब हो गया है ।इस श्रृंखला में हमारी पहली पुस्तक
‘ज्ञेय-अज्ञेय’ प्रकाशित हो चुकी है जिसे पाठकों ने खूब सराहा है ।रघुवीरसहाय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित यह पुस्तक भी पाठकों को प्रीतिकर लगेगी , ऐसा हमारा विश्वास है। अगले वर्ष जनवरी में विश्व पुस्तक मेले से पूर्व रघुवीरसहाय पर पुस्तक उपलब्ध हो जाएगी ऐसा विश्वास मेरे सहयोगी संपादक सुधेन्दु ओझा ने दिलाया है ।वह पुस्तक के प्रकाशक भी हैं ।

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