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मैंने तीन सदियाँ देखी हैं (26) : प्रारब्ध प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव | Pavitra India

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1991 में पीवी नरसिम्हा राव राजनीति से करीब करीब सेवानिवृत होकर अपने गृह राज्य आंध्रप्रदेश के हैदराबाद चले गए थे ।उन्हें शायद यह लगा था कि लोकसभा का यह चुनाव अकेले राजीव गांधी ही लड़ रहे हैं और वह अपने आपको असंगत पा रहे थे ।ऐसी चर्चा मैंने भी सुन रखी थी ।लिहाजा 19 मई,1991 को मैं राजीव गांधी से हैदराबाद में मिला तो उनसे राव साहब की इस ‘सोच’ की जब बात की तो वह हंसकर बोले,’हम सभी लोग एक साथ हैं ‘। लेकिन हैदराबाद में होते हुए भी राव साहब इस जनसभा में नहीं दीखे तो इस सवाल को टालते हुए बोले थे,इस बाबत बाद में बात करेंगे,अगली मुलाकात में,अब आधी रात से ऊपर वक़्त गुज़र चुका है,आप भी आराम करो और मैं भी चलता हूं ।उन्होंने अलबत्ता अपने प्रेस सचिव सुमन दुबे से कह दिया कि ‘मिस्टर दीप को 21 मई को बंगलूरू में बुला लो, वहां उनसे अच्छी तरह से बातचीत करेंगे तमाम मुद्दों और विषयों पर ।’ इस बातचीत के बाद मेरे स्थानीय पत्रकार मित्र एम ए माजिद मुझे कृष्णा ओबेराय होटल (अब कृष्णा ताज) छोड़कर अपने घर चले गये ।अगले दिन सुबह देखा कि सुमन दुबे भी उसी होटल में नाश्ते की टेबल पर बैठे हैं ।मैंने उनसे दुआ सलाम करने के बाद पूछा कि क्या राजीव गांधी यहीं हैं? उन्होंने बताया कि वह तो रात को ही दिल्ली के लिए निकल गये थे ।और आप.. सुमन दुबे ने बताया कि मैं उन्हें बाद में ज्वायन करूंगा 21 मई को बंगलूरू में । तय वक़्त के मुताबिक मैं तो 21 मई को बंगलूरू पहुंच गया था लेकिन राजीव गांधी से वह संभावित मुलाकात गमी का एक अप्रत्याशित संदेश लेकर आयी श्रीपेरुम्बदूर (तमिलनाडु) में चुनाव प्रचार के दौरान लिट्टे के एक आत्मघाती हमलावर ने उनकी हत्या का । यह खबर मुझे होटल के महाप्रबंधक नकुल आनंद ने दी थी ।मैं स्तब्ध रह गया। उस होटल में ठहरे दूसरे पत्रकार और स्थानीय पत्रकार सभी हतप्रभ थे ।विधान सौध में कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता ज़ार ज़ार रो रहे थे ।मेरी नजरें सुमन दुबे को तलाश रही थीं ।पता चला कि उन्हें हैदराबाद में ही यह ‘मनहूस खबर’ मिल गयी थी और वह उसी वक़्त दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे ।

534 निर्वाचन क्षेत्रों में से 20 मई, 1991 को पहले चरण का 211 सीटों का मतदान हुआ था लेकिन राजीव गांधी की हत्या के कारण शेष चुनाव जून के मध्य तक स्थगित कर दिया गया । सभी तरह के हालात का जायजा लेते हुए चुनाव आयोग ने शेष मतदान 12 और 15 जून को कराया । हालांकि अपनी हैदराबाद की जनसभा के बाद राजीव गांधी कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत के प्रति आश्वस्त थे लेकिन उनके जीते जी जो पहले चरण का मतदान हुआ था उसमें कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं थी लेकिन दूसरे चरण में राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानूभूति की वजह से उसे भारी समर्थन प्राप्त हुआ ।बावजूद इसके किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नही हुआ ।कांग्रेस बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी ।उसे 232 सीटें मिलीं जबकि भारतीय जनता पार्टी को 120,जनता दल 59,मार्क्सवादी पार्टी 35, कम्युनिस्ट पार्टी 14, तेलुगू देशम 13 और जनता पार्टी को 5 सीटें मिलीं ।उग्रवाद के चलते पंजाब और जम्मू-कश्मीर की 19 सीटों के लिए चुनाव नहीं हुए ।फरवरी, 1992 में पंजाब में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 13 में से 12 सीटें जीतकर अपनी संख्या 232 से बढ़ाकर 244 कर ली ।फिर भी वह स्पष्ट बहुमत से दूर रही ।

ऐसी स्थिति में कांग्रेस का नेता चुनने का मसला सामने आया ।राजीव गांधी का निधन हुए अभी बमुश्किल से एक माह ही हुआ था ।फिर भी कुछ वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने साहस बटोरकर सोनिया गांधी से प्रधानमंत्री का पद संभालने का अनुरोध किया ।उन्होंने बड़ी विनम्रता से यह कहते हुए मना कर दिया कि ‘अभी मैं गहरे शोक में हूं ।मेरी ऐसी मन:स्थिति नहीं कि मैं कोई जिम्मेदारी उठा सकूं ।’ उनसे प्रधानमंत्री पद का जब नाम सुझाने का निवेदन किया गया तो पहले उन्होंने यही कहा कि आप लोग स्वयं अपने आप में से किसी को चुन लीजिये ।लेकिन ऐसा लगता है कि किसी सर्वसम्मत नाम को लेकर उनमें सहमति नहीं थी ।एक तरफ़ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार थे तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और पूर्व वित्त एवं विदेशमंत्री नारायणदत्त तिवारी ।क्योंकि राजीव गांधी ने प्रणव मुखर्जी को अपनी सरकार में कोई पद नहीं दिया था इसलिए उनके नाम पर विचार नहीं हुआ ।सोनिया गांधी को भी यह मालूम था कि इन वरिष्ठ नेताओं के बीच सहमति बननी मुश्किल है लिहाजा उन्होंने पीवी नरसिम्हा राव के नाम का चयन किया ।किसी ने अलबत्ता यह कहने का प्रयास किया कि वह तो राजनीति से सन्यास लेकर आंध्रप्रदेश चले गए हैं लेकिन सोनिया गांधी अपने निर्णय पर
अडिग रहीं ।

इस प्रकार 1991 के लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस के पूर्ण बहुमत प्राप्त न करने के बावजूद पीवी नरसिम्हा राव ने अल्पमत सरकार गठित की ।उनकी सरकार को कुछ पार्टियों का बाहर से समर्थन प्राप्त हुआ ।पीवी नरसिम्हा राव दक्षिण भारत से प्रधानमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति थे जबकि नेहरू-गांधी परिवार के बाहर के दूसरे प्रधानमंत्री ।पहले प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे ।वैसे 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन से इंदिरा गांधी की भी अल्पमत सरकार थी ।तब कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी थी-कांग्रेस (संगठन) और कांग्रेस (आई)। पीवी नरसिम्हा राव तब कांग्रेस (आई) के नेता थे ।उन्होंने 1991 का लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा था लिहाजा नांदयाल से उपचुनाव लड़ उन्होंने रिकार्ड पांच लाख मतों से जीत हासिल की ।

प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव (28 जून,1921-23 दिसंबर, 2004) से प्रधानमंत्री बनने से पहले, उसके दौरान तथा अवकाश प्राप्त करने के बाद भी उनके मोतीलाल नेहरू मार्ग (ताज मान सिंह होटल के सामने) स्थित निवास पर भी मेरी मुलाकातें होती रहीं ।17 भाषाएं बोलने-लिखने-पढ़ने में पारंगत पीवी नरसिम्हा राव से हर मुलाकात ज्ञानवर्धक और यादगार रहती थी ।बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री के नाम से प्रसिद्ध उन्हें खुलने में थोड़ा वक़्त ज़रूर लगता था लेकिन जब उन्हें आपकी ‘ईमानदाराना अप्रोच’ पर पूरी तरह से भरोसा हो जाता था तो वह कमोबेश वैसे ही खुल जाया करते थे जैसे मुझसे अटलबिहारी वाजपेयी मुझसे बेसाख्ता बातचीत किया करते थे । पीवी नरसिम्हा राव इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों की सरकारों में मंत्री पद पर रहे । पंडित जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के शासनकाल में वह आंध्रप्रदेश विधानसभा के सदस्य थे और 1971 में वहां के मुख्यमंत्री । 1969 में कांग्रेस में विभाजन के बाद वह कांग्रेस (इंदिरा) से जुड़े और अंतिम समय तक उससे संबद्ध रहे ।राजनीति में उतार चढ़ाव तो आते रहते हैं, पीवी नरसिम्हा राव का जीवन भी उससे अछूता नहीं रहा ।शांत स्वभाव के नरसिम्हा राव बड़े सोच समझ कर निर्णय लेने वाले प्रधानमंत्रियों में माने जाते थे ।उनके विपक्षी पार्टियों से बहुत मधुर और सौहार्दपूर्ण संबंध थे ।मेरे ख्याल से प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरसिम्हा राव तक विपक्ष को सत्तापक्ष अपने पूरक की तरह मानता था, प्रतिद्वंद्वी की तरह नहीं।पंडित नेहरू तो कहा करते थे कि अगर संसद में कारगर विपक्ष नहीं होगा तो सत्तापक्ष निरंकुश हो जाएगा जो लोकतंत्र के विकास के लिए खतरा है ।

लगता नहीं अपने मंत्रिमंडल के गठन में पीवी नरसिम्हा राव ने किसी की सलाह ली हो या किसी ने उन पर दबाव डाला हो ।एक बार बातचीत में उन्होंने अलबत्ता यह माना था कि कांग्रेस के भीतर ही तमाम ऐसी विसंगतियां हैं जिनकी तरफ़ आपको बहुत सोच विचार से चलना होता है । पीवी नरसिम्हा राव ने वरिष्ठ नेताओं के साथ ही पार्टी के हर स्तर के नेता को अपनी सरकार में खपाने की कोशिश की ।उनका मंत्रिमंडल चार स्तरीय था: काबीना मंत्री, राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), राज्य मंत्री और उपमंत्री ।प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने प्रणव मुखर्जी को अपनी सरकार में शामिल नहीं किया था जिससे खीझकर उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन कर राजनीति में अपनी उपस्थिति और वजूद बनाये रखा ।लेकिन 1989 में उसका कांग्रेस में विलय हो गया नरसिम्हा राव ने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष (24 जून,1991-16 मई, 1996) बनाकर उनकी सेवाएं प्राप्त कीं ।19 फरवरी,1995 से 16 मई, 1996 तक प्रणव दा को विदेश मंत्रालय की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी दी ।इसी प्रकार उन्होंने दूसरे वरिष्ठ नेताओं को उनके महत्व और कद के मुताबिक मंत्रालय दिये ।

डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री नियुक्त कर उन्होंने सभी को चौंका दिया,क्योंकि पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने परंपरा से हट कर किसी गैरराजनीतिक को वित्तमंत्री बनाया था ।इससे पहले डॉ मनमोहन सिंह मुख्य आर्थिक सलाहकार (1972-1976), रिज़र्व बैंक के गवर्नर (1982-1985),वित्त सचिव और योजना आयोग के उपाध्यक्ष (1985-1987) रह चुके थे । डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री नियुक्त करने का अर्थ देश की खस्ता होती आर्थिक स्थिति पर काबू पाना था ।भारत का विदेशी भंडार बमुश्किल एक अरब अमेरिकी डॉलर रह गया था जो दो सप्ताह के आयात के भुगतान तक ही काम चला सकता था ।डॉ सिंह ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को इस अभूतपूर्व संकट के बारे में बताया और सलाह दी कि अगर इसे विनिमय मुक्त नहीं किया गया तो अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी ।लिहाजा प्रधानमंत्री राव ने भारतीय अर्थव्यवस्था को विनिमय मुक्त करने की अनुमति दे दी ।लिहाजा देश से लाइसेंस राज समाप्त कर दिया गया जिससे आयात करों में कमी आ गयी ।इस प्रकार अर्थव्यवस्था को खोलने और भारत की समाजवादी अर्थव्यवस्था को अधिक पूंजीवाद में बदलने के लिए नीतियों को लागू किया गया ।उन्होंने विदेशी निवेश (एफडीआई) के रास्ते में आने वाली कई बाधाओं को हटा दिया और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू की ।इन वित्तीय सुधारों के चलते देश की अर्थव्यवस्था में गुणात्मक सुधार हुआ । इसका श्रेय बेशक नरसिम्हा सरकार को जाता है और अर्थशास्त्री वित्तमंत्री की व्यापक सोच को ।

जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने थे तब कांग्रेस पार्टी एकजुट थी ।न तो वहां से छिटक कर किसी ने नयी पार्टी बनायी थी और न ही किसी ने दलबदल किया था ।हालांकि राजीव गांधी के शासनकाल में दलबदल विरोधी कानून बन गया था लेकिन दलबदल करने के चाहवान कोई न कोई रास्ता निकाल लिया करते थे ।बहरहाल, प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अपनी ओर से सभी पुराने-नयों-अनुभवी-गैरअनुभवियों को सरकार में माकूल जगह देने का प्रयास किया ।हालांकि उन्होंने कुछ संवेदनशील विभाग अपने पास रखे थे फिर भी समय समय पर मंत्रिमंडल में फेरबदल के समय वह कुछ समय तक ऐसे मंत्रालयों की जिम्मेदारी स्वयं ओढ़ लिया करते थे जब तक वहां स्थायी व्यवस्था नहीं हो जाती थी ।कई मंत्रियों को एक से अधिक मंत्रालयों का दायित्व भी सौंपा जाता था ।उन्होंने शरद पवार को रक्षामंत्री बनाया । शंकरराव चव्हाण को गृहमंत्री,बलराम जाखड़ को कृषिमंत्री, माधवसिंह सोलंकी को विदेशमंत्री, बाद में दिनेश सिंह और प्रणव मुखर्जी ने भी यह मंत्रालय संभाला ।इसी प्रकार मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह और उनके बाद माधवराव सिंधिया भी रहे, रेलमंत्री सी के जाफर शरीफ,स्वास्थ्य मंत्री माखनलाल फोतेदार और बी शंकरानंद और ए.आर.अंतुले रहे जबकि कानूनमंत्री विजय भास्कर रेड्डी और स्वयं पीवी नरसिम्हा राव भी रहे ।ए. के. एंटनी नागरिक आपूर्ति विभाग के मंत्री रहे तो शीला कौल शहरी विकास मंत्री,सतीश शर्मा पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री,नागरिक उड्डयन और पर्यटन मंत्रलाय माधवराव सिंधिया और गुलाम नबी आज़ाद दोनों ने बारी बारी से संभाला । जल संसाधन और संसदीय कार्यमंत्री विद्या चरण शुक्ल,कल्याणमंत्री सीताराम केसरी, उद्योगमंत्री के. करुणाकरन, श्रममंत्री पी ए संगमा,वारिज्य मंत्री पी चिदंबरम और प्रणव मुखर्जी,विद्युतमंत्री एनकेपी साल्वे,कपड़ा मंत्री अशोक गहलोत । इनके अतिरिक्त आर के धवन,जगन्नाथ मिश्र, कल्पनाथ राय,कमल नाथ,सुख राम,एच आर भारद्वाज, गिरधर गमांग,संतोष मोहन देव,राजेश पायलट, अजित सिंह,अजीत कुमार पांजा, तरुण गोगोई, जगदीश टाइटलर,मार्गरेट अल्वा, सलमान खुर्शीद, ममता बनर्जी,कुमारी सैलजा, पी आर कुमारमंगलम, मुकुल वासनिक,सुरेश कलमाड़ी,अरविंद नेताम,सुरेन्द्रजीत सिंह अहलूवालिया,कृष्णा साही,विनोद शर्मा, एमओएच फारूक, सुखबंस कौर भिंडर, पी जे कुरियन, असलम शेर खान,प्रेम खांडू थुंगन,गिरिजा व्यास आदि भी किसी न किसी रूप में मंत्री रहे थे ।

पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक लोकसभा के स्पीकर का दर्जा अमेरिकी निम्न सदन प्रतिनिधिसभा जैसा रहा अर्थात राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति के बाद माननीय स्पीकर, प्रधानमंत्री से ऊपर । पांचवें लोकसभा अध्यक्ष गुरदयाल सिंह ढिल्लों (8 अगस्त,1969-19 मार्च,1971 तथा 22 मार्च,1971-1 दिसंबर,1975) को इंदिरा गांधी ने पहले कनाडा में भारतीय उच्चायुक्त (1980-82) बनाया और उसके बाद राजीव गांधी ने उन्हें अपनी सरकार में कृषिमंत्री (12 मई,1986-14 फरवरी,1988) बनाकर इस पद का अवमूल्यन कर दिया । उसी लीक को अपनाया प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने डॉ बलराम जाखड़ को कृषिमंत्री बना कर । पहले के तीन स्पीकरों में एम ए अय्यंगार को बिहार का राज्यपाल बनाया गया और सरदार हुकम सिंह को राजस्थान का ।नीलम संजीव रेड्डी स्पीकर से राष्ट्रपति (25 जुलाई,1977-25 जुलाई,1982) चुने गये जबकि पहले स्पीकर गणेश वासुदेव मावलंकर का पद पर रहते हुए ही 27 फरवरी,1956 को निधन हो गया था और उनके बचे कार्य की पूर्ति तत्कालीन डिप्टी स्पीकर एम ए अय्यंगार ने पूरी की थी जो 1957 में विधिवत स्पीकर चुने गये । डॉ बलराम जाखड़ भी मध्यप्रदेश के राज्यपाल (20 जुलाई,2004-19 जुलाई,2009) रहे । जब मैंने पी वी नरसिम्हा राव से लोकसभा के स्पीकर रहे बलराम जाखड़ को कृषिमंत्री बनाये जाने की वजह जाननी चाही तो उनका तर्क था कि मैंने एक नजीर का अनुसरण किया है ।जब मैंने उन्हें बताया कि पंडित जवाहरलाल नेहरू तो माननीय स्पीकर का पद प्रधानमंत्री से ऊपर मानते थे तो आप समझते नहीं कि मंत्री बनने पर वह व्यक्ति प्रधानमंत्री के अधीन हो जाता है ।पीवी नरसिम्हा राव का उत्तर था कि जाखड़ साहब ‘कृषक ऋषि’ हैं इसलिए उनसे बेहतर दूसरा कोई कृषि और किसान कल्याण मंत्री हो ही नहीं सकता था ।उसके बाद तो लोकसभा स्पीकर विभिन्न पदों पर नियुक्त होते रहे हैं ।

2004 को हम ‘राजनीति का स्वर्णिमकाल’ कह सकते हैं जब निर्दल राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम वैज्ञानिक थे,कांग्रेस पार्टी के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री तथा लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चट्टर्जी (1929-2018) मार्क्सवादी ऐडवोकेट । ऐसी आदर्श स्थिति भारतीय राजनीति में बहुत दिनों बाद देखने को मिली थी ।2004 में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन प्राप्त था जिसके चलते सोमनाथ चट्टर्जी माननीय स्पीकर बनाये गये थे ।लेकिन डॉ मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा अमेरिका से परमाणु मुद्दे पर समझौता करने के विरोध में 2008 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था ।उसने स्पीकर सोमनाथ चट्टर्जी को जब अपने पद से त्यागपत्र देने के लिए कहा तो उन्होंने यह तर्क देकर इस्तीफा देने से मना कर दिया कि स्पीकर चुने जाने के बाद उनका किसी पार्टी से संबंध नहीं रहता है,वह तटस्थ हो जाता है ।लेकिन सोमनाथ चट्टर्जी की दलीलों को खारिज करते हुए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलितब्यूरो ने उन्हें 23 जुलाई, 2008 को पार्टी अनुशासन के उल्लंघन की बिना पर निष्कासित कर दिया । सोमनाथ चट्टर्जी निष्कासन को जीवन के ‘सबसे दुखद दिनों में से एक’ मानते थे।यह वही पोलितब्यूरो है जिसने 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने की अनुमति नहीं दी थी ।

जब तक पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री रहे,पार्टी एकजुट रही और वह ही पार्टी अध्यक्ष भी रहे ।उन्होंने 1991 में आर्थिक संकट के बाद देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत करने का जोखिम उठाया ।एक बार मैंने उनसे कहा कि राजीव गांधी भी ‘समाजवाद’ से हटकर आर्थिक सुधार संबंधी उदारीकरण के बारे में सोच रहे थे लेकिन पार्टी के बड़े नेताओं के दबाव के चलते यह ‘क्रन्तिकारी’ कदम नहीं उठा पाये ।लेकिन उन्होंने विज्ञान,प्रौद्योगिकी संबंधित उद्योगों के लिए सरकारी समर्थन बढ़ाया ।कंप्यूटर,
एयरलाइंस,रक्षा और दूरसंचार पर आयात कोटा,कर और शुल्क कम कर दिये ।1986 में महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) का निर्माण हुआ और पीसीओ के ज़रिये ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीफोन नेटवर्क विकसित किया ।उन्होंने 1990 के बाद
लाइसेंस राज को काफी कम करने के उपाय किये ।जब मैंने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से पूछा कि आपने भी तो 1995 में पोखरण में दूसरा परमाणु परीक्षण करने की पूरी तैयारी कर रखी थी फिर उसे स्थगित क्यों कर दिया, बिना किसी लागलपेट के उन्होंने स्वीकारा क्योंकि हमारे कार्यक्रम की जानकारी अमेरिका को हो गयी थी जिसके दबाव के चलते हमें परमाणु परीक्षण का अपना कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा ।साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि 1998 में जब अटलबिहारी वाजपेयी की तीसरी बार सरकार बनी तो मैंने रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार एपीजे अब्दुल कलाम के साथ उनसे मिलकर बता दिया कि ‘परमाणु परीक्षण की तैयारी पूरी है जब चाहो धमाका कर दो’।और उन्होंने सचमुच पोखरण में धमाका करने का साहस कर दिखाया ।पहला परमाणु परीक्षण इंदिरा गांधी ने 18 मई, 1974 को पोखरण परीक्षण रेंज में किया था जिसे नाम दिया ‘स्माइलिंग बुद्धा’।

पीवी नरसिम्हा राव, अटलबिहारी वाजपेयी और सोमनाथ चट्टर्जी की दोस्ती के बारे में मैं जानता था ।वे लोग अक्सर राव साहब के मोतीलाल नेहरू मार्ग के निवास पर देर शाम को मिला करते थे । एक बार मैंने जब इस दोस्ती के बारे में राव साहब से पूछा तो पहले वह मुस्कुराए और फिर बोले कि ‘आप हमारी जासूसी करते हैं क्या?’ जब मैंने उन्हें बताया कि मुझे विश्वस्त सूत्रों से पता चला है तो वह हंसे और बोले,”समझ गया ।उन्हीं अटल जी ने जिनके आप बहुत क्लोज़ हैं लोकसभा सचिवालय से लेकर अमेरिका तक। हां यह बात सही है ।ऐसी मुलाकातों में पार्टी पॉलिटिक्स पर चर्चा नहीं होती।हम लोग भी नॉर्मल इंसान हैं ।तमाम तरह के विषय और मुद्दे होते हैं एक दूसरे से बातचीत करने के लिये ।आप लोगों की तरह हम लोग भी ‘स्वीट नथिंग्स’ करते रहते हैं ।इस तरह से अच्छा और क्वालिटी टाइम गुज़र जाता है जो हमें रिचार्ज करता है ।” मैंने विषय बदलते हुए कहा कि आज की राजनीति में सत्तापक्ष और विपक्ष में सद्भाव और सौहार्दपूर्ण संबंध लोकतंत्र की मज़बूती के साथ देश की एकता और अखंडता के लिए इस तरह की ‘निजी मुलाकातें’ भी अनिवार्य हैं ।

मेरे यह पूछे जाने पर कि 1994 में संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार आयोग में एक बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए आपने अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही क्यों प्रतिनिधिमंडल जिनेवा भेजा था। उनका उत्तर था ताकि दुनिया को यह पता चल सके कि कश्मीर के मामले में सारा देश एकजुट है और दूसरे अटलबिहारी वाजपेयी विदेश नीति के विशेषज्ञ (1977-80 तक देश के विदेशमंत्री रहे) भी हैं ।वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान के प्रस्ताव को सफलतापूर्वक विफल कर दिया जो कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाता था । जब मैं इन की दोस्ती की बात करता हूं तो उसकी सार्थक मिसालें हमारे सामने हैं ।1995 में अटलबिहारी वाजपेयी की पुस्तक ‘मेरी 51 कविताएं’ का विमोचन पीवी नरसिम्हा राव ने किया था ।

हालांकि सोमनाथ चट्टर्जी भी पीवी नरसिम्हा राव के अभिन्न मित्रों में थे लेकिन उनकी सेवाएं नहीं ली गयीं।जब मैंने राव साहब से यह सवाल किया कि जब आप सत्ता में आये थे तो पूर्व यूरोपीय देशों, सोवियत संघ,चीन आदि देशों में कम्युनिस्ट सरकारें थीं ।उन देशों से जुड़े मुद्दों पर सोमनाथ चट्टर्जी भारत का पक्ष प्रखरता से रख सकते थे इस पर राव साहब का उत्तर था कि इस दिशा में मैंने भी सोचा था ।लेकिन एक तो दिसंबर,1991 को सोवियत संघ का विघटन हो गया था और पंद्रह रिपब्लिक ‘स्वाधीन देश’ बन गए थे। फिर भी सोमनाथ जी चीन के आरोपों का माकूल उत्तर देने के लिए सक्षम थे लेकिन उनके साथ एक दिक्कत थी कि इसके लिए उन्हें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलितब्यूरो की अनुमति लेनी लाजिमी थी, उस पार्टी में कोई भी नेता अपने तईं स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकता । अटलबिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के बतौरमुखिया उन्हें किसी से इज़ाजत लेने की दरकार नहीं है ।

1973-74 में ‘दिनमान’ की एक स्टोरी के सिलसिले में मैंने मार्क्सवादी नेता सोमनाथ चट्टर्जी से मिलने के लिए फोन किया तो उन्होंने मुझे अपने निवास पर आने के लिए कहा ।जब मैं उनके निवास 21,अशोक रोड पहुंचा तो यह सोचकर ठिठक गया कि क्या यह सोमनाथ चट्टर्जी का ही निवास है न।वह इसलिए क्योंकि मैं यहां बीसियों बार आ चुका था ।लोकसभा के उपाध्यक्ष (1956-62) के तौर पर सरदार हुकम सिंह यहीं रहते थे ।स्पीकर (1962-67) बनने के बाद वह 20,अकबर रोड (स्पीकर निवास) शिफ्ट हुए थे ।इस ऊहापोह की स्थिति से निकल कर जब मैं सोमनाथ चट्टर्जी से मिला तो जिस कक्ष में हम बैठे थे वहां वकीलों की भारी भरकम किताबों के अतिरिक्त कुछ साहित्यिक पुस्तकें भी सुसज्जित थीं । अपने विषय पर बातचीत करने बाद मैंने जब उनसे पूछा कि आपकी तमाम प्रकार की व्यस्तताओं के चलते क्या आप इन साहित्यिक पुस्तकों को पढ़ने के लिए समय निकाल पाते हैं ?वह हंसे और बोले, ‘ये तो हमारी आत्मा है,इनके बिना हम कुछ नहीं ।’

जब मैंने सोमनाथ चट्टर्जी को यह बताया कि इस कोठी में तो मैं बीसियों बार आ चुका हूं तो उन्होंने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए पूछा,वह कैसे! मैंने उन्हें बताया कि जब सरदार हुकम सिंह डिप्टी स्पीकर थे, वह यहीं रहते थे और स्पीकर बनने पर 20,अकबर रोड गये थे ।मैं सोच रहा था कि क्या इतिहास अपने आप को दोहराने वाला तो नहीं है ।अब की बार सोमनाथ चट्टर्जी ज़ोर से हंसे और बोले,हम सत्तापक्ष में नहीं,विपक्ष के नेता हैं और वह भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जिसके सत्ता में आने के दूर दूर तक चांस नहीं हैं । उनका तर्क तो अपनी जगह सही था लेकिन राजनीति की अपनी रणनीति होती है ।2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार तत्कालीन मार्क्सवादी महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के प्रयासों से वजूद में आयी थी जिसके चलते लोकसभा के स्पीकर का पद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को सौंपा गया जिसने सोमनाथ चट्टर्जी का इस पद के लिए चयन किया । उनके स्पीकर (2004-2009) बनने के बाद एक बार मैं अपनी सहयोगी श्रीमती नफ़ीस खान के साथ उनसे तब मिला जब वह ‘मासूम’ विशेष स्कूल के बच्चों को लेकर 20, अकबर रोड गयी थीं ।नफ़ीस जी के साथ मुझे आया देखकर सोमनाथ चट्टर्जी पहले चौंके और फिर हंसते हुए बोले,’वाकई इतिहास अपने आपको दोहराता है ।’ बाद में मैंने नफ़ीस जी को सोमनाथ चट्टर्जी से अपनी पहली मुलाकात का किस्सा सुनाया ।सोमनाथ चट्टर्जी 1968 से 2008 तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे।1971 में पहली बार लोकसभा के सदस्य बने ।इसके बाद वह नौ बार चुने गये सिवाय 1984 के जब उन्हें जादवपुर लोकसभा क्षेत्र से ममता बनर्जी ने हराया ।1989 से 2004 तक वह लोकसभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे ।

पीवी नरसिम्हा राव से प्रधानमंत्री निवास 7, रेसकोर्स रोड में (वर्तमान लोक कल्याण मार्ग) मिलने के भी अवसर मिले ।सबसे महत्वपूर्ण अवसर था समाजसेवी उद्यमी संजय डालमिया के एक एनजीओ आर्गेनाइजेशन ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग ऐंड फ्रेटरनिटी (ओयूएफ) के सौजन्य से आयोजित एक पुरस्कार समारोह का । 1982 में संजय डालमिया द्वारा स्थापित इस संगठन का उद्देश्य कला,संस्कृति और समाज सेवा के क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सहायता से समाज के विभिन्न वर्गों में बुनियादी मानवीय संबंधों और मूल्यों के आलोक में राष्ट्रीय एकता और अखंडता तथा आपसी भाईचारे की भावना को विकसित करना है । इन मूल्यों और सिद्धांतों को आत्मसात करते हुए इस संगठन ने विभिन्न क्षेत्रों में योगदान किया है जिसमें रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार प्रमुख हैं । इस पुरस्कार के लिए उन लेखकों, पत्रकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं के नामों पर विचार किया जाता है जिन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता,अखंडता तथा भाईचारे की भावना को नज़र में रख लेखन और समाज सेवा का कार्य किया होता है । पुरस्कृत व्यक्तियों और स्वयंसेवी संस्था का चुनाव एक चयन समिति करती है ।हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं के पत्रकारों और लेखकों को भी सम्मानित किया जाता है । शुरू शुरू में ये पुरस्कार केवल भारतीय पत्रकारों, लेखकों और स्वयंसेवी संस्थाओं को ही दिए जाते थे लेकिन बाद में ‘सार्क’ देशों के लेखकों, पत्रकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं के योगदान को लेकर उन्हें भी इस सद्भावना पुरस्कार से नवाजा गया ।इन वार्षिक सद्भावना पुरस्कारों की बहुत अहमियत और महत्व रहा करता था । ये पुरस्कार 1983 से लेकर 2003 तक जारी रहे ।

इन सद्भावना पुरस्कारों की चर्चा उस समय अधिक हुई जब देश के चोटी के पत्रकारों और लेखकों को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों के अतिरिक्त कई प्रतिष्ठित हस्तियों ने उन्हें सम्मानित किया ।पुरस्कार प्रदान करने वाली हस्तियों में राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा थे तो प्रधानमंत्रियों में पीवी नरसिम्हा राव, एच डी देवगौड़ा और कई सूचना और प्रसारणमंत्री थे । अन्य उल्लेखनीय लोगों में परम पावन दलाई लामा, मदर टेरेसा, शहीदे आज़म भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह, श्री श्री रविशंकर, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के जस्टिस एम.एन.वेंकटचलैया,अभिनेता दिलीप कुमार,उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और दिल्ली की श्रीमती शीला दीक्षित के अलावा ‘फ़्रंटलाइन’ के संपादक एन. राम और इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता आदि थे ।क्योंकि काफी समय तक मैं भी चयन समिति का सदस्य था इसलिए कमोबेश हर पुरस्कार समारोह में उपस्थित रहता था ।पुरस्कार समारोह से एक दिन पहले संजय डालमिया पुरस्कृत लोगों के सम्मान में रात्रि भोज देते थे जिसमें चयन समिति के सदस्य और मुख्य अतिथि को भी आमंत्रित किया जाता था ।ऐसे अवसर पर मेरी दिलीप कुमार और शेखर गुप्ता से अलग से विशेष बातचीत हुई थी।

हालांकि करीब डेढ़ सौ लोगों को सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया गया था लेकिन मिसाल के तौर पर मैं कुछ नामों का ही उल्लेख करूंगा । अंग्रेज़ी पत्रकारों में जहां शामलाल (टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रधान संपादक), खुशवंत सिंह,फातिमा ज़कारिया,एम जे अकबर,कुलदीप नैयर,अनीस जंग,एच के दुआ, असगर अली इंजीनियर,प्रफुल्ल बिदवई,डॉ मुशीरुल हसन आदि थे तो हिंदी में राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी,सुरेन्द्र प्रताप सिंह, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती उदयन शर्मा, रामशरण जोशी,असगर वजाहद, राजेंद्र यादव,मनोहर श्याम जोशी,उदय प्रकाश आदि जबकि उर्दू के नामी गिरामी पत्रकारों में शाहिद सिद्दीक़ी, ईशरत अली सिद्दिकी,आबिद अली खान, मनोरमा दीवान, अहमद सैयद मलिहाबादी, दीवान बरिंदरनाथ, महमूद हुसैन जिगर,रईस फरिदी आदि।

प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री निवास पर जिन लोगों को सम्मानित किया वे थे आलोक मेहता (हिंदी), निखिल चक्रवर्ती (अंग्रेज़ी), महबूब हुसैन जिगर (उर्दू), वीकेएम कुट्टी (मलयालम), नारायण सुर्वे (मराठी), डी एन बेज़बरुआ (असमिया), फाजिल कश्मीरी (कश्मीरी), कमलेश्वर (इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) तथा गोविंद भाई श्रॉफ (स्वयंसेवी संस्था)। यह कार्यक्रम काफी देर तक चला लेकिन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने न किसी प्रकार की जल्दबाजी की और न ही हड़बड़ी मचायी ।उन्होंने तो सभी पुरस्कृत लोगों के साथ घुलमिल कर बातचीत की । निखिल चक्रवर्ती की पत्रिका ‘मेनस्ट्रीम’ को वह उनकी धारदार पत्रकारिता के लिए जानते थे जिसके चलते उनके साथ थोड़ी लंबी बातचीत की । उनकी सांसद पत्नी रेणुका चक्रवर्ती को उनके दमदार भाषणों के लिये उनसे परिचित थे ।

प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा ने राव संजय डालमिया के एनओजी ओयूएफ के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि पत्रकारिता की तमाम विधाओं को समझना और पुरस्कृत करना कोई सरल कार्य नहीं है ।साहित्य अकादेमी के अतिरिक्त अन्य किसी संस्था द्वारा अभी तक तो हमने एक या दो भाषाओं के पत्रकारों को पुरस्कृत और सम्मानित करते हुए ही देखा है लेकिन आप ने सम्मान का दायरा व्यापक कर क्षेत्रीय प्रतिभाओं को भी पहचाना है ।यह बहुत ही प्रशंसनीय कार्य है ।मैं अक्सर अंग्रेज़ी,हिंदी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं की अखबारें भी पढ़ता हूं लिहाजा आपके द्वारा सम्मानित ज़्यादातर पत्रकारों की लेखनी से मैं परिचित हूं और कुछ को निजी तौर पर जानता भी हूं ।श्रीमती नफ़ीस खान ने अभी तक के सम्मानित विद्वानों की जो सूची मुझे दिखाई है उससे पता चलता है कि पुरस्कारों के लिए पत्रकारों का चयन करते समय चयन समिति को कितनी मशक्कत करनी पड़ती होगी ।नफ़ीस जी की बड़ी बहन अनीस जंग से ही न सिर्फ मैं परिचित हूं बल्कि इनके पूरे परिवार को मैं जानता हूं ।सामाजिक सरोकारों में स्वयंसेवी संस्थाओं का बहुत ही महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान रहता है ।इस ओर शायद ही किसी और संस्था का ध्यान गया हो जो विद्वानों को सम्मानित करती हैं ।निस्संदेह आपकी संस्था पत्रकारों के अतिरिक्त सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों को सद्भावना
पुरस्कारों के दायरे में रखकर उनके योगदान की कद्र करती है ।मैं पुरस्कृत विद्वानों और आयोजकों को हृदय से बधाई देता हूं । उन्होंने पुरस्कृत विद्वानों के साथ साथ मुझसे भी हाथ मिलाते हुए कहा कि ‘आपको यहां देखकर अच्छा लगा ।’

आर्थिक उदारीकरण के चलते पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने जो शोहरत अर्जित की थी समय गुजरने के साथ वह घोटालों और विवादों में घिरती चली गयी ।उस पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे ।कांग्रेस पार्टी भीतर से भी कई तरह के विभाजनों,संघर्षों तथा गुटीय विवादों से ग्रस्त रही । 1995 में अर्जुन सिंह और नारायणदत्त तिवारी द्वारा अखिल भारतीय इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) पार्टी बनाने के लिए पार्टी से अलग होने की घटना ने कांग्रेस (इंदिरा) के भीतर आंतरिक विभाजन को उजागर कर दिया । 1996 में अगली लोकसभा के चुनाव संभावित थे ।उससे पहले पार्टी के भीतर का बंटवारा आने वाले नतीजों की तरफ़ साफ इशारा कर रहा था । इस बीच कश्मीर में हिंसा काफी बढ़ गयी और पंजाब में भी जातीय उन्माद से तनाव की स्थिति पैदा हो गयी । चुनाव से कुछ महीने पहले एक बड़ा घोटाला सामने आया जैन हवाला कांड । इसके अनुसार इस्पात और विद्युत क्षेत्र के उद्योगपति जैन ने सभी प्रमुख दलों के राजनेताओं को उनके एहसान के बदले रिश्वत दी थी ।बताया जाता है कि इसमें राव काबीना के तीन सदस्य,कांग्रेस (तिवारी) के अर्जुन सिंह,भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना, जनता दल संसदीय दल के नेता शरद यादव सहित 115 लोगों के नाम शामिल थे।लालकृष्ण आडवाणी ने संसद सदस्य पद से इस्तीफा दे दिया और मदनलाल खुराना ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से ।आडवाणी भाजपा के अध्यक्ष के रूप में चुनाव प्रचार का नेतृत्व करते रहे लेकिन मदन लाल खुराना की वापसी नहीं हुई ।

27 अप्रैल,2 मई तथा 7 मई,1996 को लोकसभा की 545 सीटों में से 543 पर मतदान हुआ । इन घोटालों ने नरसिम्हा राव की सरकर पर प्रतिकूल प्रभाव डाला ।जहां उन्हें 28.80% मत मिले वहां सीटें 140 जबकि 20.29 प्रतिशत पाने वाली भाजपा को 161 सीटें मिलीं । कांग्रेस ने 104 सीटें गांवाई तो भाजपा ने 41 सीटों की बढ़त प्राप्त की ।बहुमत किसी भी पार्टी को नहीं मिला, भाजपा बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी ।इन चुनाव परिणामों का असर यह हुआ कि नरसिम्हा राव ने सितम्बर, 1996 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । उनके स्थान पर शरद पवार को पार्टी अध्यक्ष बनने की उम्मीद थी लेकिन बने सीताराम केसरी । वह दस बरसों से पार्टी के कोषाध्यक्ष थे ।जनवरी,1997 को उन्हें सर्वसम्मति से कांग्रेस संसदीय दल का अध्यक्ष भी चुना गया । लेकिन केसरी सदा विवादों के घेरे में रहे।अटलबिहारी वाजपेयी की 13 दिवसीय सरकार गिर जाने के बाद पहले कांग्रेस ने एच डी देवगौड़ा की सरकार को बाहर से समर्थन दिया ।उसके गिर जाने के बाद इंदरकुमार गुजराल की सरकार को ।लेकिन 28 नवंबर,1997 को कांग्रेस ने उनसे अपना समर्थन वापस ले लिया जिसके चलते लोकसभा भंग हो गयी ।मध्यावधि चुनाव के लिए
पर्याप्त तैयारी न होने का आरोप लगाते हुए रंगराजन कुमारमंगलम और असलम शेर खान और कुछ अन्य नेताओं ने केसरी के खिलाफ खुलकर नाराजगी जताते हुए पार्टी छोड़ दी ।इसके फलस्वरूप सोनिया गांधी ने पार्टी के प्रचार की बागडोर अपने हाथ में ले ली और कांग्रेस को 141 सीटें प्राप्त हुईं ।चुनावी हार के बाद मार्च,1998 में केसरी को उनके पद से हटा दिया गया और सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त किया गया ।1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 182 (21 सीटें अधिक) और कांग्रेस को 141(एक सीट ज़्यादा)।मतदान का प्रतिशत बराबर-सा ही रहा।भाजपा को 25.59% तथा कांग्रेस को 25.82%। एक बार फिर त्रिशंकु लोकसभा वजूद में आयी।

16 मई, 1996 तक पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री रहे ।तब तक एक पार्टी (कांग्रेस) की सरकार थी ।उसके बाद राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो गया । उसके बाद कई सरकारें आयीं और गयीं अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार (16 मई,1996-28 मई,1996), एच डी देवगौड़ा (1 जून, 1996-21 अप्रैल,1997), इंदरकुमार गुजराल (21 अप्रैल,1997-19 मार्च,1988) और अंत में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार (19 मार्च,1988-13 अक्टूबर,1999 और 13 अक्टूबर,1999 से लेकर 22 मई,2004 तक)।अटलबिहारी वाजपेयी ने ही गठबंधन सरकारों की नींव रखी ।सही मायने में अगर देखा जाए तो 1977 में मोरारजी देसाई ने जनता पार्टी की जो साकार बनायी थी वह पहली गठबंधन की सरकार थी जिसमें विभिन्न पार्टियों ने विलय करके उसे जनता पार्टी का नाम दिया था । क्योंकि वह प्रयोग असफल हो गया था लिहाजा 1998 में अटलबिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन किया जिसमें सभी दलों की अपनी अपनी अहमियत थी लेकिन सत्तापक्ष अथवा प्रतिपक्ष में वह एकजुट रहते थे ।इस लिहाज़ से अटल जी ने 1998 में बीस से अधिक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को एनडीए गठबंधन में सफलतापूर्वक संगठित किया जो आज तक वजूद में है ।बेशक 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में भाजपा को अपने तईं अकेले स्पष्ट बहुमत प्राप्त था लेकिन उसने एनडीए गठबंधन के धर्म को निभाया जिसे आज तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जारी रखा है ।

2004 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस 145 सीटें जीतकर बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी तो वह अकेले सरकार गठन करने की स्थिति में नहीं थी । उसके उलट भाजपा को 138 सीटें प्राप्त हुई थीं ।तब कांग्रेस नेतृत्व ने भी अटलबिहारी वाजपेयी के नक्शेकदम पर चलते हुए समानधर्मा पार्टियों के साथ मिलकर एक गठबंधन बनाने पर विचार किया । इसमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने अहम भूमिका निभायी ।उस चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 43, समाजवादी पार्टी को 36, राष्ट्रीय जनता दल को 24,बहुजन समाज पार्टी को 19,द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (डीएमके) 16, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 9, कम्युनिस्ट पार्टी को10,लोक जनशक्ति पार्टी को 4 आदि को सीटें मिली थीं ।क्योंकि हरकिशन सिंह सुरजीत की सभी पार्टियों में बहुत इज्जत थी लिहाजा उन्होंने सभी दलों को जोड़कर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की आधारशिला रखी ।प्रधानमंत्री कांग्रेस का बना,सोनिया गांधी ने स्वयं न यह पद ग्रहण कर डॉ मनमोहन सिंह के नाम को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तावित किया ।यह गठबंधन 335 सदस्यों का हो गया ।मार्क्सवादी नेता सोमनाथ चट्टर्जी को लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया ।सभी लोगों के विचार विमर्श के बाद 2004 में बना संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) 2014 तक सत्ता में रहा ।

लेकिन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जिस तरह से ‘आंधी’ चली कि सभी विपक्षी पार्टियां ‘पंगु’ सी हो गयीं । कांग्रेस बड़ी पार्टी के तौर पर ज़रूर उभरी लेकिन उसे कुल सदस्यों की दस प्रतिशत सीटें प्राप्त नहीं हुईं जिसकी वजह से उसे नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ ।अपने आप को असंगत होता देख विपक्ष के नेताओं ने एकजुट होने का निर्णय किया जिसके फलस्वरूप 17 जुलाई, 2023 में बंगलूरू में 28 विपक्षी पार्टियों का एक और गठबंधन अस्तित्व में आया नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव एलायंस (इंडिया)। इस गठबंधन की एकता और एकजुटता के चलते ही 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 240 सीटों पर सिमट गयी और उसे अपने एनडीए के सहयोगियों की सहायता से सरकार का गठन करना पड़ा ।विपक्ष भी मज़बूत होकर उभरा ।जहां एनडीए के सदस्यों की संख्या 293 है वहां इंडिया गठबंधन की 235।इस बार उसका प्रतिपक्ष का नेता भी है राहुल गांधी ।2024 के बाद इंडिया गठबंधन एक साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है ।बिहार विधानसभा चुनाव में स्थानीय तौर पर तो वह महागठबंधन कहलाता है लेकिन सही मायने में वह है इंडिया गठबंधन ही ।

जैसा हमने कहा कि पीवी नरसिम्हा राव के बाद एक पार्टी के शासन का अगर ‘अंत’ नहीं हुआ है तो इसे ‘अतीत’ तो कहा ही जा सकता है ।लगता है भारत में भी जर्मनी और ब्रिटेन की तरह गठबंधन की राजनीति शुरू हो गयी है ।प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से मुक्त होने के बाद राव अपने मोतीलाल नेहरू रोड वाले बंगले में ही ज़्यादातर रहते थे,बाहर कम ही निकलते थे ।मैं कभी कभी उनसे मिलने के लिए चला जाता तो उन्हें कभी पढ़ता या लिखता हुआ पाता ।मैंने एक बार पूछ ही लिया कि ‘आसपास भीड़ न देखकर कैसे लगता है?’ मुस्कुराए और बोले,’कुछ नहीं ।लोग आते जाते रहते हैं लेकिन मेरी जिंदगी तो ये ढेर सारी किताबें और अखबारें हैं ।’और लेखन! उत्तर दिया कि ‘एक राजनीतिक उपन्यास लिख रहा हूं ।उसी में बहुत वक़्त गुज़र जाता है ।कई तरह के नोट्स इधर-उधर बिखरे पड़े हैं,सभी को इकट्ठा कर रहा हूं ।’ मुझसे बोले,’और आजकल आपकी कैसी मसरूफियत है ।’ मैंने उन्हें बताया कि ‘संडे मेल’ का प्रकाशन स्थगित हो गया है ।कुछ सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ हूं और ज्ञानवर्धन के लिए आपके पास आ जाता हूं ।कभी आपका मुझे कुछ बताने का मन हो तो एक्सक्लूसिव स्टोरी बन जाएगी,छापने वालों की कमी नहीं ।’फिर हंसे और बोले,’अभी कुछ बोलने-कहने का मौजू वक़्त नहीं।जब कुछ होगा तो सबसे पहले आपको ही याद करूंगा ।’फिर शरारतन मैंने पूछ लिया,’यारों का क्या हाल है’वैसे ही लहजे में बोले,’कभी कभी आ जाते हैं ।एक यार तो कभी कभी पीएम भी बन जाता है ।’ उसके बाद अपने आप ही मुस्कुराए और कहा कि ‘जब पक्का पीएम बन जाएगा तो उसे एक जिम्मेदारी सौंपनी है ।’

क्योंकि राव साहब अपने लेखन कार्य में व्यस्त रहते थे उनसे यदाकदा मिलता तो था लेकिन कभी कभी उन्हें मैं तनाव की स्थिति में भी पाता था ।कुछ मैं समझता था ।इस बात से वह भी वाकिफ थे लेकिन मुंह से हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोलता था ।उनका उपन्यास ‘द इनसाइडर’ लगभग तैयार हो चुका था ।इसमें उन्होंने अपने जीवन की मिलती जुलती घटनाओं के संदर्भ में भारतीय राजनीति में एक व्यक्ति के उत्थान का वर्णन किया है ।कभी कभी उन्हें मैंने कांग्रेस पार्टी की भीतरी उठापटक से भी परेशान होता पाया ।उन्हें 1996 और 1998 के चुनाव परिणामों से ऐसे लगने लगा था कि अब हमारे देश में भी गठबंधन सरकारों की आमद हो गयी है ।पहले अटलबिहारी वाजपेयी का एनडीए गठबंधन और अब 2004 में यूपीए गठबंधन उनकी सोच की पुष्टि करते हैं । बेशक राव साहब से मेरा मिलना-जुलना सीमित हो गया था लेकिन समाप्त नहीं हुआ था ।जब मैंने उन्हें डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने के सोनिया गांधी के फैसले के लिए बधाई दी तो इसे कांग्रेस नेतृत्व का ‘सर्वश्रेष्ठ’ निर्णय बताते हुए संतोष व्यक्त किया था ।सोमनाथ चट्टर्जी को लोकसभा के अध्यक्ष चुने जाने को भी यूपीए का ‘सर्वोत्तम’ फैसला बताया था ।

पीवी नरसिम्हा राव अपने जीवन में बड़े बड़े पदों पर रहे हैं बावजूद इसके मैंने उन्हें जीवन के आखिरी दिनों में आर्थिक परेशानियों का सामना करते पाया । बताया जाता है इन परेशानियों से उबरने के लिए वह हैदराबाद स्थित बंजारा हिल्स का अपना घर तक बेचने के बारे में सोचने लग गए थे । 9 दिसंबर, 2004 को 83 बरस की आयु में उनका दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया ।उनके अंतिम संस्कार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृहमंत्री शिवराज पाटिल, वित्तमंत्री पी चिदंबरम,भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी तथा अन्य कई गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए ।पीवी नरसिम्हा राव की याद में ‘ज्ञान भूमि’ के नाम से एक स्मारक हैदराबाद के संजीवैया पार्क में बनाया गया है । राव को 9 फरवरी, 2024 को नरेंद्र मोदी सरकार ने भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ (मरणोपरांत) से सम्मानित किया । क्या संयोग है कि 20 बरस बाद राव के प्रिय सहयोगी रहे डॉ मनमोहन सिंह का निधन भी दिसंबर माह में एम्स में ही हुआ-राव का 9 दिसंबर,2004 और डॉ सिंह का 26 दिसंबर,2024।

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