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मैंने तीन सदियाँ देखी हैं – 115 | Pavitra India

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मोरारजी देसाई: पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री

पिछली बार मुझे लिखना तो था देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री पर लेकिन बीच में 19वीं सदी जन्मा राजा महेंद्र प्रताप की याद हो आयी ।उनके साथ मेरी लंबी बातचीत हुई थी जिसमें उन्होंने देश और विदेश के उन तमाम आंदोलनों का विस्तृत उल्लेख किया था जिसे पहले लिखने का मैं मोह त्याग नहीं पाया ।उन्होंने अपने 32 वर्ष के विदेश प्रवास में भारत से ब्रिटिश शासकों को उखाड़ फेंकने के कितने प्रयास किये उन सभी का ज़िक्र है ।इस बार भी मैं शास्त्री जी पर लिखने से पहले 19वीं सदी में जन्मे देश के चौथे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के बारे में कुछ लिखना चाहूँगा ।

इसी पोस्ट में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर,1902-8 अक्टूबर,1979), जो जेपी और लोकनायक के नाम से भी विख्यात थे,द्वारा सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियों को एकजुट कर जनता पार्टी का गठन,लोकसभा में जीत हासिल कर मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला भी शामिल है । यह निर्णय लेना कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि चौधरी चरणसिंह और बाबू जगजीवन राम का भी उन पर दबाव था लेकिन जेपी और आचार्य जे बी कृपलानी, जो भूतपूर्व कांग्रेसी थे, ने मोरारजी देसाई के पक्ष में फैसला किया ।उस समय तो स्थिति की नाजुकता को पहचानते हुए जनता पार्टी के सभी घटकों ने उनका फैसला मान लिया लेकिन चरणसिंह के मन में एक गांठ तो पड़ ही गयी थी।कालांतर में चौधरी चरणसिंह की महत्वाकांक्षा के चलते जेपी द्वारा बड़ी मुश्किल से एकजुट की गयी विपक्षी पार्टियों में दरार पड़ गयी। इस टूट ने जेपी को भी तोड़ दिया था । जेपी को छोड़ कर इन सभी हस्तियों से मुझे मिलने का अवसर लोकसभा सचिवालय में कार्यरत रहने पर ही मिला था

जेपी को मैं फ्रेंड्स कॉलोनी में उनके एक मित्र के घर पर मिला था। प्रसंग कुछ यों है ।1968 में ‘दिनमान’ के संस्थापक संपादक सच्चिदनंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय फरिश्वरनाथ रेणु के संग बिहार का अकाल कवर कर रहे थे ।अज्ञेय फोटो खींच रहे थे जबकि रेणु नोट्स ले रहे थे ।इसी दौरान उनकी जेपी से भेंट हो गयी जो अकाल का जायजा लेने के लिए आए थे ।अज्ञेय जी जानते थे कि समाज सेवा के लिए जेपी को 1965 में मैगससे पुरस्कार मिल चुका है ।ऐसी भयावाह स्थिति देखकर जेपी ने कहा था कि इस पर काबू पा पाना राज्य सरकार के बस की बात नहीं है क्योंकि यहां तो हर चार दिन बाद सरकार बदलती रहती है ।अब देखिये सतीश प्रसाद सिंह 4 दिन मुख्यमंत्री रहे ती बी पी मंडल 50 दिन,भोला पासवान शास्त्री 99 दिन ।दुर्गाप्रसाद राय जरूर 309 दिन और कर्पूरी ठाकुर 162 दिन बिहार के मुख्यमंत्री रहे ।क्या राज्य की ऐसी अस्थिर सरकारें जनता की भलाई के बारे में सोच सकती हैं ।अज्ञेय जी आप इन चित्रों की एक प्रदर्शनी दिल्ली में लगायें जिसका मैं उद्घाटन करूंगा ।क्योंकि ‘दिनमान’ टाइम्स ऑफ़ इंडिया का प्रकाशन था वहां के फोटोग्राफरो की मदद से चित्र तैयार कर अज्ञेय ने प्रदर्शनी तो लगा दी लेकिन ऐन वक़्त पर जेपी बीमार पड़ गये ।इस पर जेपी और अज्ञेय के बीच यह तय हुआ कि वह प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए एक हस्तलिखित संदेश दे देंगे ।इस काम के लिए मुझे और श्रीकांत वर्मा को एक मोटे कागज की शीट और उतने ही मोटे पैन के साथ जेपी के पास भेजा गया ।उन्होंने बहुत ही भावुक और संवेदनशील संदेश लिखा ।इसके बाद वह श्रीकांत वर्मा की ओर मुखातिब होकर बोले कि जब आप बिहार के अकाल वाले ‘दिनमान’ की प्रति प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दें तो उनसे मेरी ओर से यह निवेदन भी कर दीजिएगा कि बिना केंद्र की सहायता के इस भयावह स्थिति से नहीं निपटा जा सकता ।जेपी जानते थे श्रीकांत वर्मा की इंदिरा गांधी से निकटता के बारे में ।

यह थी जेपी से मेरी करीब एक घंटे की पहली मुलाकात ।वह मुझे अच्छी तरह से पहचान गये थे ।उसके बाद जब भी जेपी दिल्ली आते तो उनसे मिलना हो ही जाया करता था कभी कभी दूसरे पत्रकारों के साथ तो कभी कुछ मिनटों के लिए अकेले भी ।1970 में जब उन्होंने विपक्ष के साथ मिलकर इंदिरा गांधी के खिलाफ मोर्चा संभाला था उस वक़्त भी मैं उनसे मिला था ।मैं जेपी के सामाजिक सरोकारों और सर्वोदयी आंदोलन से परिचित था ।उन्होंने इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों का हर कदम पर विरोध किया ।आपातकाल के दौर में जेपी छह सौ से अधिक विरोधी नेताओं के साथ बंदी बनाये गये ।आपातकाल से पहले उन्होंने पटना की एक रैली में संपूर्ण क्रांति का आवाहन करते हुए कहा था कि उनका लक्ष्य देश से भ्रष्टाचार मिटाना,बेरोजगारी दूर करना,शिक्षा में क्रांति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं,क्योंकि ये इस व्यवस्था की उपज है ।इस व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति,’संपूर्ण क्रांति’ आवश्यक है ।इस क्रांति में ये क्रांतियाँ शामिल थीं- राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति ।इन सातों को मिलाकर संपूर्ण क्रांति होती है ।इस क्रांति में छात्रों और युवाओं का सक्रिय योगदान था ।इसीलिए जेपी का आवाहन था ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’

जेपी की इसी क्रांति से तप कर विपक्षी पार्टियां एकजुट हुई थीं । वे सभी जेपी के करिश्माई व्यक्तित्व से परिचित थीं इसलिए मोरारजी के पक्ष में लिए गए उनके निर्णय से ऊपरी तौर पर सभी एकजुट दीखे थे 29 फरवरी,1896 में भदेली (बॉम्बे प्रेसिडेंसी-वर्तमान बलसाड़ ज़िला,गुजरात) में जन्मे मोरारजी रणछोड़जी देसाई ने पीसीएस की परीक्षा पास की और ब्रिटिश सरकार की नौकरी कर ली लेकिन 1930 में उन्होंने गोधरा के डिप्टी कलेक्टर के पद से इसलिए इस्तीफा दे दिया क्योंकि 1927-28 के दंगों के दौरान उन्हें हिंदुओं के प्रति नरम रुख अपनाने का दोषी पाया गया था ।बाद में देसाई महात्मा गांधी के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये और ब्रिटिश शासन के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और कई साल जेल में रहे ।अब उनकी स्वाधीनता संग्रामियों के बीच अच्छी साख बन गयी थी ।धीरे-धीरे वह कांग्रेस के एक महत्वपूर्ण नेता बन गये ।स्वतंत्रता से पहले वह बॉम्बे के गृहमंत्री थे लेकिन 1952 में वह बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री चुने गये ।बॉम्बे राज्य का अर्थ था महाराष्ट्र और गुजरात ।1956 में बॉम्बे का पुनर्गठन हो गया जिसके कारण महाराष्ट्र और गुजरात दो अलग अलग राज्य बने और बम्बई (अब मुंबई) महाराष्ट्र की राजधानी बन गयी ।

कुछ समय बाद मोरारजी देसाई को दिल्ली बुलाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में शामिल किया गया । वह नवंबर,1956 से मार्च,1958 तक वारिज्य और उद्योग मंत्री रहे तथा 1958 से 31 अगस्त,1963 तक वित्तमंत्री ।बताया जाता है कि मोरारजी देसाई को नेहरू की समाजवादी नीतियों से इत्तेफाक नहीं था ।वह रूढ़िवादी, व्यापार समर्थक थे लेकिन उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी विचारधारा का नेता माना जाता था जिनके अपने सहयोगियों से अक्सर मतभेद रहते थे ।कुछ राजनीतिक प्रेक्षक उन्हें ‘जिद्दी’ तो कुछ ‘महत्वाकांक्षी’ मानते थे।27 मई,1964 को पंडित नेहरू के निधन के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उन्हें स्पष्ट बता दिया कि पंडित नेहरू की पसंद लाल बहादुर शास्त्री थे ।शास्त्री जी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए न्योता लेकिन वह शामिल नहीं हुए थे।

11 जनवरी,1966 को शास्त्री जी की (महज़ 18 माह सत्ता में रहे) ताशकंद में निधन के बाद मोरारजी देसाई की नज़र फिर से प्रधानमंत्री पद की ओर हुई लेकिन इस बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष कुमारस्वामी कामराज (1903-1975)उनके आड़े आ गये । बताया जाता है कि कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते कामराज को ही प्रधानमंत्री बनने की सलाह दी गयी जिसे उन्होंने तुरंत अस्वीकार कर दिया ।वह अपनी कमजोरी से वाकिफ थे ।बेशक वह बहुत कुशाग्र और राजनीतिक तौर पर प्रतिभाशाली नेता थे लेकिन उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत कम थी जैसी कि एक प्रधानमंत्री के पद के लिए अनिवार्य होती है ।इसकी वजह यह है कि 1920 के दशक से ही वह स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए थे और पढ़ाई पीछे छूट गयी थी ।स्वतंत्रता के बाद 1952-1954 में लोकसभा सदस्य रहे और 1954 से 1963 तक मद्रास (वर्तमान तमिलनाडु) के मुख्यमंत्री रहे ।उनकी वंचितों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में प्रमुख भूमिका रही ।वह थी बच्चों को मुफ्त शिक्षा शुरू करना और सभी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन योजना का विस्तार ।शिक्षा के ढांचे को बेहतर बनाने के लिए उन्हें तमिलनाडु में ‘शिक्षा का जनक’ कहा जाता है ।1958 में आईआईटी मद्रास सहित उच्च शिक्षा के नये संस्थान स्थापित किये ।वह लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहे जो उस राजनीतिक दौर में बहुत बड़ी उपलब्धि थी ।

कामराज अपने नये नये कामों से शिखर पर थे लेकिन उन्होंने महसूस किया कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद की आर्थिक चुनौतियां बढ़ रही थीं और जनता का सरकार में विश्वास कम होता जा रहा था। लिहाजा कामराज ने एक रणनीतिक और राजनीतिक योजना बनायी ताकि वरिष्ठ नेताओं को प्रशासनिक बोझ से मुक्त कर उन्हें पार्टी के जमीनी नेटवर्क को मजबूत करने के काम से जोड़ा जाये और इसकी वैचारिक नींव को पुनर्जीवित किया जा सके ।यह आपरेशन ज़रूरी इसलिए था कि कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे अपनी ताक़त खो रही थी और कामराज ने उसके पुनर्निर्माण की ज़रूरत महसूस की ।

उन्होंने खुद पहल करते हए 2 अक्टूबर,1963 को अपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया ।इसके बाद उन्होंने प्रस्ताव रखा कि सभी वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए और अपनी ताकत कांग्रेस को फिर से मजबूत करने में लगानी चाहिए ।उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को सुझाव दिया कि वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को पार्टी संगठन के काम के लिए मंत्री पद छोड़ देना चाहिए ।इस सुझाव को ‘कामराज योजना’ कहते हैं ।कांग्रेस के छह केंद्रीय मंत्रियों और छह मुख्यमंत्रियों ने इसका अनुसरण किया और अपने पदों से इस्तीफा दे दिया ।इस्तीफा देने वाले मंत्री थे तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, वित्तमंत्री मोरारजी देसाई, परिवहन एवं संचारमंत्री जगजीवन राम, खाद्य और कृषिमंत्री एस के पाटिल, पेट्रोलियम और रसायनमंत्री केशवदेव मालवीय तथा रक्षा राज्यमंत्री बलिराम भगत ।त्यागपत्र देने वाले प्रमुख मुख्यमंत्रियों में उत्तरप्रदेश के चंद्रभानु गुप्त, ओडिसा के बीजू पटनायक और मध्यप्रदेश के भगवंतराव मंडलोई आदि थे।तमिलनाडु के कुमारस्वामी कामराज पहले ही इस्तीफा दे चुके थे।

कामराज योजना के मिश्रित परिणाम निकले ।यह आधुनिक भारतीय इतिहास में निस्स्वार्थ नेतृत्व और राजनीति में साहसिक, दूरदर्शी और नयेपन की एक अनोखी मिसाल थी लेकिन धीरे-धीरे उसमें आंतरिक विभाजन और वैचारिक दरारें भी उभरने लग गयी थीं । । यह भी सही है कि अस्थायी रूप से कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने और संगठन को ताकतवर करने में खासी सफलता मिली लेकिन नेक इरादोंं के बावजूद कामराज योजना आलोचना से अछूती नहीं रही ।खास तौर पर जब 9 अक्टूबर,1963 को कामराज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो इसे लेकर पार्टी के भीतर फुसफुसाहट सुनायी पड़ी ।अपनी सादगी,साफगोई और ईमानदारी के चलते वह पंडित नेहरू के प्रिय नेताओं में थे,शास्त्री जी के बाद,इसलिए खुलकर उनकी आलोचना करने का किसी में दमखम नहीं था । शास्त्री जी के निधन के बाद उन्होंने जिस तरह से इंदिरा गांधी के पक्ष में कांग्रेसजनों को लामबन्द किया वह उनकी राजनीतिक दक्षता का प्रतीक है ।बताया तो यह भी जाता है कि लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी दोनों को प्रधानमंत्री बनाने में कामराज की अहम भूमिका थी ।इसीलिए कुछ हलकों में वह ‘किंगमेकर’ भी कहे जाते हैं।

शास्त्री जी के निधन के बाद नेतृत्व पद के लिए चुनाव में मोरारजी देसाई हार गये और इस प्रकार इंदिरा गांधी देश की तीसरी प्रधानमंत्री बन गयीं और देसाई को उपप्रधानमंत्री के पद के साथ वित्तमंत्री भी बनाया गया ।वह 13 मार्च, 1967 से 19 जुलाई,1969 तक इस पद पर रहे जब उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया । कामराज को निकट से जानने वाले कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार उनको गुमान हो गया था कि इंदिरा गांधी एक ‘गूँगी गुड़िया’ है जिसे प्रधानमंत्री बनाने से उनका रुतबा बढ़ेगा और अपने तरीके से वह सरकार चलाएंगे ।लेकिन ऐसा हो नहीं सका।इंदिरा गांधी उनसे कहीं ज्यादा शातिर निकलीं ।यू एन ढेबर के बाद वह 1959 में 42 साल की उम्र में कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष चुनी गयी थीं हालांकि पंडित नेहरू इसके पक्ष में नहीं थे ।कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर रहते हुए वह पार्टी की रीतनीत से परिचित थीं ।प्रधानमंत्री बनते ही इंदिरा गांधी ने 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और 1970 में देसी रियासतों के राजाओं-महाराजाओं को मिलने वाले प्रिवीपर्स की समप्ति जैसे कुछ सख्त फैसले लिये जो कामराज समेत बहुत से कांग्रेसी नेताओं को मंज़ूर नहीं थे ।इंदिरा गांधी समाजवाद की राह पर चल रही थीं जबकि कामराज समर्थक दक्षिणपंथी रास्ते का अनुसरण कर रहे थे ।दोनों ओर के विचारों में मतभेद इतने बढ़ गए कि 12 नवंबर,1969 को इंदिरा गांधी को पार्टी अनुशासन का उल्लंघन करने के कारण उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया ।

अंततः कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया और वह दो धड़ों में बंट गयी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) इसे सिंडीकेट भी कहा जाता है और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (रिक़्वजिशनिस्ट) जिसे कांग्रेस (आई) और इंडीकेट भी कहा जाता है । मोरारजी देसाई कांग्रेस (संगठन) में शामिल हो गये ।विडंबना देखिये कि जिस कामराज ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया था कांग्रेस में विभाजन के बाद वह संगठन कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष चुने गए और जिस मोरारजी के खिलाफ प्रधानमंत्री पद के चुनाव में हराया था वह उनके करीबी सहयोगी बन गए ।यह होती है राजनीति और उसका खेल । कांग्रेस (ओ) के अन्य सदस्य थे एस. निजलिंगप्पा, एस के पाटील,नीलम संजीव रेड्डी आदि। 705 सदस्यों में से 446 इंदिरा गांधी के पक्ष में चले गए ।कांग्रेस (ओ) ने बिहार में भोला पासवान शास्त्री, कर्नाटक में वीरेंद्र पाटिल और गुजरात में हितेंद्र देसाई के नेतृत्व में सरकारें बनाईं।1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी गुट की भारी जीत हुई जबकि कांग्रेस(ओ) जिसे सिंडीकेट कांग्रेस भी कहा जाता था,को महज़ 16 सीटें ही प्राप्त हुईं। देसाई अपना चुनाव जीत गये थे । अब कांग्रेस का अर्थ था कांग्रेस (आई)) जिसकी नेता थीं इंदिरा गांधी ।

1969 में राष्ट्रपति डॉ ज़ाकिर हुसैन के निधन के बाद कांग्रेस पार्टी ने सिंडीकेट गुट के सदस्य नीलम संजीव रेड्डी का राष्ट्रपति पद के लिए चयन किया ।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनके हक़ में नहीं थीं लेकिन उन्हें रेड्डी को कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा ।साथ ही उन्हें यह भी डर था कि यदि रेड्डी राष्ट्रपति चुने गए तो सिंडीकेट उन्हें प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर देगा ।लिहाजा उन्होंने विधायकों से पार्टी की लकीर का आंख मूंद कर पालन करने के बजाय ‘अपनी अंतरात्मा की आवाज़’ सुनकर वोट करने के लिए कहा। संदेश साफ था स्वतंत्र उम्मीदवार वी वी गिरि का समर्थन करना ।16 अगस्त, 1969 को हुए एक करीबी मुकाबले में गिरि राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत गये । इसकी परिणीति कांग्रेस का ऐतिहासिक विभाजन था । क्या संयोग है कि राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली के निधन के बाद हुए चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए जबकि डॉ ज़ाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद हुए चुनाव में पराजित हो गए थे ।नीलम संजीव रेड्डी ने 25 जुलाई, 1977 को छठे राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ग्रहण की थी ।

1975 के आपातकाल में देसाई और अन्य विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था ।1977 में देसाई जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन में शामिल हो गये ।1977 में सभी विपक्षी पार्टियों ने जनता पार्टी के नाम से एक गठबंधन बनाया जिसमें कांग्रेस (ओ) का भी विलय हो गया ।जेपी जनता पार्टी को एक विकल्प के तौर पर तैयार कर देश में दो दलीय व्यवस्था कायम करना चाहते थे ।1977 के लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी को भारी जीत हासिल हुई ।मोरारजी देसाई को संसदीय दल का नेता चुना गया ।इस प्रकार वह 81 साल की उम्र में भारत के पहले उम्रदराज और गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री बने ।देसाई उन्नीसवीं सदी में पैदा होने वाले दूसरे प्रधानमंत्री थे ।पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू थे आखिरकार उनकी प्रधानमंत्री बनने की दिल की इच्छा पूरी हुई । उनके विदेशमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी ।

अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में मोरारजी देसाई को शांति सक्रियता के लिए ख्याति प्राप्त हुई ।उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने की ईमानदाराना कोशिशें कीं। लिहाजा 1974 में परमाणु परीक्षण के बाद देसाई ने पाकिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बहाल करने में मदद की और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध जैसे सशस्त्र संघर्ष से बचने की कसम खाई ।इस आश्वासन के फलस्वरूप 19 मई, 1990 को उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया गया । यह पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जिन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रीय हित में सर्वोच्च विशिष्ठ सेवाएं दी हों ।यह पुरस्कार पाकिस्तान के नागरिकों के साथ साथ विदेशी नागरिकों को भी दिया जाता है । मोरारजी देसाई के अलावा इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले अन्य महत्वपूर्ण लोगों में ब्रिटिश महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय,यूगोस्लाविया पूर्व राष्ट्रपति मार्शल जोसिफ ब्रोज़ टीटो, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ड्वाइट डी.आइजनहावर और रिचर्ड निक्सन,इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो, नेपाल के महाराजा वीरेंद्र,आगा खान चतुर्थ,दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला,क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो आदि प्रमुख हैं । जिस समय देसाई पाकिस्तान और चीन के साथ सक्रिय मैत्री संबंधों पर चर्चा कर रहे थे उसी सिलसिले में विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन की यात्रा पर चीनी अधिकारियों के साथ बातचीत कर रहे थे ।तभी उन्हें खबर मिली कि मोरारजी देसाई ने त्यागपत्र दे दिया है और चौधरी चरण सिंह ने नये प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण कर ली है । इस तरह से विपक्षी पार्टियां जिस तेजी के साथ एकजुट हुई थीं उसी रफ्तार से बिखर भी गयीं ।मोरारजी देसाई 24 मार्च, 1977 से 28 जुलाई, 1979 तक देश के प्रधानमंत्री रहे । मोरारजी देसाई पहले व्यक्ति थे जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों के सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिले-भारत रत्न और पाकिस्तान का निशान-ए-पाकिस्तान । 10 अप्रैल, 1995 में 99 साल की उम्र में उनका निधन हो गया । लीप ईयर में जन्मे मोरारजी देसाई केवल 25 जन्मदिन ही मनाये ।

जिस जोश के साथ जनता पार्टी ने एकजुट होकर देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी को पराजित किया था उसका श्रेय निस्संदेह सर्वोदयी नेता जय प्रकाश नारायण को जाता है ।उन्होंने इंदिरा गांधी को न केवल प्रधानमंत्री पद से हटाने बल्कि लोकसभा चुनाव में उन्हें पराजित करने के लिए वामपंथियों, उदारवादियों, समाजवादियों और दक्षिणपंथियों जैसे विविध संगठनो को एकजुट कर जनता पार्टी का गठन किया था। इसमें क्षेत्रीय,धार्मिक और सांप्रदायिक पार्टियां भी शामिल थीं ।कह सकते हैं कि इस प्रकार कांग्रेस के विकल्प के तौर पर जो जनता पार्टी अस्तित्व में आयी थी वह भानुमति का कुनबा था जिनकी अलग-अलग विचारधाराएं और सिद्धांत थे, केवल लक्ष्य एक था इंदिरा गांधी को 1977 के लोकसभा चुनाव में हराना। बेशक जेपी की अगुवाई में जनता पार्टी ने न सिर्फ लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत ही प्राप्त किया बल्कि इंदिरा गांधी को राय बरेली तथा संजय गांधी को अमेठी से पराजित किया ।उस समय जनता पार्टी में मोरारजी देसाई,चौधरी चरणसिंह,जगजीवन राम,यशवंतराव चव्हाण, अटल बिहारी वाजपेयी,लाल कृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता थे लेकिन जेपी द्वारा मोरारजी देसाई को संसदीय दल के नेता पद के लिए तरजीह देने पर पार्टी में ‘अनुशासन’ और जेपी की ‘पसंद’ को स्वीकारा गया ।मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। कुछ समय बाद चौधरी चरणसिंह, जगजीवन राम और यशवंतराव चव्हाण को उपप्रधानमंत्री बनाया गया ।इन सभी नेताओं का संबंध कांग्रेस पार्टी से था ।लेकिन दूसरी बड़ी पार्टी जनसंघ को यह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ ।अटल बिहारी वाजपेयी विदेशमंत्री बनाये गए और लालकृष्ण आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री ।

जनता पार्टी द्वारा सत्ता प्राप्ति के बाद शुरू के कुछ महीने परस्पर सद्भाव और सामंजस्य में बीते ।उनकी सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान में किए संशोधनों को रद्द कर दिया और भविष्य की किसी भी सरकार के लिए राष्ट्रीय आपातकाल लगाना और मुश्किल कर दिया ।पंडित जवाहरलाल नेहरू के शिष्य रहे मोरारजी देसाई ने मोटे तौर पर उन्हीं के समय की आर्थिक नीतियों का अनुसरण किया ।उनके समय मुक्त व्यापार पर प्रतिबंध था न ही भारत में विदेशी निवेश की सुविधा ।लेकिन कोका कोला और
आईबीएम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया ।देश में श्रमिक विवाद बढ़ने से हड़तालें भी होने लगीं ।देसाई के बजट की अलोचना होने लगी और देश में मुद्रास्फीति और पेट्रोल की कमी होने से मध्यम वर्ग की कमर टूट गयी ।गृहमंत्री होने के नाते चौधरी चरणसिंह ने इंदिरा गांधी और संजय गांधी की गिरफ्तारी का आदेश दिया था ।इंदिरा गांधी को उनके 12, विलिंगडन क्रीसेंट निवास से गिरफ्तार करवा दिया ।उन पर चुनाव प्रचार के दौरान भ्रष्टाचार के बहुप्रचारित आरोप लगाये गये जैसे जीपें हासिल करने के लिए अपने पद का दुरुपयोग।लेकिन जिस मजिस्ट्रेट के सामने वह पेश हुईं उन्होंने यह कहते हुए उन्हें रिहा कर दिया कि उनकी गिरफ्तारी संबंधी कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं हैं ।

अब जनता पार्टी के भीतर तनाव बढ़ने लगा था ।पुराने स्वाधीनता सेनानी चौधरी चरणसिंह और राज नारायण को इंदिरा गांधी के प्रति देसाई का ‘नर्म’रवैया तथा जनसंघ के सदस्य अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की ‘दोहरी सदस्यता’ पर भी उन्हें ऐतराज था ।वे दोनों जनसंघ के साथ साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सदस्य थे ।उनसे संघ की सदस्यता से त्यागपत्र देने की मांग की गयी । 1 जुलाई,1978 को चरणसिंह ने इंदिरा गांधी के मुकद्दमे को लेकर देसाई से बढ़ते मतभेदों के कारण मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया ।लेकिन चौधरी साहब झुके नहीं ।उन्होंने अपनी लोकप्रियता सिद्ध करने के लिए दिल्ली में किसानों की एक विशाल रैली की जिसने मोरारजी को झुकने पर मजबूर होना पड़ा और 24 जनवरी,1979 को उनकी कैबिनेट में पुन: वापसी हुई, उपप्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के पद पर ।एक और मुद्दा था जो जनता पार्टी के घटकों के बीच निर्णायक टूट का कारण बना ।।वह मुद्दा था अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण ।

इन तमाम आंतरिक विवादों के चलते जनता पार्टी लंगड़ा सी गयी ।अप्रैल,1979 को जमशेदपुर में हुए सांप्रदायिक दंगों में 100 से अधिक लोगों के मारे जाने के कारण पार्टी में टूट पैदा हो गयी ।चौधरी चरणसिंह और राज नारायण ने इसका ठीकरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिर पर फोड़ते हुए अपनी अलग जनता पार्टी (सेकुलर) का गठन किया । 11 जुलाई,1979 को इस नवगठित पार्टी ने देसाई सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया मतलब अपने ही अपनों के खिलाफ उठ खड़े हुए थे ।ज़्यादातर घटकों ने देसाई सरकार के विरुद्ध मतदान करने का मन बना लिया था ।लिहाजा प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा सौंप दिया ।उन्होंने एक चालाकी यह बरती कि इस्तीफा उन्होंने प्रधानमंत्री पद से दिया, जनता पार्टी के नेता पद से नहीं ।अविश्वास प्रस्ताव यदि लोकसभा से पारित हो जाता तो जनता पार्टी को सत्ता से हटना पड़ता ।ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को दूसरी बड़ी पार्टी यानी कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना पड़ता लेकिन देसाई के केवल प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने से जनता पार्टी पुन: सरकार बनाने का दावा पेश कर सकती थी ।इसका लाभ चौधरी चरणसिंह,राज नारायण और जनता पार्टी (सेकुलर) ने उठाने की कोशिश की ।अब मूल जनता पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी थी ।लिहाजा राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी की स्थिति दुविधापूर्ण थी ।उन्होंने दोनों धड़ों के सांसदों से बातचीत की । कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने कुछ शर्तों के तहत बाहरी समर्थन दिए जाने के वादे के बाद चौधरी चरणसिंह की स्थिति मज़बूत हो गयी जिसके चलते राष्ट्रपति ने उन्हें 28 जुलाई,1979 को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलायी । यशवंतराव चव्हाण उपप्रधानमंत्री बने ।अभी उन्हें सत्ता संभाले तीन सप्ताह ही हुए थे कि इंदिरा गांधी ने उनके और संजय गांधी के खिलाफ सभी आरोपों को वापस लेने के लिए कहा लेकिन चरणसिंह ने इसका पालन करने से इंकार कर दिया जिसकी वजह से चरणसिंह के लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने से पहले ही कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया ।इसके फलस्वरूप 20 अगस्त, 1979 को चरणसिंह को मजबूरन प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा ।उनका कार्यकाल 23 दिन का रहा । लोकसभा का सामना न करने वाले वह पहले प्रधानमंत्री बन गये ।अपने इस्तीफे के साथ ही चरणसिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को लोक सभा भंग करने की सलाह दी । उधर जनता पार्टी के नेता जगजीवन राम ने इसका विरोध किया और समर्थन जुटाने के लिए समय मांगा लेकिन विघटन जारी रहा ।राष्ट्रपति रेड्डी ने लोकसभा भंग कर दी और चरण सिंह को 21 अगस्त,1979 से अगले चुनाव तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहने के लिए कहा लिहाजा वह 14 जनवरी,1980 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में अपने पद पर बने रहे ।

बेशक प्रधानमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल अल्पकालिक था लेकिन चरणसिंह ने स्वतंत्रता दिवस पर 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से राष्ट्रीय ध्वज फहराया और राष्ट्र को संबोधित करके इतिहास रचा ।गणतंत्र दिवस में शिरकत नहीं कर पाये क्योंकि 14 जनवरी,1980 को उनका कार्यकाल समाप्त हो गया था गणतंत्र दिवस से 12 दिन पहले । स्वतंत्रता दिवस को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में ईमानदारी के महत्व पर ज़ोर देते हुए कहा था कि महान उद्देश्यों को प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए आपके साधन भी उतने ही महान होने चाहिए ।एक ऐसा देश जहां लोग भ्रष्ट हैं,वह कभी भी प्रगति नहीं कर पायेगा,चाहे पार्टी का नेता कोई भी हो या वह जो भी अच्छा कार्यक्रम अपनाये ।

23 जनवरी,1902 को हापुड़ में जन्मे चरणसिंह किसान नेता थे । ‘चौधरी साहब’ के नाम से विख्यात कुछ लोग उन्हें ‘किसानों का मसीहा’ कहा करते थे तो कुछ ‘किसानों के चैंपियन’। उनसे जितनी भी मुलाकातें हुईं वह सदा किसानों की बदहाली की बातें किया करते थे ।उन्हें समाजवादी देशों की ‘सहकारी फार्मिँग’ प्रथा कतई पसंद नहीं थी ।उनका इशारा तत्कालीन सोवियत संघ और समाजवादी देशों में प्रचलित सहकारी खेती की ओर होता था ।पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने देश में भी सहकारी खेती की चर्चा किया करते थे लेकिन हमारे देश में यह संभव नहीं ।यहां पर तो छोटी-छोटी किसानी है जिससे किसान अपना भरण पोषण करते हैं ।दूसरे हम लोकतंत्र में रहते हैं,अव्वल तो इस सहकारी खेती बाबत उन्हें पूरी जानकारी देनी होगी ।मैं जानता हूं कि कोई भी छोटा किसान सहकारी खेती के लिए राज़ी नहीं होगा । स्वाधीनता संग्राम के दौर में चरणसिंह ने राजनीति में प्रवेश किया था । वह बरेली जेल में बंद भी रहे ।स्वतंत्रता के पश्चात वह डॉ राममनोहर लोहिया के ग्रामीण सुधार आंदोलन में लग गये ।चौधरी साहब खाँटी के किसान नेता थे ।1 जुलाई, 1952 को उत्तरप्रदेश में उनकी बदौलत जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और गरीबों को अधिकार मिला ।किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए ही 1954 में उत्तरप्रदेश भूमि संरक्षण कानून को पारित कराया ।उत्तरप्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री रहे। इसी प्रकार केंद्र में गृहमंत्री रहते हुए चरणसिंह ने मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की तथा 1979 में वित्तमंत्री और उपप्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की ।29 मई, 1987 को दिल्ली में उनका निधन हो गया । दिल्ली में जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ था वह किसान घाट कहलाता है । उनकी जन्म तिथि 23 दिसंबर भारत में ‘किसान दिवस’ के तौर पर मनायी जाती है ।।

मोरारजी देसाई से कई छोटी-बड़ी मुलाकातें मुझे याद हैं ।उनसे वैसे बैठकर बातचीत करने का अवसर तो नहीं मिला पाया जैसे दूसरे कई नेताओं से मिलता था। इसकी वजह उनकी अधिक व्यस्तता और जल्दबाजी हुआ करती थी । कुछ चलते चलते और कहीं कुछ क्षण रुककर उनसे बातें हुआ करती थीं ।मेरी सुविधा यह थी कि मैं किसी भी सांसद या मंत्री से कहीं भी मिल सकता था इनर लॉबी,आउटर लॉबी,केंद्रीय कक्ष या पहली मंज़िल पर मीटिंग्स में आते जाते ।इसलिए हम कुछ लोगों के चेहरो से वह लोग परिचित हुआ करते थे ।उन दिनों लोकसभा सचिवालय में मुट्ठी भर कर्मचारी थे ।आप खुद ही सोचें कि सचिव के बाद दूसरा बड़ा अधिकारी संयुक्त सचिव का होगा तो वह ऑफ़िस कितना बड़ा होगा ।मेरे वहां रहते कुछ भर्तियां जरूर हुई थीं लेकिन शिखर पर वही दो अधिकारी थे महेश्वरनाथ कौल और श्यामलाल शकधर ।मीडिया को तो सूचना पत्र कार्यालय और दर्शक दीर्घा के इतर जाने की अनुमति नहीं हुआ करती थी जब कि हम पर कोई रोक नहीं हुआ करती थी ।इनर लॉबी में जाने के लिए हमारे पास हरे रंग का एक टोकन होता था ।

यह तो सर्वविदित है कि मोरारजी देसाई मद्यनिषेध के पक्ष में थे ।उनके कार्यकाल में ही गुजरात में मद्यनिषेध लागू हुआ था जो आज तक बरकरार है ।1977 में प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने देशभर में मद्यनिषेध की घोषणा कर दी थी जिसका कुछ हलकों में विरोध हुआ लेकिन वह अपने निर्णय पर अडिग रहे । मद्यनिषेध का असर होटलों और क्लबों पर बहुत पड़ा ।अगर हम अपने दिल्ली के प्रेस क्लब की बात करें तो लोग प्रेस क्लब में आते ज़रूर थे लेकिन सिर्फ कामकाजी,चाय-काफी पीने के लिये । मैं अक्सर अरुण पुरी को उन दिनों दोपहर को प्रेस क्लब में बैठा हुआ देखा करता था ।उनके हाथ में कुछ पत्रिकाएं टाइम,न्यूज़वीक, इकानामिस्ट, दिनमान आदि हुआ करती थीं ।कभी कभी टाइम्स ऑफ इंडिया के योगेन्द्र बाली भी उनके साथ बैठे दीख जाते थे ।वह शायद अपनी किसी पत्रिका के प्रकाशन के बारे में सोचा करते थे ।उनके सलाहकार कई थे लेकिन पहचानता मैं योगेन्द्र बाली को ही था ।

कुछ हमारे साथी बाहर बैठे लोगों से दुआ सलाम कर बगल के एक कमरे में चले जाया करते थे ।उनके अपने खास वेटर होते थे ।एक बंदे के हाथ में लिफाफे में कुछ बोतलनुमा चीज़ होती थी ।यह बात उन सभी लोगों को पता रहती जो उस दोपहरी के राजदार होते थे ।इनमें से कोई रिपोर्टर मिलिटरी कैंटीन से जुगाड़ करता तो कोई किसी दूतावास से ।हमारे ये सभी मित्र उन दिनों अपनी अपनी बीट सही मायने में भुना रहे थे ।क्राइम रिपोर्टर्स भी पुलिस की मार्फत अपना अपना जुगाड़ कर लिया करते थे ।बेशक क्लब में मद्य उपलब्ध नहीं थी लेकिन पियक्कड़ बहुत साधन संपन्न होते थे, उन्हें कभी कोई कमी नहीं रहा करती थी ।

ऐसे जुगाड़बाज़ उन सभी जगहों पर मिल जायेंगे जहां मद्यनिषेध होता है ।गुजरात में दशकों से मद्यनिषेध है परंतु वहां हर ब्रांड की शराब मिल जाती है ।मैंने तो दमन और दीव से लोगों को धड़ल्ले से शराब लाते हुए देखा है ।दीव वेरावल और उना के निकट है तो दमन वापी से सटा हुआ है ।इसी प्रकार से पाकिस्तान भर में मद्यनिषेध है लेकिन विदेशियों के लिए परमिट व्यवस्था है तो स्थानीय लोगों के पास जुगाड़ के साधन हैं।अपनी पाकिस्तान की कई यात्राओं में मुझे कहीं भी ड्रिंक्स की दिक्कत नहीं हुई ।होटल के प्रबंधक से लेकर स्थानीय रसूखदार और भारतीय उच्चायोग के अधिकारी-कर्मचारी सभी आपकी सेवा में हैं ।दिक्कत होने पर विदेशी होने की वजह से परमिट लिया और सरकारी दुकानों से मद्य खरीद लिया ।वहां की शराब मरी निर्मित होती है जिसे पाकिस्तान की ‘ठंडी राजधानी’ कहा जाता है ।मरी पाकिस्तान का हिल स्टेशन है ।गर्मियों में अंग्रेज़ बाकायदा लाहौर-रावलपिंडी से यहां आ जाया करते थे ।कराची को तो बंबई (वर्तमान मुंबई) भाता था ।लाहौर में एक पूर्व उच्चस्तरीय अधिकारी ने बताया कि पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो पीने के बहुत शौकीन हुआ करते थे ।उनकी पसंदीदा ब्रांड शिवाज़ रीगल स्काच होती थी ।इसकी जानकारी मुझे उनके बचपन के दोस्त पीलू मोदी ने भी दी थी ।पीलू मोदी ने उन पर एक किताब भी लिखी है ‘ज़ुल्फी माई फ्रेंड’।

न जाने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को एक दिन क्या सूझा कि न सिर्फ उन्होंने खुद शराब से तौबा कर ली बल्कि सारे मुल्क में मद्यनिषेध लागू कर दिया ।लगता है उन पर अपने सेनाध्यक्ष जनरल ज़िया-उल-हक़ का असर हो गया था जो पूरी तरह से ‘सूफी’ थे । इन्हीं ज़िया साहब ने न सिर्फ भुट्टो के खिलाफ विद्रोह करके उन्हें सत्ता से बेदखल किया था बल्कि उन्हें एक मुकद्दमे में फंसाकर फांसी पर लटका दिया ।हश्र तो जनरल ज़िया का भी ऐसा ही हुआ ।वह एक हवाई हादसे में मारे गये। इन दोनों ही मामलों में प्रेक्षक ‘संदिग्ध’ लफ्ज़ का इस्तेमाल करते हैं ।लेकिन जस्टिस दोराब पटेल (अब मरहूम) ने मुझे बताया था कि ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फंसाया गया था ।उनके खिलाफ तथाकथित जुर्मों की जांच करने वाली सुप्रीम कोर्ट की जो समिति बनी थी उसके वह भी सदस्य थे लेकिन उन्होंने उस जांच समिति की सिफारिशों से इतेफाक़ न करते हुए अपनी असहमति व्यक्त की थी और अपनी असहमति की टिप्पणी को रिपोर्ट में दर्ज भी कर दिया था। ज़िया सरकार की तरफ से उन्हें बहुत प्रलोभन दिए गए और मुंहमांगा पद लेने को कहा लेकिन अविवाहित जस्टिस पटेल अपने निर्णय पर अडिग रहे ।

जस्टिस दोराब पटेल से मेरी कई मुलाकातें हुई थीं-कराची,लाहौर और दिल्ली में सभी जगह । लाहौर में ‘पाकिस्तान मानवाधिकार समिति’ के वह अध्यक्ष थे और दिल्ली में तो वह ‘संडे मेल’ के मालिक संजय डालमिया के एक सेमिनार ‘भारत-पाकिस्तान:मैत्री और भाईचारा’ में शिरकत करने के लिए आये थे । इस गैरराजनीतिक सेमिनार में पाकिस्तान प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व भी उन्होंने ही किया था जहां से दर्जन भर लोग आये थे ।इनमें पत्रकार,समाजसेवी,पूर्व राजनयिक,सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश और खान वली खान की अवामी नेशनल पार्टी के नेता अजमल खटक भी थे । इस सेमिनार से पहले भी एक बार दोराब पटेल जब दिल्ली आये थे तो वह संजय डालमिया के मेहमान थे । वह भी ड्रिंक करने के शौकीन थे । उन्हें मैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी एन भगवती से मिलवाने उनके घर ले गया थे ।वह दोनों दोस्त थे और गुजराती में ही बातचीत कर रहे थे ।

एक बार मैंने हिम्मत करके मोरारजी देसाई से ‘यूरीन थेरेपी’ के बारे में पूछ ही लिया ।उन्होंने मेरी झिझक भांपते हए कहा कि आप खुलकर इस बारे में पूछ सकते हैं क्योंकि सभी जानते हैं कि मैं हर सुबह शाम अपना मूत्र पीता हूं ।मेरे लिए यह स्वास्थ्यवर्धक है जिसे मैं ‘अद्भुत जीवनदायक जल’ मानता हूं ।यह जल कई रोगों का इलाज भी है । इस आदत को वह प्राकृतिक उपचार का हिस्सा मानते थे ।कुछ हलकों में उनके मूत्र सेवन को ‘मोरारजी कोला’ कहकर मज़ाक भी बनाया जाता था लेकिन देसाई पर ऐसी फब्तियों का कोई असर नहीं पड़ता था ।मोरारजी ने एक अमेरिकी पत्रकार को बताया था कि हिंदू दर्शन में गाय के मूत्र को पवित्र माना गया है ।इसी प्रकार कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक हृदय की समस्याओं के लिए मूत्र अर्क तैयार कर रहे हैं ।उन्होंने तंज कसते हुए कहा था कि आपके लोग दूसरे लोगों का मूत्र तो पी रहे हैं लेकिन अपना नहीं ।इसके लिए वह हज़ारों डॉलर खर्च करते हैं जबकि अपना मूत्र मुफ्त और अधिक प्रभावी होता है ।मोरारजी भाई ने तो अमेरिकी पत्रकार डैन राथर को स्वयं का मूत्र पीने के गुणों के बारे में बताया था ‘यदि आप अपना सारा मूत्र पी लें तो कुछ ही दिनों में शरीर स्वस्थ हो जाता है ।तीसरे दिन तक आपका मूत्र किसी रंग,किसी गंध या किसी स्वाद के हो जाएगा और यह लगभग पानी की तरह शुद्ध हो जाएगा ।आप बहुत अच्छा महसूस करेंगे, क्योंकि आपके सिस्टम में काफी सुधार और सफाई हो गयी है ।

उन्होंने तर्क दिया कि तमाम जनवर भी अपना मूत्र पीते हैं ।भारत के कुछ हिस्सों में माताएं बच्चों को पेट दर्द होने पर अपना मूत्र पिलाती थीं ।मेरे यह पूछने पर कि आपका खानपान ऐसा है कि आपका मूत्र सामान्य मूत्र न होकर ‘अर्क’ जैसा बन जाता है ।उन्होंने हँसते हुए पूछा ,’वह कैसे!’ मैंने कहा कि आपकी खाने की आदतें देखकर, जैसे आप ताज़े फल सब्ज़ियों का जूस पीते हैं ।इनके साथ आप दूध,दही,शहद और ड्राई फ्रूट खाते हैं । लहसुन की पांच कलियाँ भी खाते हैं।कांग्रेस का वरिष्ठ नेता होने के नाते आपको हर चीज़ शुद्ध ही नहीं अति शुद्ध मिलेगी मसलन आप जो फल और सब्ज़ियों के रस पीते हैं उसमें किसी तरह की मिलावट नहीं होगी ।इसी प्रकार आपको खालिस दूध मिलेगा,सादा दही,शहद,कच्चे मेवे,पांच लौंग ये सभी चीजें शुद्धता की कसौटी पर खरी उतरेंगी ।वह रोज़ 100 ग्राम मूत्र का सेवन किया करते थे ।

क्योंकि अब मैं मोरारजी भाई से काफी खुल चुका था इसलिए मैंने कहा कि आपका खानपान कुछ इस प्रकार का है जैसे पंजाब के गांवों में किसानों द्वारा अपने घर की शराब बनाना।वे लोग भी घर की शराब में गुड़ के साथ कई तरह के ड्राई फ्रूट एक मटके में डाल कर ज़मीन में गाढ़ देते हैं और जब वह सारा कच्चा माल शराब की शक्ल में निकलता है तो वह बड़े मज़े लेकर पीते हैं । आपका खानपान दूध,दही,शहद और फलों और सब्ज़ियों का रस है इसलिए आपका मूत्र सामान्य व्यक्ति की तरह पेशाब न होकर ‘अर्क’ होगा जिसे पीते समय आपको यह नहीं लगेगा कि आप अपने मूत्र का सेवन कर रहे हैं ।क्या आम आदमी
इस प्रकार का खानपान अफोर्ड कर सकता है ।वह तो अपने मूत्र की गंध से ही मुंह बिचका लेगा ।

मेरे इस प्रश्न के उत्तर में मोरारजी भाई ने बताया था कि मूत्र की गंध आपको एकाध दिन महसूस होगी लेकिन जब मूत्र सेवन से होने वाले फायदों का पता चलेगा तो यह गंध शंध सब भूल जायेंगे ।मूत्र के सेवन से सभी बीमारियों के कारण खत्म हो जाएंगे।लगातार यदि आप मूत्र पीते रहें तो तीसरे दिन वह बिना किसी रंग,गंध और स्वाद का हो जाएगा ।मूत्र पीने से आपका सिस्टम काफी हद तक बेहतर और साफ हो जाएगा । क्या कांति भाई को आपने समझाने की कोशिश की,हिम्मत बटोर कर उनसे यह प्रश्न पूछ लिया ।मोरारजी भाई गंभीर हो गये, धीरे से बोले,’कभी कभी तुलसी में भी भांग पैदा हो जाती है ।’ मोरारजी के बारे में कहा और माना भी जाता है कि वह बहुत ‘हठधर्मी’ हैं और अपनी सोच को ही ‘सही’ मानते हैं,उनमें ‘गतिशीलता’ या ‘लचीलापन’ बिल्कुल नहीं है ।लेकिन मुझे अपनी कई मुलाकातों में वह बहुत ही सहज,सामान्य और विनम्र लगे । 10 अप्रैल, 1995 में मुंबई में उनका निधन हुआ लेकिन उनका समाधि स्थल अहमदाबाद में अभय घाट है जो साबरमती के किनारे है ।यह पर्यटकों के लिए प्रमुख आकर्षण का केंद्र है । मैंने भी वहां जाकर मोरारजी भाई को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं ।

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