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मैंने तीन सदियाँ देखी हैं – 11 | Pavitra India

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लोकसभा सचिवालय में काम करते हुए ही मैंने परोक्ष तौर पर पत्रकारिता शुरू कर दी थी ।या यह भी कह सकते हैं कि करीब दस बरस बाद मैं लेखन कार्य की ओर पुन: उन्मुख हुआ था ।तात्कालिक कारण था पहले लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सरदार लोक सभा के रोचक यात्रा संस्मरण जो वह अपनी संसदीय यात्राओं के बाद अंग्रेजी वीकली ‘स्पोक्समैन’ के लिए लिखा करते हैं ।उनसे प्रभावित होकर मैंने उनके अंग्रेज़ी में लिखे यात्रा संस्मरणों का हिंदी में अनुवाद कर उस समय की सर्वश्रेष्ठ ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित कराये थे ।इसी प्रकार पंजाबी में कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के अफगानिस्तान के यात्रा संस्मरण मुझे उस अतीत की ओर ले गए थे जिनसे बचपन में मेरा भी सरोकार था ।और पंजाबी की कवयित्री श्रीमती प्रभजोत कौर की कविताओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया था ।इस साहित्यिक दंपति की साहित्यिक कृत्यों का अनुवाद भी इन महत्वपूर्ण प्रकाशनों में छपा देखा कुछ संपादकों ने मुझे रिपोर्टिंग करने की जिम्मेदारी दी तो कुछ ने कुछ हस्तियों के एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करने की ।ऐसे संपादकों में एक नाम जो मुझे याद आ रहा है वह लल्लन प्रसाद व्यास की पत्रिका ‘ज्ञान भारती ‘का है ।उनके के अनुरोध पर मैंने पहला इंटरव्यू तत्कालीन शिक्षामंत्री मोहम्मद करीम छागला (एम सी छागला) का किया था ।वह मेरे जीवन का ऐसा दौर था जब मुझे किसी सांसद या मंत्री से बातचीत करने में दिक्कत पेश नहीं आती थी । वह दौर था परस्पर विश्वास का,सिद्धांतों, मूल्यों और प्रतिबद्धताओं का ।बहुत खुलापन रहता था तब।

देश की सत्ता के दो प्रमुख केंद्र हैं नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक ।नार्थ ब्लॉक में गृह, वित्त और शिक्षा मंत्रालय हैं तो साउथ ब्लॉक में प्रतिरक्षा,विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री सचिवालय । इन्हीं ब्लॉकों से उस समय सरकार चलती थी ।कमोबेश आज भी वही स्थिति है लेकिन शिक्षा मंत्रालय जहां शास्त्री भवन में शिफ्ट हो गया है विदेश मंत्रालय का अपना एक अलग भवन है ।खैर मैं एम सी छागला से नार्थ ब्लॉक में मिला था 1963 के किसी महीने में जो मुझे ठीक से अब याद नहीं पड़ रहा है ।

30 सितम्बर,1900 में जन्मे एम सी छागला को जब मैं याद करता हूं तो मुझे 1900 में जन्मी दो और हस्तियों के नाम याद आ जाते हैं कविवर सुमित्रानंदन पंत (20 मई,1900) और स्वामी कृष्णानंद सरस्वती (20 अगस्त,1900)। सुमित्रानंदन पंत को मैंने देखा है,मिला हूं और सुना भी है लेकिन उनसे वैसी निकटता नहीं थी जैसी एम सी छागला और स्वामी कृष्णानंद सरस्वती से थी ।यह भी संयोग ही कहा जायेगा कि इन दोनों विभूतियों से मैं 1963 में मिला था। मैं दोनों के बारे में गहन जानकारी रखता था और छागला साहब को तो मैं लोक सभा सदन में बैठे और सांसदों के प्रश्नों के उत्तर देखते हुए भी देख सुन चुका था ।

एम सी छागला को मैं बतौर शिक्षामंत्री और विदेशमंत्री के तौर पर तो जानता ही था लेकिन उनके अमेरिका में भारतीय राजदूत तथा ब्रिटेन में उच्चायुक्त में किए गये कामों के बारे में मुझे इन देशों की यात्रा के दौरान कुछ भारतीय मूल के पत्रकारों के मुंह से सुनने को मिले ।उनके समय दोनों देशों के राजनयिकों को ये निर्देश होते थे कि आप लोग इन देशों के गांवों-कस्बों और छोटे शहरों में जा जा कर वहां के लोगों को भारतीय समाज और संस्कृति की जानकारी दें,भारतीयता के बारे में बतायें, भारत को सांप और नेवला नचाने वाले तथा आदमी को आदमी से ढोने वालों के बारे में ऊटपटांग छपने वाली खबरों का विरोध करें। यह हमारा राष्ट्रीय दायित्व है जिसका प्रसार प्रचार करने के लिए हमें इन देशों में भेजा जाता है ।मुझे बताया गया कि जब तक छागला इन देशों के राजदूत रहे उनके निर्देशों पर अमल होता रहा लेकिन उनके यहां से रुख्स्ती के बाद उनके सारे आदेश निर्देश भी रुख्स्त हो गये  इसका एक नमूना मैंने 1975 में पश्चिमी जर्मनी की अपनी यात्रा में हैम्बुर्ग में देखा था ।मेरी एक बहुत योग्य जर्मन गाइड थी। वह दोनों पति पत्नी पेशे से वकील थे लेकिन वह शौकिया मर्गदर्शक का काम किया करती थी ।हर बार हैम्बुर्ग जाने पर मुझे उसी की संगत मिला करती थी ।1975 में वह ‘डेयर स्पीगल’ नामक एक पत्रिका लेकर आयी जिसमें कलकत्ता (अब कोलकाता) के बारे में बड़ी बेहूदी और आपतिजनक चित्र छपे हुए थे ।इनमें आदमी को आदमी को खींचने वाले रिक्शे, सड़कों पर जगह जगह बिखरी हुई गंदगी, मरते हुए लोग आदि जैसे भयानक चित्र थे ।उन चित्रों को देखकर मुझे बहुत कोफ्त हुई और मैंने ऐसे दृश्य तो यहां और दूसरे सभी तथाकथित विकसित देशों में भी देखे थे ।मेरी मर्गदर्शक का इस पर यह कहना था कि आपके दूतावास की तरफ से इसका कोई प्रत्युत्तर तो आना चाहिए जो अभी तक देखने को नहीं मिला ।मुझे पता चला कि हैम्बुर्ग में हमारे देश का कौंसल जनरल का ऑफ़िस है ।मैंने अपनी गाइड को वहां ले चलने के लिए निवेदन किया ।बेशक मैं जर्मन सरकार का मेहमान था लेकिन भारतीय कौंसल जनरल को वहां मेरी उपस्थिति के बारे में जानकारी थी ।जब मैने ‘डेयर स्पीकल’ पत्रिका में छपे चित्रों के उस सेंट्रल स्प्रेड के बारे में पूछा तो उन्होंने अपनी अनभिज्ञता व्यक्त कर दी ।वह पत्रिका मैं साथ लेकर गया था ।जब उन्हें दिखायी तो वह आसमान से गिरे ।तब कहीं जाकर उन्होंने अपनी तरफ से प्रत्युत्तर भेजा ।

लेकिन एक कौंसल जनरल कराची में भी हुआ करते थे मणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी शशि त्रिपाठी डिप्टी कौंसल जनरल थीं  मणि उड़िया थे जबकि शशि का संबंध सिख परिवार से था ।उनके चाचा डॉ गोपाल सिंह पंजाबी और अंग्रेज़ी के विद्वान थे ।उन्होंने गुरु ग्रंथ साहब का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था जिसे पर्ल बक ने बहुत सराहा था ।डॉ गोपाल सिंह सांसद भी रहे हैं और बुल्गारिया में भारत के राजदूत भी ।मणि और शशि दोनों आईएफ़एस थे और उर्दू और पंजाबी दोनों भाषाओं के अलावा सिंधी भी बोल लिख लेते थे ।जब कभी भी अंग्रेज़ी,उर्दू या सिंधी भाषी किसी पेपर मे भारत को लेकर कोई गलत खबर छपती उनकी तरफ से तुरंत प्रत्युत्तर चला जाता और वहां के लोगों को उन तमाम मुस्लिम नेताओं के नाम गिना देते जो देश में राष्ट्रपति,राज्यों के मुख्यमंत्री या सश्स्त्र सेनाओं के प्रमुख रहे हैं ।आखिर में वह यह सवाल भी उठा देते थे कि क्या पाकिस्तान में हिन्दू या अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति इन पदों के आसपास भी पहुंचा है ।यह होती है किसी राजनयिक की सक्रियता और जागरूकता ।

एम सी छागला के राजनीति से अवकाश प्राप्त करने के बाद जब कभी दिल्ली आते तो उनसे विदेशों में भारतीय दूतवासों की इस तरह की निष्क्रियता के बारे में चर्चा होती तो उनका इतना भर ही जवाब होता कि देशप्रेम की भावना तो इंसान के भीतर से पैदा होती है उसे थोपा नहीं जा सकता ।मैंने दूतवासों में रहते हुए और बाद में विदेशमंत्री रहते हुए भी राजनयिकों में जितना उनके ‘कर्तव्य’ के प्रति सचेत रहने की ताकीद कर सकता था,कुछ की समझ में बात आ गयी और दूसरे देशों के दूतावासों के देखादेखी अपने देश के बारे में प्रचार प्रसार किया किंतु वह भी आधे अधूरे मन से ।

जस्टिस एम सी छागला राजनय और राजनीति में आने को एक ‘दुर्घटना’ ही मानते रहे हैं ।उन्होंने मुझसे कई बार कहा था कि वह मुख्यतया ‘विधि विधान’ के आदमी हैं ।जब मैं अपने सहयोगी और मित्र फोटोग्राफर एस जे सिंह के साथ शिक्षामंत्री एम सी छागला के नार्थ ब्लॉक स्थित ऑफ़िस पहुंचा तो उन्होंने मुस्कुराकर मेरा स्वागत किया और हाथ के इशारे से सामने रखी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा ।जब मैंने पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार की शिक्षा नीति और उसकी प्राथमिकताओं पर सवाल पूछा तो वह बोले ‘जब भी सरकार को पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो उसकी पहली नज़र शिक्षा मंत्रलाय के बजट पर पड़ती है और उसमें कटौती कर दी जाती है ।अब आप ही बतायें कि किसी दूसरे मंत्रालय की मदद करने के लिए शिक्षा मंत्रालय के बजट पर हमेशा नज़ला क्यों गिरता है। मैंने पंडित नेहरू से कहा भी कि आज सरकारी स्कूलों में अप्रशिक्षित टीचर हैं,बच्चों के पास नयी किताबें नहीं हैं,खेल के ढंग के मैदान नहीं हैं । हमारे संविधान निर्माताओं का यह इरादा कतई नहीं था कि हम सिर्फ झुग्गियां खड़ी कर दें,वहां छात्रों को बिठाकर अप्रशिक्षित शिक्षकों से शिक्षा दिलाएं।हमें शिक्षा के नये नये आयाम पैदा करने चाहिए ।हमें तो 6-14 वर्ष के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देनी चाहिए ताकि अगली पीढ़ी की पुख्ता नींव पड़े ।अगर आने वाली पीढियाँ अशिक्षित रहेंगी तो हमारे देश की उन्नति और प्रगति कैसे संभव है ।

छागला साहब बहुत ही निर्भीक और निर्विकार न्यायविद रहे हैं लिहाजा इस संदर्भ में मैंने जब उनसे पूछा कि आप बेखौफ़ शिक्षामंत्री क्यों नहीं बन पा रहे हैं मेरा यह सवाल सुनकर वह मुस्कराये और बोले मेरे अज़ीज़ कार्यपालिका और न्यायपालिका की कार्यशैली में यही बुनियादी फर्क है ।मुख्य न्यायाधीश अपने आप में बादशाह होता है जबकि किसी भी मंत्री को वैसी आज़ादी प्राप्त नहीं होती है ।ताजुब्ब है कि मुझे अपने मंत्रलाय के फैसले लेने के लिए दूसरों का मुंह जोहना पड़ता है । जब छागला साहब ने मुझे यह बताया कि जब कभी भी मुल्क पर आर्थिक मजबूरी जैसे हालात पैदा होते हैं तो उसका पहला शिकार कौन होता है, शिक्षा मंत्रालय। जब हमारी अपनी सरकार की शिक्षा को लेकर ऐसी सोच और मानसिकता है तो हम लोग खाक आधुनिक और जिज्ञासु पीढियाँ पैदा कर पायेंगे ।मैं तो शिक्षा मंत्रालय का ज़्यादा से ज़्यादा बजट आवंटित करने का पक्षधर हूं ।

जब मैंने कहा कि आप तो सीधे पंडित नेहरू से बातचीत करने के लिए विख्यात रहे हैं चाहे अमेरिका में राजदूत रहते हुए या ब्रिटेन में उच्चायुक्त,शिक्षामंत्री का ओहदा तो उससे बड़ा है?थोड़ा सोचकर बोले, है भी और नहीं भी ।राजदूत पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए जिस देश में राजदूत है उस देश के मुखिया या अन्य महत्वपूर्ण नेताओं के विचारों से अपने देश के मुखिया तक पहुंचाना अनिवार्य होता है ।क्योंकि पंडित नेहरू प्रधानमंत्री के साथ विदेशमंत्री भी थे इसलिए उनसे बातचीत होना स्वाभाविक ही था खास तौर अमेरिका के नये और युवा राष्ट्रपति जॉन केनेडी की भारत के प्रति उनकी नीति और विचारों को लेकर ।ऐसा नहीं कि मैंने शिक्षा मंत्रालय को लेकर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से अपने विचारों को साझा नहीं किया।उन्होंने धैर्यपूर्वक मुझे सुना भी,सहमत भी हुए लेकिन देश की समग्र स्थिति को समझाते हुए, विशेष तौर पर 1962 में चीन युध्द के बाद से हुई मुश्किलात के लिए, उन्होंने बताया कि सभी मंत्रालयों का बजट तराशा गया है ।मेरी इस बात की कोशिश होगी कि भविष्य में शिक्षा मंत्रालय के लिए अधिक बजट आवंटित किया जाये ।आज ही मैं वित्तमंत्री को इस आशय का नोट भी भेजता हूं और उन्होंने ऐसा किया भी ।वह इसलिए कि वह खुद शिक्षाविद हैं और बच्चों में छुटपन से तालीम दिए जाने के महत्व को समझते हैं । उस दौर में मंत्री अपनी बात खुलकर और साफगोई के साथ पूर्ण निर्भीकता के साथ प्रधानमंत्री से कह सकते थे और पंडित नेहरू जैसा व्यक्ति अपने मंत्रियों के विचारों का उदारता से स्वागत भी करते थे ।

पंडित नेहरू सांसदों की आलोचनाओं को सुनते थे, उनके उठाये तल्ख मुद्दों को पूरी शिद्दत के साथ सदन में पूरे समय तक बैठकर सुना करते थे ।एक बार उनके दामाद फिरोज गांधी ने कुछ ऐसे मुद्दे उठाये जिनसे या तो मंत्री परेशान हो जाते या उलझन में फंस जाया करते थे । उस समय सदन में उठाये जाने वाले मुद्दे तथ्यों पर आधारित होते थे ।वे लाइब्रेरी प्रमुख पृथ्वीनाथ शकधर (एस एल शकधर के छोटे भाई) की सहायता से अपने मुद्दों के समर्थन में पुख्ता दस्तावेज लेकर सदन में आया करते थे ।ऐसा ही एक मुद्दा कलकत्ता (अब कोलकाता) के उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा की वित्तीय अनियमितता को लेकर था,जो सरकार द्वारा नियंत्रित जीवन बीमा निगम से जुड़ा था । अपने तर्कों,तथ्यों और आंकड़ों से फिरोज गांधी ने यह सिद्ध कर दिया कि इस घोटाले में वित्त मंत्री टी टी कृष्णामाचारी भी शामिल हैं ।बेशक फिरोज गांधी का यह रहस्योद्घाटन पंडित नेहरू की सरकार की छवि पर प्रहार था लेकिन तथ्यों को भी तो वह नहीं झुठला सकते थे ।लिहाजा इस की जांच का ज़िम्मा बंबई हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश एम सी छागला के नेतृत्व में गठित एक सदस्यीय जांच समिति को सौंपा गया ।

एम सी छागला खाँटी न्यायाधीश थे ।उन्होंने इस जांच को सार्वजनिक जांच में बदल कर सुनवाई शुरू कर दी ।खुले में कार्यवाही हुई जिसे सुनने के लिए लाउडस्पीकर भी लगवा दिए गये ।इसमें सभी प्रकार के निवेशकों, सट्टेबाजों तथा जीवन बीमा से जुड़े लोगों ने गवाहियाँ दीं ।अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिए टी टी कृष्णामाचारी ने जब मंत्रालय के सचिवों के माथे दोष मढ़ना चाहा तो जस्टिस छागला की टिप्पणी थी ‘यह आपकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी है जिससे आप अपने आप को अलग नहीं कर सकते ।’

जस्टिस एम सी छागला ने मात्र 24 दिनों में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी ।टी टी कृष्णामाचारी को अपने मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा जिससे निस्संदेह पंडित नेहरू की साख गिरी और छवि भी दागदार हुई ।मैंने जब छागला साहब से पूछा कि क्या प्रधानमंत्री की तरफ से आप पर किसी तरह का दबाव नहीं डाला गया तो उनका उत्तर था बिल्कुल नहीं ।कानूनन हम पुख्ता ज़मीन पर थे । सभी इस हक़ीक़त से वाकिफ थे ।दूसरे पंडित नेहरू लोकतंत्री प्रवृति के हैं ।उन्होंने तो बल्कि मेरी ईमानदारी और निष्पक्षता की तारीफ ही की । मुझे तो लगता है कि उन्हें अपने दामाद फिरोज गांधी से भी कोई शिकायत नहीं थी जिन्होंने एक तरह से सरकार की मदद ही की और इससे वे सभी लोग भी चौकस और सतर्क हो गये जो ऐसा खेल खेलने के बारे में सोच रहे थे ।’

अपनी इस पारदर्शी रिपोर्ट के लिए छागला जी को पुरस्कृत किया गया । 1958 में उन्हें भारत का राजदूत बनाकर अमेरिका भेजा गया जहां वह 1961 तक रहे ।अमेरिका के साथ ही क्यूबा और मेक्सिको के भी वह राजदूत रहे। देश वापसी से पहले वह अमेरिका के नये राष्ट्रपति जॉन केनेडी से मिले ।भारत और अमेरिका के संबंधों को लेकर दोनों के बीच जो बातचीत हुई राजनयिक हलकों में उसे बहुत महत्वपूर्ण माना गया था । इसी बातचीत के फलस्वरूप छागला जी को 1962-63 में ब्रिटेन और आयरलैंड का भारतीय उच्चायुक्त नियुक्त किया गया ।छागला से पहले पंडित जी की बहन विजय लक्ष्मी पंडित वहां की उच्चायुक्त थीं । पंडित नेहरू की नज़र में एम सी छागला का कितना महत्व था ये राजनयिक नियुक्तियां इसकी जीती जागती मिसाल हैं । इन राजनयिक नियुक्तियों का क्या राज़ था जब मैंने छागला साहब से पूछा तो वह हंस दिये और बोले, ‘यह तो आपको पंडित नेहरू से पूछना होगा ।मुझे अपने मुल्क की खिदमत करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी जिसे हमने पूरी ईमानदारी के साथ निभाने की कोशिश की ।मैं तो दूतावास में काम करने वालों से कहा करता था कि आप लोगों का काम ऑफ़िस में बैठना नहीं है बल्कि अपने देश की विविधता के बारे में यहां के जनमानस को परिचित कराना है ।मैंने खुद बैठकर अपने साथियों से भारत के विभिन्न आयामों पर प्रचार सामग्री बनवायी और उसे अमेरिका भर में वितरित किया गया ।हर मुल्क यह काम करता है । हमारा तो नवस्वाधीन देश है हमें यहां के लोगों को अपने बारे में बताने की बहुत जरूरत थी ।ऐसा ही काम मैंने ब्रिटेन-आयरलैंड में रहते हुए भी किया ।हो सकता है मेरे इस काम से प्रधानमंत्री नेहरू मुतासिर हुए हों ।

कानून की दुनिया में एम सी छागला बहुत बड़ा नाम थे ।जो जज दस बरस तक बंबई हाईकोर्ट का चीफ़ जस्टिस रहा हो और जिसने सुप्रीम कोर्ट का जज बनने से इंकार कर दिया हो वह भला क्यों किस की परवाह करने लगा या डरने लगा ।जब मैंने उनसे कहा कि किसी भी हाईकोर्ट का जज सुप्रीम कोर्ट का जज बनने को तरसता है आपने वहां जाने से इंकार क्यों कर दिया तो उन्होंने बताया कि दिसंबर,1949 में जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने पर विचार चल रहा था तो उन्होंने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर हीरालाल कानिया से साफ शब्दों में यह कह दिया कि उनकी सुप्रीम कोर्ट का जज बनने में बिल्कुल कोई दिलचस्पी नहीं है ।सर हीरालाल तब फेडरल कोर्ट के चीफ़ जस्टिस थे जो छागला की नज़रों में निम्न पद था ।उन दिनों बंबई हाईकोर्ट का बहुत रुतबा और दबदबा हुआ करता था जबकि फेडरल कोर्ट की वैसी साख नहीं थी ।बेशक बाद में फेडरल कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में परिवर्तित हो गया लेकिन छागला साहब अपने पूर्व निर्णय पर कायम रहे ।जस्टिस कानिया की दो नाकामयाब कोशिशों के बाद जस्टिस मेहरचंद महाजन जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस बने तो उन्होंने भि प्रयास किया लेकिन छागला टस से मस नहीं हुए ।बताया जाता है कि उस समय बंबई उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश इतना शक्तिशाली हुआ करता था कि उसके समक्ष महाराष्ट्र,गुजरात,सिंध और यहां तक कि अदन के मुकद्दमे भी सुनवाई के लिए आते थे ।

उधर सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस मेहरचंद महाजन एम सी छागला को अपने साथी जज के तौर पर देखने को बहुत इच्छुक थे ।उन्होंने तो छागला साहब को एक पत्र लिखकर अपनी ख्वाहिश इस तरह से ज़ाहिर की थी ‘आप जैसे जजों को सुप्रीम कोर्ट की शोभा बढ़ानी चाहिए ।मुझे विश्वास है कि आप मेरे प्रस्ताव पर गौर फरमायेंगे ।’ इस पत्र का उत्तर बड़ी विनम्रता से देते हुए जस्टिस महाजन के प्रस्ताव को मानने में उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की थी । बाद में कहीं जस्टिस महाजन ने बड़े दुखी अंदाज़ में टिप्पणी की थी ‘मुझे जस्टिस छागला के साथ पीठ में बैठने का विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हुआ ।’ यह थी जस्टिस छागला की साख और धाक जिसे पंडित नेहरू ने पहचाना था ।पंडित नेहरू के निधन के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी भी उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लेती रहीं ।इंदिरा गांधी की सरकार में तो छागला विदेशमंत्री थे ।

जस्टिस छागला अपनी धुन के पक्के थे और शायद ही किसी प्रकार के प्रोटोकोल की वह परवाह करते हों ।उनके लिए उनका काम सर्वोपरि हुआ करता था ।वह कभी अपने कोर्ट का काम बीच में छोड़कर किसी प्रकार के समारोह में नहीं जाते थे चाहे वह कितने भी अतिविशिष्ट व्यक्ति का ही क्यों न हो ।वह बहुत ही सुसंस्कृत बुद्धिजीवी थे ।वह किसी के दबाव में कोई काम नहीं करते थे तथा न्याय को ही सर्वोपरि मानते थे ।उनकी इस सोच और व्यवहार से प्राय: सभी राजनीतिक और कानूनदां परिचित थे ।

क्योंकि मैं अपना होमवर्क ठीक से करके गया था और उन्हें मैंने यह भी बता दिया था कि मैं लोकसभा सचिवालय में काम करता हूं, लिखना-पढ़ना मेरा शौक है और कई पत्रिकाओं के लिए मैं लिखता भी हूं तो मेरी यह बेबाकी उन्हें बहुत भायी, ऐसा मुझे लगा ।अब छागला साहब भी मुझ से खुलने लगे थे ।इसका लाभ उठाते हुए जब मैंने उनसे ‘छागला’ का मतलब पूछा तो पहले वह हँसे और बाद में बोले,’दरअसल हम लोग खानदानी व्यापारी हैं और हमारे नाम के आगे मर्चेंट लिखा जाता है ।मुझे मर्चेंट लिखना पसंद नहीं था। एक दिन मैंने अपने दादा से पूछा कि मेरे पिता का घर का नाम क्या था, उन्होंने जवाब दिया ‘छागला’।’छागला’ का जब मैंने शाब्दिक अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया कि यह कच्छी (गुजराती) शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘प्यारा बच्चा’।दादा से इज़ाजत लेकर मैंने ‘मर्चेंट’ के स्थान पर ‘छागला’ लिखना शुरू कर दिया और इस तरह मैं मोहम्मद करीम मर्चंट से ‘छागला’ हो गया । मेरे बेटे जहांगीर और इक़बाल भी छागला हैं, मर्चेंट अब कोई नहीं रहा ।सभी ने वकालत को अपना प्रोफेशन बनाया, कारोबारी कोई नहीं रहा ।

30 सितम्बर, 1900 को बंबई में एक समृद्ध गुजराती इस्माइली खोजा परिवार में जन्मे एम सी छागला अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे ।उन्होंने वकालत सर जमशेदजी कांगा और मोहम्मद अली जिन्ना के साथ की ।शुरू शुरू में छागला जिन्ना के राष्ट्रवादी विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उनकी मुस्लिम लीग पार्टी में शामिल हो गये ।जब जिन्ना के विचारों में कट्टरता झलकी तो छागला ने उनका साथ छोड़ दिया ।उन्होंने डॉ बी आर अंबेडकर के साथ भी काम किया ।1941 में वह बंबई हाईकोर्ट के जज नियुक्त हुए तथा 1947 से 1958 तक वहां के मुख्य न्यायाधीश रहे ।छागला के चार बच्चे हैं:दो बेटे जहांगीर और इकबाल तथा दो बेटियां हुस्नारा और नूरू ।छागला खुद अज्ञेयवादी अर्थात संशयवादी थे जिनका भगवान के होने या न होने में संशय था ।छागला की इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया,दफनाया नहीं गया था । बंबई हाईकोर्ट में छागला की एक मूर्ति लगाई गयी है जिसके चबूतरे पर अंकित है:’एक महान न्यायाधीश, एक महान नागरिक और इन सबसे ऊपर एक महान इंसान ।’

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