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मर्यादा की लक्ष्मण रेखा | Pavitra India

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शिवेन्द्र राणा

पिछले दिनों भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक अप्रिय स्थिति पैदा हो गयी, जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सर्वोच्च न्यायालय से 14 प्रश्नों पर जवाब माँगे, जिनमें क्या राज्यपाल फ़ैसला लेते समय मंत्रिपरिषद् की सलाह से बँधे हैं? क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल के फ़ैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है? क्या राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के फ़ैसलों पर अदालत समय-सीमा तय कर सकती है? क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद-142 का प्रयोग करके राष्ट्रपति या राज्यपाल के फ़ैसलों को बदल सकता है? इत्यादि सवाल शामिल थे। ये सवाल अनायास ही नहीं किये गये हैं। इसकी वजह है- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 08 अप्रैल, 2025 को दिया गया निर्णय।

दरअसल, तमिलनाडु विधानसभा द्वारा वर्ष 2020 से 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किये गये, जिन्हें राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा रोक लिया गया। इसके बाद अक्टूबर, 2023 में तमिलनाडु सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में वाद दाख़िल किया, तब राज्यपाल ने 10 विधेयकों को बिना हस्ताक्षर लौटा दिया एवं अन्य दो को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज दिया। जब राज्य सरकार ने उन 10 विधेयकों को पुन: पारित करके राज्यपाल को भेजा, तब राज्यपाल ने उन्हें भी राष्ट्रपति को निर्णय हेतु अग्रसारित कर दिया। तत्पश्चात् तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 08 अप्रैल को अनुच्छेद-142 का इस्तेमाल करते हुए आदेश दिया कि इन सभी 10 विधेयकों को पारित माना जाए। इसके बाद ही न्यायपालिका एवं विधायिका के मध्य अधिकार के अतिक्रमण का यह अप्रिय विवाद उत्पन्न हुआ है, जिसे महामहिम राष्ट्रपति के हस्तक्षेप ने गंभीर बनाया है।

जम्हूरियत में संवैधानिक संस्थाओं के द्वारा संवैधानिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करने पर टकराव बढ़ने लगता है। संविधान किसी भी देश की वो आधारभूत विधि है, जिसके अंतर्गत राज्य व्यवस्था के मूल सिद्धांत विहित होते हैं। संविधान की कसौटी ही सर्वत्र राष्ट्रीय विधियों एवं कार्यपालक कार्यों की विधिमान्यता एवं उनकी वैधता का आधार बनती है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढाँचा ही इस लोकतांत्रिक स्वरूप पर निर्धारित करता है, जो न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका जैसे मुख्य स्तंभों के विभाजित स्वरूप की रचना करता है, जो मूलत: संविधान समर्थित हैं। ऐसे में लोकतंत्र की मज़बूत स्तंभ न्यायपालिका या संसद एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण और हस्तक्षेप करेंगी, तो ये दोनों संविधान की शुचिता की निर्धारित रेखा के अनुपालन की ज़िम्मेदारी और अन्य संवैधानिक अंगों से कैसे सुनिश्चित कर पाएँगी?

असल में भारत में सन् 1970 के दशक में अमेरिकी न्यायपालिका से प्रभावित न्यायिक सक्रियता के सिद्धांत ने बीतते समय के साथ न्यायपालिका में न्यायिक संयम को संभवत: समाप्त कर दिया है। अमेरिकी लोकतंत्र में न्यायिक संयम की अवधारणा का एक तर्क यह भी है कि न्यायालय मूलत: अलोकतांत्रिक है; क्योंकि यह अनिर्वाचित तथा लोकमत के प्रति अग्रहणशील एवं अनुत्तरदायी है। ऐसे में उसे यथासंभव मामलों को सरकार की लोकतांत्रिक संस्थाओं को ही सुपुर्द कर देना चाहिए। किन्तु प्रतीत होता है कि भारतीय न्यायपालिका ने केवल अमेरिकी न्यायिक विचार को ही लिया, उसकी अवधारणा से कुछ सीखने की कोशिश नहीं की। वर्ष 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक मामले पर न्यायिक संयम की बात करते हुए टिप्पणी की थी कि न्यायालय विधायिका एवं कार्यपालिका के कार्य अपने हाथ में न लें तथा संविधान में निर्धारित शक्तियों के बँटवारे और सरकार के प्रत्येक अन्य अंगों का सम्मान करते हुए दूसरे के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करें। जजों को अपनी सीमा जान लेनी चाहिए और सरकार चलाने की कोशिश बिलकुल नहीं करनी चाहिए।

यह सही है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत निर्णय लेना न्यायपालिका का अधिकार है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका का रवैया संवैधानिक मूल्यों के प्रति हठवादी रहा है, जिसका सबसे प्रमुख उदाहरण है- कॉलेजियम सिस्टम के विरुद्ध न्यायिक नियुक्ति आयोग (2014) को असंवैधानिक घोषित करना। यह सर्वविदित संवैधानिक तथ्य है कि संसद को न्यायपालिका के सभी स्तरों के गठन, संगठन, अधिकारिता तथा शक्तियों के विनियमन सम्बन्धी विधियों के प्रवर्तन में पूर्ण सक्षमता प्राप्त है। अनुच्छेद-124 इस संसदीय शक्ति का उद्घोषक है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद-124(4), 218, 121, 122(1), 212(1), 136, 323(क), 323(ख) जैसे तमाम संवैधानिक उपबंध न्यायपालिका के विषय में संसदीय शक्ति के अधिकारों की पुष्टि करते हैं। तब सवाल यह भी उठता है कि एनजेएसी (99वें संविधान संशोधन अधिनियम-2014) को ख़ारिज करके क्या न्यायपालिका ऐसे आचरण से स्वयं को लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक पृथक सत्ता अधिष्ठान के रूप में प्रतिष्ठित करने का अनैतिक प्रयास नहीं कर रही है?

हालाँकि ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार ने अपने अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया है। उसने भी कई बार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को अपने हितों को साधने के लिए कई बार ऐसा किया है एवं न्यायाधीशों पर अपनी इच्छानुसार निर्णय देने का दबाव बनाने और अपने मनपसंद न्यायाधीशों को लाभ पहुँचाने तक की घटनाएँ किसी से छिपी नहीं हैं। लेकिन फिर भी भले ही अपने ध्येय वाक्य में सर्वोच्च न्यायालय यतो धर्मस्ततो जय: की घोषणा करे, किन्तु यथार्थ में इस मामले में उसके द्वारा संवैधानिक धर्म का ईमानदारी से पालन नहीं हुआ है। आख़िर देश की जनता के बहुमत से निर्वाचित मंत्रिमंडल द्वारा सिफ़ारिश किये गये एवं राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्य के सर्वोच्च संवैधानिक प्रमुख अर्थात् राज्यपाल को अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर उसके संवैधानिक कृत्य हेतु निर्देशित करने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय न्यायपालिका का विधायिका तथा कार्यपालिका को निर्देशित करने हेतु संवैधानिक अतिक्रमण का प्रयास है। हालाँकि इस विवाद में न्यायालयी पक्ष की अति सक्रियता को राजनीतिक वजहों से समर्थन देने वाला वर्ग यह नहीं समझना चाहता कि वस्तुत: उक्त विवाद किसी सरकार, पार्टी या संस्थान से जुड़ा हुआ है ही नहीं। असल में प्रश्न लोकतांत्रिक संरचना में संवैधानिक मूल्यों के प्रति समादर का है।

किसी पार्टी की विचारधारा अथवा किसी सरकार की कार्यशैली से असहमति रखना या उसकी आलोचना सहज जनतांत्रिक वृत्ति है, बल्कि असहमतियों का वजूद तो जम्हूरियत की ज़िन्दादिली का सुबूत है। लेकिन तमिलनाडु राज्यपाल के कर्तव्य क्षेत्र की संवैधानिक परिधि के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय रॉबिन हुड टाइप का क्रांतिकारी क़दम समझने वाले संविधान की मूल अवधारणा एवं व्यवस्थापन के विधायी सिद्धांत के महत्व को उक्त संवैधानिक विवाद के अनुरूप भविष्य में उपजने वाली भावी समस्याओं को नहीं समझ पा रहे हैं। हालाँकि यह भी एक सत्य है कि न्यायपालिका की यह आलोचना तब तक एकपक्षीय नज़र आती है, जब तक इस विवाद के संवैधानिक संदर्भ की ओट में राजनीतिक संघर्ष के मूल कारण को नहीं समझते हैं। असल में न्यायपालिका का अधिकार का यह अतिक्रमण तमिलनाडु राज्य सरकार के बहुमत की निर्वाचित जनतांत्रिक सत्ता के विशेष आग्रह की परिणीति है।

संविधान के छठे भाग के अनुच्छेद-153 से 167 तक राज्य की कार्यपालिका का वर्णन है, जिसके अनुसार राज्यपाल राज्य का कार्यकारी प्रमुख (संवैधानिक मुखिया) होता है। इस रूप में वह केंद्र सरकार के प्रतिनिधि का भी दायित्व निभाता है। परन्तु यह विधायी आदर्श केवल सैद्धांतिक टैबू-टैटम है। वास्तविकता में ये महामहिम के रूप राज्य सरकार के नियंत्रण में लगे केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंट होते हैं।

विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संदर्भ में संविधान प्रदत्त चार प्रकार की वीटो शक्तियाँ- स्वीकृति प्रदान करना, अपनी स्वीकृति रोक लेना, स्थगन वीटो एवं विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखना राज्यपाल को प्राप्त हैं। लेकिन कटु वास्तविकता यह है कि इन सभी वीटो का प्रयोग राज्यपाल अपने नियोक्ता केंद्र सरकार के इशारे पर उसकी सुविधानुसार करते हैं। ऐसे में जब केंद्र एवं राज्य में दो भिन्न दलों, उसमें भी प्रतिद्वंद्वी विचारधारा एवं आपस में एक-दूसरे के प्रति विपक्षी ख़ेमे से जुड़े पार्टियों की सरकार हो, तो स्थिति टकरावपूर्ण एवं अधिकांशत: राजनीतिक विद्वेष से भरी होती है। चूँकि 42वें संविधान संशोधन (1976) के बाद राष्ट्रपति पर तो मंत्रिमंडल की बाध्यता सुनिश्चित हुई; लेकिन राज्यपाल ऐसे किसी उपबंध से मुक्त रहे और केंद्र सरकार की सरपरस्ती तो होती ही है। इसलिए भी उनमें राज्यों की निर्वाचित सरकारों के निर्णयों की अवहेलना करने का साहस आया है। वैसे अक्सर संविधान विशेषज्ञों ने इनकी आलोचना जनतंत्र पर मुसल्लत कर दिये गये सफ़ेद हाथी के रूप में की है, जो सरकारी ख़ज़ाने पर भी बोझ हैं; और कार्यपालिका के कार्य प्रणाली में अनावश्यक रोक भी।

अत: उक्त संवैधानिक विवाद हेतु राज्यपाल आर.एन. रवि की संविधान की आड़ में प्रदर्शित राजनीतिक हठधर्मिता भी कम उत्तरदायी नहीं है। इसलिए तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी ठीक ही थी कि राज्यपाल ने ईमानदारी से काम नहीं किया। तथा आप (राज्यपाल) संविधान से चलें; पार्टियों की मर्ज़ी से नहीं। परन्तु इस स्वीकार्य तर्क के बावजूद भी समझना होगा कि संवैधानिक मूल्यों की गरिमा संविधान के सैद्धांतिक निरूपण में निहित है, जिसका तदर्थ स्थिति में समर्थन इसलिए भी ज़रूरी है, ताकि राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था में शुचिता एवं सम्मान दोनों सुरक्षित रह सकें एवं भविष्य में ऐसी कोई समरूप अवस्था उत्पन्न न हो या संवैधानिक टकराव की स्थिति पैदा न हो।

‘धर्मो रक्षति रक्षित:’ की भारतीय ज्ञान परंपरा के लाक्षणिक अर्थ- ‘धर्म की रक्षा कीजिए, धर्म आपकी रक्षा करेगा’ की भाँति संविधान के मूल सिद्धांतों का परोक्ष संदेश भी समतुल्य है कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कीजिए और संविधान आपके लोकतंत्र और उसकी स्थापित व्यवस्था की संरक्षा करेगा।

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